तलाश एक पहचान की
चौदह अक्टूबर उन्नीस सौ इकहत्तर (14 – 10-71)को छतीसगढ़ के रायपुर जिला के एक छोटे से गांव में स्वर्गीय श्री दिलीप सिंह जी के द्वितीय पुत्र श्री खोमलाल जी वर्मा (स्व.) सम्पन्न कृषक के प्रथम संतान के रूप में मेरा जन्म हुआ। दुर्भाग्य से उन दिनों ल़डकियों को जन्म देना अक्षम्य अपराध माना जाता था, बेटा और बेटी में भेदभाव चरम पर था। मेरे जन्म लेने के बाद मेरी माँ बहुत दुःख झेली है सिर्फ़ इसलिये कि उन्होंने एक लड़की को जन्म दिया था, पर माँ बताती है कि मेरे पिता जी ने हमेशा उनका साथ दिया, मेरे जन्म के कई साल बाद तक उनको और दूसरी संतान ना होने पर माँ चिंतित होती तो, पिता जी उनको समझाते कि अब यही बेटी ही हमारा बेटा है।
जैसे ही मैं 5 वर्ष की हुई मेरी माँ अपना ह्रदय कठोर करके, मुझे प्राथमिक शिक्षा के नाना नानी के यहां छोड़ दी।क्यूँकि उनको डर था कि कहीं मेरी दादी मुझे स्कूल भेजने से मना ना कर दे।
माध्यमिक शिक्षा तक मेरी पढ़ाई में कोई दिक्कत नहीं आई, और अब तक मेरी दादी ने भी मुझे पूरे मन से स्वीकार कर ली थी, इसलिए माँ पिता जी मुझे पुनः अपने पास ले आए। उन दिनों पंद्रह बीस गांव के मध्य सिर्फ़ एक ही हाई स्कूल हुआ करता था, हमारे गांव से स्कूल की दूरी सात किलोमीटर थी और आने जाने का कोई विशेष साधन भी नहीं था। गाँव के कुछ लड़के साइकिल से स्कूल जाते थे, उन्हीं घरों की लड़कियाँ ही आगे की पढ़ाई कर पाती थी। मेरे घर में सभी बड़ो ने मिलकर तय किया कि अब आगे पढ़ाई जारी नहीं रहेगी घर के काम काज सीखेगी , उनके इस निर्णय से मै बहुत दुखी थी, मेरे अन्दर आगे पढ़ने की तीव्र इच्छा थी, मैंने अपने पिता जी को किसी तरह राज़ी किया कि मैं साइकिल सीख कर गाँव के उन्हीं लड़कों के साथ पढ़ने जाऊँगी। मेरे पिता जी ने मुझपर पूरा भरोसा जताया, और मैंने उनके भरोसे का पूरा मान रखा।
लेकिन दसवीं के बाद मेरी पढ़ाई में फ़िर अड़चन आने लगी, ताया जी का लड़का जो मुझसे तीन साल बड़ा था दसवीं बोर्ड में तीसरी बार फेल हुआ था और मैं अब ग्यारहवीं में पहुँच गई थी ये बात घर के बड़ो (दादा जी) को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं हुई और अंततः मेरी पढ़ाई रोक दी गई। किसी और की ग़लती की सज़ा मुझे सुनाई गई। मैं बहुत आहत हुई थी। पर अभी भी मेरी पढ़ाई की इच्छा ख़त्म नहीं हुई थी। मैं किसी शिक्षक के सहयोग के बिना ही घर पर रहकर पढ़ाई जारी रखी,…. कला विज्ञान मे रुचि होने के बाद भी मैंने कुछ अलग करने की कोशिश में एग्रीकल्चर में बारहवीं बोर्ड की परीक्षा में अच्छे अंकों के साथ सफल हुई, मेरी इस सफ़लता से दादा – दादी दोनों का हृदय परिवर्तित हुआ और फ़िर आगे की पढ़ाई या कभी किसी बात के लिए कोई रोक टोक नहीं की, और परिवार में मेरे बाद वाले सभी बच्चों को मेरा उदाहरण देकर पढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे।
19-6-1991 को मेरी शादी श्री प्रहलाद वर्मा जी (मेकेनिकल इंजीनियर) से हुई , मैं कला प्रेमी और पति इंजीनियर , हमारी सोच कभी किसी विषय पर एक जैसी नहीं रही। हमेशा विरोधाभास रहा फ़िर भी बहुत सहजता और सरलता से दाम्पत्य जीवन सुखमय ढंग से व्यतीत हो रहा है।
मेरे दो पुत्र है दोनों ही इंजीनियर हैं। मेरे पढ़ने की शौक से दोनों बच्चे अच्छी तरह से वाकिफ़ थे, लेकिन लेखनी से अनभिज्ञ थे अभी महज तीन वर्ष पूर्व मेरी लिखी हुई, कोई ख़त बच्चों की हाथ लगी पढ़ कर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने ही मुझे आगे लिखते रहने का सुझाव भी दिया, उनके कहने पर फ़ेसबुक में आई और अपने आस पड़ोस की छोटी मोटी घटना को लिखकर पोस्ट करने लगी, लोंगो ने खूब सराहा और सुझाव दिया कि मुझे कहानियाँ भी लिखनी चाहिए और फिर इस तरह मेरी लेखनी शुरू हुई पिछले दो सालों में।अनेक पत्र पत्रिकाओं
सौरभ दर्शन( राजीस्थान), नव प्रदेश (छत्तीसगढ़) नवीन कदम (छत्तीसगढ़),ख़बरें पूर्वांचल( मुंबई) से तथा हम सबकी प्रिय पत्रिका “गृहस्वामिनी” में प्रकाशित हो चुकी है मेरी रचनाएँ….छत्तीसगढ़ आस पास पत्रिका में कुछ कविताएँ प्रकाशन हेतु गई हुई हैं…. मेरी कहानी “माँ का दिवाली तोहफ़ा ” फ़ेसबुक पर लाखों लोगों ने पढ़ा, इसे मैं अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि मानती हूँ, मेरी एक और कहानी ” लाली की होली” जो की बाल विधवा के जीवन पर आधारित है को भी बहुत स्नेह मिला….
मेरे अब तक के लेखकीय सफलता में परिजनों के साथ साथ फ़ेसबुक मंच और फ़ेसबुक, तथा वॉटसप मित्रों का बहुत बड़ा योगदान रहा है उनके सराहना और उत्साहित करती टिप्पणी हमेशा सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है और लिखने को प्रेरित करती है…..मै अपने स्नेहिल मित्रों और प्रिय पाठकों, तथा अपने, परिजनों के प्रति हार्दिक कोटीशः आभार व्यक्त करती हूँ। आप सब अपना स्नेह मुझ पर ऐसे ही बनाएँ रखिए।
अनिता वर्मा
साहित्यकार
भिलाई ,छतीसगढ़