स्त्री मूर्ति नहीं है

“स्त्री मूर्ति नहीं है “

हर रोज
कई सवाल
कई नजरों के
बीच से गुजरती है निर्भयाएं ।
कहीं बचतीं हैं
नजरों और सवालों से ,
कहीं लड़तीं हैं
नजर और सवालों से ,
निर्भयाएं
हर रोज लड़तीं हैं
एक युद्ध
अपनी पहचान के लिए ।
ऐसा युद्ध
जहाँ सीधे रास्ते भी
जाने क्यों
बार-बार चौराहे बन जाते हैं ,
और वहाँ औरत का
बस मौन परिधि में
रहना ही
आदर्श माना जाता है”….

हाँ ! आदर्श का
मायाजाल …..
जहाँ दिखते हैं
कई उपासक,
आह्वान करते हैं
देवी रूप में
स्त्री का ,
पूजी जाती है
मौन ,सौंदर्य और
शक्तियों की
स्त्री मूर्तियाँ ।
नगाड़े धूप- दीप
भजन कीर्तन
उपासना के बाद
विसर्जित कर दी जातीं हैं
ये स्त्री मूर्तियां ……
पर
स्त्री मूर्ति नहीं है
बल्कि मूर्त चेतना का
सृजन है ,
प्रेम और प्रकृति के
पल्लवन का सत्य है ,
विसर्जित तामसिकताओं को
स्वयं में समाहित करने का
नाम है स्त्री
जिसे इंतज़ार है
निर्णायक सुबह का….

 

 

डॉ उमा सिंह किसलय

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