हां मैं प्रेम में हूं
प्रेम में हूँ..!
हां मैं प्रेम में हूं..!
स्वयं के..!
और लगता मुझे…
ये सारा संसार है प्रेममय…!
शबनमी रेशमी
एक सूत..
एक धागा महीन सा..!
जुड़ता जोड़ता…
रूहों की खुशबूओं से..
रूहों को…
और रूहानियत से..
सराबोर ये ब्रम्हांड…!
कल कल करता झरने सा…!
अकूत स्तोत्र के खजानों संग…
मुझे स्वयं के प्रेम में..
प्रेममय होने का एक
अभूतपूर्व एहसास…
है कराता..
और एकबारगी…!
इस अनंत बसंतमय…
पृथ्वी की बासंती बयारों…
संग हैं.. हम बंध जाते
दोस्ती और प्रेम के
अटूट गठबंधन में…!
कि..
मैं प्रेम में हूँ..
स्वयं के…
संकल्पों परिकल्पनाओं के परे…
हर संभव असंभव
पराकाष्ठाओं के पार…
हां मैं प्रेम में हूं…
एक प्रेममयी…
ज्योति
एक लौ…
आतुर
सदैव
जलते ही रहने को…
बिखरने बिखेरने को आभा अपनी…
रौशन जब तक…!
न हो जाए पूरी कायनात…!
स्नेह प्रेम के उजालों से…!
लेशमात्र भी न बचे…!
घृणा का अंधेरा…
आज हो रही शनैः-शनैः…
जो अद्भुत एक अनुभूति…..!
चूंकि..!
चूंकि… मैं
प्रेम में हूँ न..!
प्रेममयी… एक प्रेयसी…!
बालिका सेनगुप्ता
लेखिका, अधिवक्ता और मोटिवेशनल काउन्सिलर
लखनऊ, उत्तर प्रदेश