सौम चन्द्रिका
गरल गरल हुआ वदन सुधाविहीन सिंधु मन।
जल रहा नयन नयन धुआं धुआं धरा गगन।।
स्वार्थ छद्म से यहाँ चिनी गई इमारतें
मूक प्राणियों के कत्ल से सजी इबादतें
नाम पर विकास के हरा भरा भी कट रहा
वक्ष भूमि का लहूलुहान जैसे फट रहा
कर्णभेदती बिगाड़ती रही ध्वनि: पवन
मूल से उखड़ गया परंपराओं का चमन।।
आवरण संभालता रहा वही तो छंट रहा
नीतियों में आस्थाओं का सुभाव घट रहा ।
घेर कर किरण प्रभाओं को चली लालसा
कालिमाओं को उकेरती मकड़ीजाल सा ।
समन्वय बिगड़ गया बिना घटा बड़ी तपन
सूखती हुई नदी सकेंगे देख क्या सृजन।।
साथ लें ऋचाएं वेद मन्त्र प्राण प्राण हों
भिन्न भिन्न फैलते हुए प्रदूषणों से त्राण हों
बुझे अनलअरण्य की यह सजल प्रयास हो
सुगन्ध चन्दनी वाक् वाणियों का रास हो ।
मनुष्य की, प्रकृति की मित्रता रहे सघन
पंचतत्व में जिलायें सोमचंद्रिका लगन।।
डॉ रागिनी भूषण
पूर्व अध्यक्ष
संस्कृत विभाग
कोल्हान विश्वविद्यालय