लिखती तो तू है ज़िन्दगी

 

लिखती तो तू है ज़िन्दगी

मैंने तो सिर्फ पकड़ रखा है हाथ में कलम ,
लिखती तो तू है ज़िंदगी !

देखा जाए तो लिखने वाले हर विधा पर कलम चला ही लेते हैं, पर जब बात खुद पर लिखने की हो तो यह बात रोचक भी हो जाती है और तनिक जोखिमपूर्ण भी । अपने अतीत से बात करना , पीछे झाँकना कभी तो मुस्कुराने की वजह देता है तो कभी आँखों में नमी भी । लिखने का शौक कब से जगा या कब से लेखनी ने रफ्तार पकड़ी , इसकी कोई एक निश्चित तिथि तो नहीं है । पर इतना जरूर कहना चाहूँगी कि मन की भावनाएँ जब – जब समाज में हो रहे घटनाओं से प्रभावित होती रही तो कलम ने शब्दकोश के कुछ शब्दों को गूँथकर विचारों में ढालना शुरू कर दिया , कभी कविता की शक्ल में तो कभी आलेख के रूप में।बस तभी से यह सिलसिला अनवरत जारी है । मेरे लिए लेखन तनावमुक्त होने का एक सरल रास्ता है साथ ही विचारों को साझा करने का जरिया भी ।

कभी आँखें किताब में गुम हैं,
कभी गुम है किताब आँखों में ! “

किताबों से बड़ी पक्की दोस्ती रही । बचपन से ही पत्र पत्रिकाएँ घर के मेज की शोभा बढाती रहती थीं और हमारी शब्दकोश की ताकत भी । मेरे पिता श्री किशोर कुमार पेशे से इंजीनियर होते हुए भी साहित्य, कविता और शेरो-शायरी के शौकीन रहे । कादम्बिनी, इंडिया टुडे , सरिता , गृहलक्ष्मी, अहा जिंदगी जैसी पत्रिकाएँ हमारे घर में आती रही और मेरी सोच और अनुभव का आसमान विस्तृत होता रहा । माँ श्रीमती मीरा राय भी पढ़ने की शौकीन थी और साथ ही परिवार में पढ़ाई के माहौल को लेकर काफी संजीदा भी । इन सभी बातों ने पढ़ने – लिखने की आदत को व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बना डाला ।

 

” मजबूत दीवार की तरह है
महफूज छत की तरह है
राहे ज़िंदगी में पिता
एक बरगद की तरह है । “

वैसे बचपन गाँव की पगडंडी पर चहलकदमी करते हुए ही बीता। आज महसूस होता है कि ये मेरा सौभाग्य ही रहा कि अपने दादा स्वर्गीय नरसिंह सिंह और दादी कांता देवी के सानिध्य में रहते हुए मैंने उनके स्नेह का भी भरपूर आनंद लिया । गाँव में ही अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान मैने ग्रामीण वातावरण के अपनत्व को समझा । गंगा की लहरों का संगीत , छठ गीत , कार्तिक मास का रामायण पाठ और शादी-ब्याह मटकोर के गीत मेरे उस किशोरावस्था के अभिन्न अंग रहे ।
बिहार के मोकामा नामक गाँव में जन्म हुआ मेरा जो मुंगेर जिले में स्थित है । दादा जी की गाई प्रभाती और दादी के द्वारा की जाने वाली पूजा-अर्चना को सुनते – गुनते हुए वो दिन गुजरे। गंगा की लहरों के किनारे बरगद की छाँव के समीप बने घर से ही पढने लिखने के शौक की नींव पड़ी । स्कूली शिक्षा भी मोकामा में ही पूरी हुई और बिहार सरकार से छात्रवृत्ति प्राप्त करने का अवसर भी प्राप्त हुआ।


कॉलेज की शिक्षा स्टील सिटी जमशेदपुर में हुई । रांची विश्वविद्यालय से सन 2014 ईसवी में छायावादोत्तर महाकाव्य परंपरा विषय पर शोध कार्य पूरा किया । शिक्षिका के तौर पर साल 1997 से ही नौकरी कर रही हूँ । हिंदी विषय की छात्रा होने के कारण इस विषय में लिखने पढ़ने की एक दैनिक आदत सी बनी रही । कदाचित् इसी आदत ने शब्दों के विशाल भंडार से दोस्ती कराई । नतीजतन अपने मन की बात की अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता । शब्द के झुंड हमेशा साथ चलते प्रतीत होते हैं । कविताएँ तो हमेशा मानो किसी बच्चे की तरह आँचल पकड़ कर पीछे पीछे चलती है । कभी लिख पाती हूँ उन्हें तो कभी व्यस्तता की आँधी में खो जाती है वो ।
सम्प्रति अध्यापन के अलावा जमशेदपुर के आकाशवाणी केंद्र से आकस्मिक उद्घोषिका के तौर पर भी जुड़ी हुई हूँ ।अपने अंदर की सशक्त महिला के लिए पूरा श्रेय अपनी दादी और अपनी माँ मीरा राय को देना चाहती हूँ । मेरे पति साहित्य और कविताओं में कोई विशेष रूचि नहीं रखते पर मुझे इस राह पर चलने की और बढ़ने की पूरी स्वतंत्रता उन्होंने दे रखी है और शायद इन सभी प्रेरक शक्ति के कारण ही इतनी व्यस्तता में भी साहित्य मेरे साथ है और मैं साहित्य के साथ । अब ये सब परिवार के साथ ,स्नेह और आशीर्वाद के बगैर मुमकिन नहीं हो सकता था ।
व्यस्तता कविता की रफ्तार धीमी भले कर दे पर इससे मेरा नाता नहीं तोड़ पाती है । बहती हवाओं के साथ साथ कुछ कविताएँ हमेशा साथ-साथ चलती रहती है, तब तक , जब तक मैं उन्हें कलम – कागज के सुपुर्द न कर दूँ । कभी-कभी लगता है मैं कविताएँ लिखती नहीं बल्कि कविताएँ खुद को जबरदस्ती मुझसे लिखवा लेती हैं । यह सब मेरे लिए माँ शारदे के आशीर्वाद की तरह है ।

जिंदगी की राह आड़ी- तिरछी , सीधी – टेढ़ी चलती रही । पर टर्निंग प्वाइंट जैसी बात आती गई और मेरा कबीरी मन हालातों के अनुसार खुद को बदलता रहा और फैसले लेता रहा ।
अभिभावक बनने के बाद, माँ की भूमिका में आने के बाद हर औरत की पहली प्राथमिकता अपने बच्चों के चेहरे की मुस्कान होती है और मैने भी इस जिम्मेदारी को महसूस किया और बोझ की तरह नहीं बल्कि खुशकिस्मती समझ कर इसे निभाती चली गई ।
साहित्य के कई मंच से जुड़े रहने का सुकून है , संतोष है । जमशेदपुर की जमीन तो बस कहने भर के लिए स्टील सिटी है , साहित्य के चश्मे से देखिए तो यहाँ संवेदनाओं की गंगोत्री प्रवाहित होती है । कविताओं के रास्ते पर से गुजरते हुए मैंने साहित्य जगत में पदार्पण किया पर आज पद्य के साथ – साथ गद्य पर भी लेखनी चल रही है । तकनीकी दुनिया ने यह सुअवसर दिया है कि घर बैठे भी या जब भी वक्त मिले एक रचनाकार अपनी बात कह सकता है दूसरे का लिखा पढ़ सकता है । नौकरी और साहित्यकर्म अब भी जारी है । जीवन से एक बात समझ आ गई कि वजूद को गर चमकना है तो धूप में जलना होगा ।

” स्वप्न छीन सकते हो, संघर्ष नहीं ,
तुम हर्ष छीन सकते हो, उत्कर्ष नहीं ! “

डॉ कल्याणी कबीर

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