सपनों का भारत
भारत अथवा हिंदुस्तान का नाम सामने आते ही ऐसे देश की कल्पना साकार हो उठती है जो अपनी प्राकृतिक संपदा, नैसर्गिक सौन्दर्य एवम अथाह धन धान्य से परिपूर्ण है। अपनी सांस्कृतिक विरासत एवम ज्ञान के अकूत भंडार से मालामाल है । अपनी शांतिप्रियता एवम वसुदेव कुटुम्बकम की अति प्राचीन धरोहर का पालन करता ये समृद्धशाली देश, जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता है। सदैव विदेशी आक्रांताओं को लुभाता रहा। कभी किसी पर आक्रमण न करने एवम सर्व धर्म समभाव की नीति पर चलने वाला ये देश, समय समय पर अधिनायकवादी नीति पर चलने वाले, साम्राज्य विस्तार की भूख से लालायित, विदेशी क्रूर लुटेरों के लिए बहुत आसान सा शिकार रहा है। हर चौदह कोस पर पाणी और वाणी की भिन्नता वाला ये देश, भिन्न भिन्न रस्मों रिवाजों, परम्पराओं वाला, अनेकता में एकता और एकजुटता का पालन करने को कृत संकल्पित ये देश, समूचे विश्व में अपना अलग स्थान और पहचान रखता है।
यहाँ की मिलीजुली संस्कृति अन्य देशों को आकर्षित करती रही है।
किन्तु ज्यादा पीछे ना जाकर बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि मुगलों और उनके बाद आए अंग्रेजों ने इस सोने की चिड़िया का बड़ी बेरहमी एवम निर्ममता से शोषण किया। न केवल लूटा खसोटा अपितु अपमानित भी किया और अपनी स्वार्थपरक नीतियों को मानने के लिए विवश किया।
राजनैतिक :
सदियों से मुगलों और उसके बाद अंग्रेजों की गुलामी सहता ये देश । नागरिक अधिकारों से वंचित यहाँ के लोग जिन्हें मानसिक बंधक बनाया हुआ था। न बोलने की आजादी, न अपने ढंग से जीने की आजादी, न धार्मिक स्वतंत्रता, न रीति नीति में कोई दखल। बस अपने मालिकों के हुकुम की तामील करने को अभिशप्त यहाँ के मूल निवासी, गुलामों सा जीवन जी रहे थे।
छोटी छोटी रियासतों और राजे रजवाड़ों की आपसी फूट और मनमानी में बंटा ये देश, आपस में लड़ने भिड़ने और अंग्रेजों की सत्ता के आगे नतमस्तक होता ये देश, अपनी दुर्दशा पे रोता बिलखता निराशा के अंधकार में डूबा हुआ था, लेकिन 1857 में मंगल पांडे द्वारा आजादी की प्रथम चिंगारी के रूप में एक असफल सी कोशिश ने धीरे धीरे समूचे देश में क्रांति की मशालें प्रज्ज्वलित कर दी। असंख्य बलिदानों और कोशिशों के बाद आखिर 15 अगस्त 1947 का वो दिन आ गया, जब सम्पूर्ण भारत गुलामी के अंधेरों से निकल कर आजादी की सांस लेने लगा। सदियों की गुलामी से छुटकारा पा कर विश्व का सबसे बड़ा और शक्तिशाली लोकतंत्र बना। जनता द्वारा जनता के लिए चुनी हुई सरकार का सपना सच हुआ। पंच सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री एवम राष्ट्रपति के पद पर हमारे अपने लोग निर्वाचित हुए।
सामाजिक अवस्था :
अनेक खंडों में बंटा ये देश असंख्य कुरीतियों का साक्षी रहा है। ऊंच नीच का भेद भाव, जाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा से वंचित ये देश सामाजिक दृष्टिकोण से बेहद कमजोर और असहाय हो चला था। उस समय की सामाजिक अवस्था नारकीय जीवन जीने के समान थी।
ऐसे समय में आजादी की सुखद बयार चली और अनेक कुरूतियों पर अंकुश लगा। अनेक जन उपयोगी कानून बने जिसके कारण लोगों का जीवन सुगम हो पाया। सदियों से सर पे मैला ढोने की अमानवीयता हो अथवा सती प्रथा इन पर तुरन्त रोक लगाई गई। स्त्री शिक्षा को अनिवार्य किया गया। बाल विवाह एवम दहेज को अपराध मान कर दंडित करने का क़ानून बनाया गया।
आर्थिक दशा :
जब लोगों को सामान्य नागरिक अधिकार से ही वंचित रखा गया। सिर्फ मालिक और गुलाम की नीति पर ही जीवन चलता था। ऐसे में किसानों, मजदूरों और छोटे छोटे काम करने वालों की दुर्दशा से कौन परिचित नहीं है। सूदखोर महाजन किस प्रकार उनका शोषण करते थे सब जानते हैं।
सोने की चिड़िया कहलाने वाला ये सम्पन्न देश, घोर गरीबी में जीने को विवश था। ना रोटी ना लंगोटी, ना छत ना बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति ।
यूँ तो ये आर्थिक विषमताएं हम आज भी झेल रहे हैं। लेकिन भूदान आंदोलन, निम्न वर्ग के लिए आरक्षण, किसानों वंचितों को आर्थिक सहायता, रोटी कपड़ा मकान बिजली पानी सड़क एवम रोजगार के साधन उपलब्ध करवा कर आर्थिक विषमता की खाई को पाटने का प्रयास किया जा रहा है। सड़क, परिवहन, रेल, पुल, स्कूल, चिकित्सालय जैसे अनेक कार्यों द्वारा लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जा रहा है। यद्यपि काफी काम हुआ है फिर भी बहुत होना बाकी है।
धार्मिक दृष्टिकोण :
सर्व धर्म समभाव की नीति पे चलने के बावजूद बाहरी आक्रांताओं ने हमारे धार्मिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करने का कुत्सित प्रयास किया। हमारे असंख्य पूजा स्थलों को बड़ी नृशंसता से नेस्तनाबूद कर दिया। सोमनाथ का मंदिर हो अथवा राम लला का ऐसे असंख्य मंदिरों लूटा और तोड़ा गया। मज़हबी उन्माद फैला कर आपस में नफ़रत के ऐसे बीज बोए गए जिसकी फसल सुरसा की तरह आज भी बढ़ती जा रही है। आपसी भाई चारे का जितना भी प्रयास होता है उससे कहीं ज्यादा कटुता के ज़हरीले बाण छोड़े जाते हैं। हमें इस आजादी की बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी है। न केवल देश का विभाजन अपितु लाखों बेगुनाहों का कत्ले आम, हजारों महिलाओं को अपनी आबरू, असंख्य बच्चों को अनाथ करके हमें ये आजादी हासिल हुई है।
बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारे तत्कालीन नीति नियंताओं ने जाने किस नीतियों के अंतर्गत ये बंटवारा किया जिसकी क़ीमत आज भी चुकानी पड़ रही है। कहने को हम स्वतंत्र हो गए लेकिन आज भी मज़हब के नाम पर दंगे और आतंक फैलाया जा रहा है। हमारी आस्था के प्रतीक एक मंदिर के लिए पांच सौ वर्ष इंतजार करना पड़ता है जो बेहद दुःखद और निराशाजनक है।
सांस्कृतिक दृष्टिकोण :
सभी धर्मों को आदर भाव देने वाला ये देश, उत्सवों त्यौहारों का देश माना जाता है। हमारे यहाँ जन्म, परण, मरण से लेकर जीवन के हर रंग को उत्साह उमंग और संजीदगी के साथ मनाया जाता है। दैनिक जीवन के हर अवसरों के लिए पूजा पाठ, उपासना है। फसल की कटाई पर बैसाखी मनाई जाती है तो होली के रंगों में सबको सराबोर कर दिया जाता है। दीवाली के दीप हो या ईद की सेवईयां, गुरु का प्रकाश पर्व हो या ईस्टर की शुभकामनाएं, रक्षा बंधन हो या छठ पूजा सब धूमधाम से मनाया जाता है।
शैक्षिक अवस्था :
आर्यभट्ट द्वारा शून्य की खोज हो अथवा वेदों में वर्णित ज्ञान, भारत के विश्व गुरु होने का प्रमाण है। तक्षशिला एवम नालन्दा से लेकर वर्तमान सिलिकॉन वैली में भारतीयों का दबदबा ये सिद्ध करता है कि इतना लुटने पिटने और खोखला होने के बावजूद हम किसी से कम नहीं है। चाणक्य से लेकर गणितज्ञ शकुंतला तक अनेक उदाहरण हमारे यहां मौजूद है। लेकिन ज्ञान और शिक्षा का प्रमुख केंद्र होने के बावजूद अंग्रेजों ने हमारी पारम्परिक शिक्षा नीति को एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत छिन्न भिन्न कर दिया। मैकाले ने हमारी व्यावहारिक शिक्षा नीति को समाप्त करके मात्र तोता रटंत और रेस के अंधे घोड़ों के रूप में विद्यार्थियों का जीवन बना दिया जो कमोबेश आज भी विद्यमान है। क्या कारण है कि एक सौ पैंतीस करोड़ के इस देश में एक भी विश्व स्तर का शैक्षणिक संस्थान नहीं है। जिस देश की करीब अस्सी प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है वहां स्कूल ही नहीं है। हालांकि आजादी के समय की तुलना में अभी बालिका शिक्षा में बहुत काम हुआ है। वर्तमान की सबसे जरूरी आवश्यकता है कि नई शिक्षा नीति को रोजगारोन्मुखी बनाया जाए। देश की भावी पीढ़ी को स्वावलम्बन का सन्मार्ग दिखाया जाए।
निसंदेह गुलामी की जंजीरों से मुक्त होकर हम स्वतंत्रता के खुले आसमान में उड़ने लगे हैं। विश्व में सशक्त लोकतांत्रिक देश के रूप में माने जाने लगे हैं लेकिन अब ये प्रणाली जातिवाद, क्षेत्रीयवाद, धनबल, बाहुबल के साथ खरीद फ़रोख़्त जैसे अनेक दोषों से संलिप्त हो गई है। राजनैतिक शुचिता, आदर्श, नैतिकता सब थोथे नारे बन कर रह गए।
विभाजन की त्रासदी को और असंख्य बेगुनाहों के नरसंहार को भूल भी जाएं तो अपने से जुदा हुए हिस्से को पाकिस्तान की शक्ल में स्थायी दुश्मन के रूप में हमारी सबसे बड़ी असफलता है। विगत 72 वर्षों में थोपे हुए युद्धों के कारण जन और धन की अपूरणीय क्षति के साथ हथियारों की अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं।
भले ही हम विकास के अनेक दावे करते रहें लेकिन आज भी रोटी कपड़ा मकान एवं शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से करोड़ों लोग वंचित है।
आजादी के समय देखे गए सपनों का भारत अभी भी कल्पना में ही है।
भ्रष्टाचार हमारी नस नस में व्याप्त हो चुका है जिसे मिटाना असंभव सा लगता है। मात्र दस वर्ष के लिए लागू किया गया आरक्षण आज वोट पाने का जरिया बन गया है। रोजगार की कमी के कारण प्रतिभाशाली युवा कुंठित होने लगे हैं। आरक्षण के लाभ ने जातिवाद की जड़ें और गहरी कर दी है। जनसंख्या विस्फोट, संसाधनों का बेहताशा दोहन और साम्प्रदायिक दंगे हमारी पहचान बन गए हैं।
राजनैतिक हस्तक्षेप, जिसकी लाठी उसकी भैंस की प्रवृति के चलते जनमानस में असंतोष बढ़ रहा है।
अमीर और अमीर, गरीब और गरीब तथा इन दोनों पाटों के बीच पिसता हुआ मध्यम वर्ग छटपटा रहा है।
आवश्यकता है कि जनहित में कुछ कठोर निर्णय लिए जाए। नेता, उद्योगपतियों द्वारा सुनियोजित लूट को न्याय पालिका कठोर दंड दे।
रोजगारपरक छोटी इकाइयों की स्थापना करके ग्रामीण क्षेत्रों को स्वावलंबन का मार्ग दिखाया जाए। राजनैतिक लाभ के लिए मुफ्त की सुविधाएं और सब्सिडी देने से बचा जाए।
लचर कानून व्यवस्था को सुदृढ किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी को भी देश का माहौल खराब करने की अनुमति ना दी जाए।
असंभव कुछ भी नहीं दृढ़ इच्छाशक्ति और संकल्प से सब कुछ संभव है। पहला देश बाकी सब शेष का जज़्बा ही सफलता की कुंजी है।
अरुण धर्मावत