“मेडिकल समर्पित रक्त व साहित्य सुधा”
जिंदगी का सफर यदि खट्टे मीठे अनुभवों का पिटारा है , तो यादों के पन्ने होते हैं और फिर चलते चलते जीवन के उतार चढ़ाव में विधाता ने कुछ ऐसे मोड़ लिखे होते हैं,जिनके बारे में कल्पना में भी सोचा नही होता है।बचपन की यादें एक सुखद हँसी होंठों पर ले आता है। अहमदनगर महाराष्ट्र में मेरे जन्म के कुछ माह बाद मेरे पिता श्री प्रभुनाथ प्रसाद जी ने जमशेदपुर टेल्को मे सुप्रीटेन्डेट का पद संभाला । मेरी शिक्षा कान्वेंट मे शुरु हुई। छोटे भाई व जुड़वा बहनों के साथ साथ बचपन की सुनहरी यादें हैं ।
मुझे याद है कि मैं निल्डिह के बगीचे में फूलों पत्तियों से दवा बनाने का खेल खेला करती थी जिसे देखकर बाबूजी कहते-” मेरी बेटी डॉक्टर बनेगी”।डॉक्टर बनने की शुरुआत का नियति का यह पहला कदम था। फिर मैं जब चौथी कक्षा में थी,बाबूजी ने हैवी इंजनीवरिंग कॉरपोरेशन (एच ई सी) राँची में जेनेरल मैनेजर फिर वाइस प्रेसीड्रेंट का पद संभाला ।आजकल जो विधान सभा है (उसे रसियन होस्टल कहते थे) उसमें हमलोगों के रहने के लिए पूरी व्यवस्था थी।बाबूजी चेकोस्लोवाकिया, रसिया,बेल्जियम,जर्मनी लंबे समय के लिए जाते रहते। माँ हम सभी के पालन, शिक्षा का ध्यान रखती। बाबूजी प्राय: हर साल जाड़े की छुट्टियों में हम सभी को, स्वयं कार चला कर जगह जगह घुमाने ले जाते। अपने घर वाराणसी, बिहार,ओडिशा, कोलकाता,नेपाल आदि घुमाते थे।
बाबूजी व माँ को शेर शायरी बहुत पसंद था। बाबूजी एच ई सी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कवि सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन शहीद मैदान में हर साल करते।राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी, हरिवंश राय बच्चन ,गोपाल नीरज, काका हाथरसी, बालकवि बैरागी जैसे महान कविगण को मैं बाबूजी के साथ मंच पर बैठ रात रात भर सुनती । मुझ बालिका को समझ नही आता था, लेकिन उनके बोलने का अंदाज मुझे मोहित करता था।
कविगण कालोनी के अतिथि निवास मेंं रहतेंं। वे हमारे बंगले पर आते। मैं भोजन के समय उनके गपशप चुपचाप सुनती । तब मुझे भी कुछ लिखने की इच्छा जागृत हुई। मैं कुछ लिखने की कोशिश करने लगी। ये महान कवियों का व मेरे पिता माता का आशीष ही है, जो मैं कुछ लिख पाती हूँ। माँ बाबूजी मुझे कविता लिखते देखते ,तो खूब हँसते और शाबाशी भी देते।वे ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी से मुझे अनेक तरह की इंगलिश व हिंदी के पुस्तकें पढ़ने के लिए दिलवाते। नौकर चाकरों से घर भरा रहने पर भी , माँ हम भाई बहनों को पढ़ाई के साथ घर का हर कार्य सीखाती थीं । वो सुनहरे बचपन की सुखद यादें ,अनुभुतियाँ अंतर्मन में सदा जीवित रहती हैं।मैं विद्यालय में स्वयं छोटे नाटक लिखती और सहपाठियों संग प्रस्तुत करती। सितारा देवी का नृत्य देखने के बाद, मैं कथक नृत्य की प्रशिक्षण ग्रहण करने लगी और उसकी परीक्षा में उत्तीर्ण भी हुई।
किंतु चिकित्सक बनना मेरा प्रथम लक्ष्य था, मैं उससे विचलित नही होना चाहता थी। कॉन्वेंट की पत्रिका फिर कॉलेज की पत्रिकाओं में मेरी कवितायें छपती रहतीं।
डिग्री वन का समय जीवन ने दो अनुपम सुंदर मोड़ लाया। डॉ अनिल कुमार गुप्ता से मेरा विवाह और मेडिकल इंटरेंस में उत्तीर्ण होना। मेडिकल इंटरेंस देने की भी एक अलग कहानी है। दरभंगा सेंटर में ऐडमिट कार्ड बहुत परेशानी के बाद परीक्षा के ठीक आधे घंटे पहले मिला था। हार्दिक आभार है , उस हाउस सर्जन का, जो समस्तीपुर से लहरियासराय दरभंगा ट्रेन यात्रा में हम पिता पुत्री को मिले थे। जब हमे किसी होटल या गेस्ट हाउस में पहले से बुकिंग के अलावा भी जगह ना मिला, तब हम पिता पुत्री उनके पास गये। उन्होने अपने होस्टल के कमरे में हमें शरण दिया और रात 11 बजे भोजन का प्रबंध किया । दूसरे दिन अॉफिस से परीक्षा के पहले ऐडमिट कार्ड लाकर दिए। मेरी चिंता घबड़ाहट आप समझ सकते हैं।मुझे उनका नाम भी याद नही,ना फिर उस भाई से धन्यवाद देने के लिए कभी मिल पाई । वो जहाँ भी होंं ,ईश्वर का आशीष उन्हें मिलता रहे।ईश्वर की कृपा से मैं ऐ एफ एम सी पुणे ( आर्म फोर्सेस मैडिकल कॉलेज, पुणे) व ऑल इंडिया मेडिकल इंटरेंस दोनों में उत्तीर्ण हुई थी। विवाह की मेरी एक ही शर्त थी कि मुझे पढ़ने दिया जायेगा और मेरी इस इच्छा का सम्मान मेरे पति और मेरे श्वसुर पिता श्री गुप्तेश्वर नाथ गुप्ता ने किया। जमशेपुर मेरे ससुराल में केवल श्वसुर पिता श्री गुप्तेश्वर नाथ गुप्ता और उसके तीन पुत्र ही थे, मेरी सासु माँ का देहान्त हो चुका था। घर पर सत्ते पे सत्ता का थोड़ा सुलझा हुआ वातावरण था। मेरे अच्छे नंबरों के कारण मुझे अपनी पसंद के राँची में राजेंद्र मेडिकल कॉलेज में एम बी बी एस करने का सुअवसर मिला ,और मैने वहीं पढ़ाई शुरू की,ताकि राँची से मैं अपने ससुराल जमशेदपुर आ जा सकूँ । शिक्षा का तप शुरु हुआ। लक्ष्य प्राप्ति के लिए तन मन कर्म से लगना पड़ता है। माता पिता का स्नेहाशीष ,सहयोग ,पति व श्वसुर पिता के स्नेह त्याग विश्वास के साथ मैं लगी रही। हम पति पत्नि कभी कभी ही मिलते ,क्योंकि दोनों अलग अलग शहरों टाटा व् राँची में रहते थे।इस तरह साल बीतने लगे। कविताओं की रचना भी चलती रही ,किंतु अब उसमें विरह पीड़ाएँ रहने लगी ,जो केवल डायरी या पन्नों में ही रहतीं। जिसमें कुछ बाद में छपी ।
चौथे वर्ष के अंत में बड़े पुत्र मनीष ने मातृत्व सुख दिया। कठिन पढ़ाई लेकिन बच्चे को भी समय देने के लिए होस्टल नही गई ,जिसके कारण भोर में उसका कार्य कर राँची के शून्य तापमान पर सुबह छह बजे बस के लिए खड़ी हो जाती। बस के बाद टेम्पो से मेडिकल कॉलेज जाने में एक तरफ से डेढ़ घंटे लगते थे। घर लौटते रात हो जाती। फिर बेटे के साथ समय और देर रात पढ़ना। फाईनल इयर परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद इंटर्नशीप में अब और समय देना पड़ता। दो तीन दिन घर ना आ पाती।कभी आती तो एक घंटे मे बेटे को देख लौट जाती।
इस बीच मेरी बेटी का आगमन हुआ। तब मैंने टाटा मेन हॉस्पिटल में कार्य शुरु किया। बेटे को लेकर टाटा आ तो गयी, पर नन्ही बिटिया के देखभाल का कोई प्रबंध ना था, तो उसे माँ पिता के पास छोड़ना पड़ा। हर रविवार उसे देखने सुबह बस से राँची जाती व उसी दिन शाम को दूसरे दिन जॉब के लिए लौट आती।
जमशेदपुर आते ही डॉ गुप्ता न्यूरो मनोरोग विषय पर पी जी के लिए बाहर चले गए। उसी समय मेरे छोटे देवर को ब्रेन ट्यूमर है इसका पता चला , जिन्हें विल्लौर मेंं ईलाज के बावजूद भी बचाया ना जा सकता।अति कष्टदायक समय था ,मैं भी खून में प्लेटलेट कमी से परेशान रहती थी। श्वसुर पिता को पुत्र खोने के शोक से निकाला आसान नही था। डॉ गुप्ता चार साल राँची पटना डबल पी जी डिग्री पूर्ण कर अपने गृहस्थ जीवन में वापस आएं। उसके बाद छोटे बेटे के आने से घर में और खुशियाँ आ गई। उसके बाद मेरी इच्छा पूरी हुई,मैं भी स्त्रीरोग में पी जी कर ली ।
बच्चे बड़े होने लगे । मेरे माँ बाबूजी और श्वसुर ,तीनों बच्चे , मैं व डॉ गुप्ता से घर भरा पूरा और आनंदमय रहता था। जॉब में उन्नति व सच्चे मित्र जीवन की पूंजी थी। इतने वर्षों के तप का फल। हाँ माँ पिता व श्वसुर जी के बढ़ते उम्र के साथ शारीरिक परेशानियाँ रहने लगी थी । मैं व डॉ गुप्ता उनके देखभाल करते। मैं फिर यदा कदा कवितायें कभी कागज के टुकड़ों पर कभी दवा लिखने के पूर्जे पर लिखती ,और कहीं भी रख देती। मैने फिर नृत्य शिक्षिका व तबलावादक के ताल पर कथक नृत्य का रियाज शुरु किया ।टी एच एम क्लीनिक सोसाइटी के वार्षिक सम्मेलन के सांस्कृतिक कार्यक्रम में लगातार मेरा प्रदर्शन रहता। कविता भी पाठ करती। मेरे डॉक्टर्स मित्रों का सराहना प्रोत्साहन सदैव मिलता रहता। किंतु मैं अपने मरीज सेवा के कार्य को अपनी इस रूचि से सदैव ऊपर रखती, क्योंकि मेरा परम धर्म चिकित्सा करना ही है।
इसी दौरान 1988 के पुल पर भीषण भीड़ की भगदड़ कांड और फिर टाटा स्टील के फॉउन्डर्स डे उत्सव 3 मार्च 1989 के अग्नि कांड ने शहर हॉस्पिटल को हिला दिया। अनगिनत जले लोगों को बचाने के लिए दिन रात हर डिपार्टमैंट के हम डॉक्टर्स लगे रहते । कई लोग काल ग्रसित हो गए । उसमें हमारी गाइड डॉ पी हीरा, नये विवाहित डॉक्टर जोड़े, सहयोगी डॉ के बच्चों की जलने से मृत्यु ने और असीम पीड़ा पहुंचाई ।हमसब उस कांड में स्वयं कैसे बचे शब्द नही हैं। जन जीवन सामान्य होने में बहुत समय लगा ।
कॉलोनी में होली दिवाली के वार्षिक उत्सव में कविता पाठ करती और सांस्कृतिक कार्यक्रम में हम सपरिवार भाग लेतें।घर के बड़े अभिभावकों के बढ़ते उम्र की परेशानियों के कारण हमलोगों ने आस्ट्रेलिया के जॉब ऑफर को मना कर दिया। इसी बीच कॉलोनी में डॉ जूही समर्पिता व अंजनी भाई मेरे परिवार बन गये।मनीष को अब इंजीनियरिंग करने मुम्बई चले गए। संतान को बाहर भेजने की पीड़ा को व्यक्त करना आसान नही। उसी समय मेरे पेट की पहले की सर्जरी के कारण बार बार अत्यधिक पीड़ा होने लगी। आँतों की फिर दो बार सर्जरी करनी पड़ी । वेल्लौर भी जाना पड़ा।जॉब करते हुए मनोरोग विशेषज्ञों व स्त्रीरोग विशेषज्ञों का अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय सम्मेलनों में हम पति पत्नी संग जाते रिसर्चर पेपर प्रस्तुत करते रहें। इस तरह अपने ज्ञान का विस्तार करते हुए मान सम्मान बढ़ने लगा।
साहित्यिक यात्रा का विस्तार :
उसी समय मैने पी सी पर अपनी इंग्लिश कविता पोएट्री वेब पर पोस्ट किया और मुझे उसके लिए ओरलैंडो यू एस ए में सम्मानित किया गया व द इंटरनेशनल सोसाइटी अॉफ पोएट्स संस्था की आजीवन सम्मानित सदस्यता ,स्वर्ण बैच, एडिटर्स आउट स्टैंगिंग अवार्ड सर्टिफिकेट मिला। यह मेरे जीवन का अद्भुत उपहार अति उत्साह दायक था ।टेलीग्राफ़ पेपर को भनक लगी तो मेरा इंटरव्यू लेने घर आये और मेरी साहित्यिक रुचि व उपलब्धि के बारे में विस्तृत वर्णन लिखा। टी एम एच में मीटिंग में सभी डॉक्टरों ने खड़े होकर ताली बजाकर अति सम्मान दिया। घर बाहर टाटा स्टील के ऑफिसर ,मित्रों, मरीज ,रिश्तेदारों सबसे बधाईयाँ मिलने लगी।
इस समय सहयोग बहुभाषिक साहित्यिक संस्था की शुरुआत हुई थी। मैं डॉ जूही समर्पिता व श्रीमती प्रतिभा प्रसाद के कहने पर संस्था की सदस्य बनी । और इस तरह जमशेदपुर के साहित्यिक गतिविधियों में मेरी यात्रा शुरू हुई।। मैं अपनी दोनों प्रिय बहनों की हृदय से कृतज्ञ हूँ । फिर तुलसी भवन के कार्यक्रमों में भी जाने लगी। श्री केदारनाथ महतो जी चमकता आईना में लगातार मेरी कविताओं को स्थान देने लगे। प्रेमचंद मंधान जी ने जटायु में जोड़ा। निर्मल मिलिंद जी, आदरणीय सत्यदेव ओझा जी , मार्गदर्शक गुरूवर श्री बच्चन पाठक सलील जी का आशीष मेरी उर्जा बनी रही।
इस बीच नित्या बेटी व छोटे बेटे रोहित भी कम उम्र में ही पुणे पढ़ने चले गए । बच्चों के कैरियर के लिए जाना जितना आवश्यक था ,मेरी ममता के लिए अत्यंत असहनीय था। मैने स्वयं को और व्यस्त कर लिया। हाँ हमारे माता पिता श्वसुर पिता ही हमारे बच्चे से ही थे। तुलसी भवन में साहित्यकारों से परिचय बढ़ा। मेरी कवितायें तुलसी प्रभा में छपने लगी। इसी समय अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन ( ए आई पी सी) के सम्मेलन का निमंत्रण आया। मैंने प्रतिभा जी, प्रेमलता जी ने टिकट किया और बंगलोर चल दिए।वहाँ देश के सारे प्रांतों से अनेक माताओं बहनें बेटियों की उपस्थिति व उत्साह देखने लायक था। ए आई पी सी के फॉउंडर संस्थापक डॉ प्रोफेसर लारी आजाद जी भाई से मेरी पहली मुलाकात हुई। सम्मेलन में उनका उद्देश्य, जुनून ,संयमित संचालन अनुशासित आयोजन देख बहुत प्रभावित हुई और उनके आग्रह से ए आई पी सी की आजीवन संरक्षक सदस्यता ग्रहण की। प्रतिभा जी प्रेमलता जी ने भी सम्मानित सदस्यता ली। मंच पर काव्य पाठ और बहनों से जान पहचान हुई।एक सुंदर अनुभूति व उर्जा संग मैं जमशेदपुर लौटी । फिर आदरणीय आनंदबाला शर्मा जी ने भी सदस्यता ली।
इसी समय डॉ गुप्ता के बड़े भाई का (जो उम्र में बहुत बड़े थे) अचानक स्वर्गवास मुंबई उनके बेटे के पास होने का खबर आया। अठासी वर्ष की उम्र में इस प्रकार के दुख से पिता श्री की स्थिति बेहद खराब हो गई। उनको संभालते हुए अभी साल नही बीता और दूसरा कहर गिरा। मेरी माँ असमय हम सबों को छोड़ कर चली गईं । दोनों बाबूजी की मानसिक पीड़ा व शारीरिक परेशानियों से, इस दुखद घड़ी में मुझे और डॉ गुप्ता को स्वयं को मजबूती से खड़ा रखना था। मेरी माँ कहती थी ‘आशा तुम बहुत आगे जाओगी ‘ । उनके नाम से हर वर्ष ए आई पी सी के मेगा कन्वेंशन में उपहार राशि और सम्मान पत्र देश के किसी भी भाषा की कवियित्री को दिया जाता है।
जीवन यात्रा में इस बीच संस्कार भारती की आजीवन सदस्यता व भागीदारी शुरु हुई । अन्य साहित्यिक गतिविधियों में भी जाने लगी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कवितायें बहुत पहले से ही छपने लगी थीं । उसी समय टी एम एच में पूर्ण कंप्यूटराइजेशन किया गया। मैं भी स्पेशल ट्रेनिंग ली और मेंने सबसे पहले अॉनलाईन ओ पी डी का सिस्टम शुरू किया। अपने पेशे के साथ अन्य लोगों को भी प्रशिक्षण देने लगी।पद बढ़ने वा नवीनकरण होने से हॉस्पिटल की जिम्मेदारियां और बढ़ने लगी ।अत: मैं कार्यक्रर्मों में काम के बाद देर से ही सही ,पर अवश्य जाती । इसी कर्म घर में मेरी पुरानी कविता की डायरी और कविता लिखे छोटे बड़े पन्ने मिले, जिसे मेरी बेटी नित्या व बेटों ने ना जाने कब से संभाल कर रखा था। मुझे खजाना ही मिल गया और फिर मेरी पहली काव्य संकलन “आशा की किरण” का विमोचन सहयोग बहुभाषीय साहित्यिक संस्था के मंच से लोक सभा स्पीकर “श्री इंद्रसिंह नामधारी जी ” और मेरे पिता के करकमलों द्वारा शानदार ढंग से हुआ। मैं अपने तीनों प्यारे बच्चों की सदा आभारी हूँ। इस विमोचन में मेरे दोनों पिताओं का विशेष स्नेह प्रोत्साहन व आशीष मिला। ईश्वर की कृपा, परिवार का सहयोग व हितैषीयों के शुभकामनाओं सहित यह यात्रा बढ़ने लगी।
साहित्यिक यात्रा पथ में:-
मुझे भागलपुर विक्रमशीला विद्यापीठ सम्मेलन में “कवि रत्न” सम्मान ,लखनऊ में काव्य कोकिला, कलकत्ता में सम्मान प्रदान किया गया । एक तरफ स्त्रीरोग मेडिकल सेमिनार और दूसरी तरफ साहित्यिक यात्रा का अनोखा उपहार । ईश्वर ने मेरे पेशे और साहित्य के लिए मेरी क्षमता बढ़ा दी।
मॉरीशस के ए आई पी सी का प्रथम अप्रवासी सम्मेलन 2007 में देश के विभिन्न प्रांतों से साठ बहनों ने डॉ लारी के नेतृत्व में शिरकत किया। साथ में मैं झारखंड प्रदेश की अध्यक्ष व् प्रदेश प्रभारी , डॉ अनिल व अन्य पुरूष संरक्षक भी। बिहार के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार जी उनकी टीम, मनोज तिवारी भोजपुरी गायक। भव्य स्वागत, ब्रह्मकुमारी द्वारा रहने की व्यवस्था आदि। मेरा भारत मॉरीशस नारियों पर शोधपत्र प्रस्तुति , झारखंड प्रदेश का पहनावा प्रदर्शन ,नृत्य व मॉरीशस ब्रोडकास्टिंग कॉपरेशन में कविता पाठ ।आनंद संग प्रगति । मॉरीशस के प्रधानमंत्री द्वारा भारत मॉरीशस मित्रता के लिए विशेष सम्मान ,प्रशस्ति पत्र पाकर हृदय आंदित था । अति सुखद यादें। देश लौटने पर टी एम एच टाटा स्टील द्वारा विशेष सम्मानित किया गया। न्यूज मीडिया में विस्तृत खबर भी छपा ।
इस प्रकार साहित्य के लिए आकाश खुलता चला गया । 2008 में यू के बर्मिंघम, यू एस ए में न्यूयॉर्क में अखिल भारतीय कवयित्री द्वितीय अंतराष्ट्रीय सम्मेलन मे कविता पाठ, शोध पत्र सांस्कृतिक कार्यक्रम में नृत्य प्रस्तुति , कॉन्सुलेट द्वारा सम्मान प्राप्ति । यू ए ई ,दुबई में “इभ अॉफ येरा सम्मान” ! इसी बीच दसवें मेगा सम्मेलन में यूनेस्को के अध्यक्ष आदरणीय डॉ विश्वनाथ डी कराड के कर कमलों से प्रशस्ति पत्र और विश्व शांति के लिए यूनेस्को की “आजीवन सदस्यता” मेरे लिए विधाता ने द्वार खोल दिया। इसी क्रम में दूसरी काव्य संकलन “आशा का आकाश” का विमोचन मेरे कर्म स्थल टी एम एच के प्रेक्षागृह में सारे डॉक्टरों, पारामेडिक्स ,शहर के साहित्यकारों ,कवियों के सम्मुख श्रीमती सुरेखा नेरुलकर समाज सेवी, मेरे साहित्य गुरू दिवंगत बच्चन पाठक सलील जी( मेरे मार्दर्शक) , डॉ मधुसूदनन टी पी -जेनेरल मैनेजर मेडिकल सरविसेस के हाथों डॉ जूही समर्पिता,प्रतिभा प्रसाद के संग हुआ । हॉस्पिटल के इतिहास में चिकित्सा विज्ञान व साहित्य का अनुपम संगम था।
इस यात्रा के बीच हमारे दोनों पिता हमें छोड़ गए । उनकी कमी सदा अनुभव करती हूँ, पर जानती हूँ, उनका आशीष सदा मेरे संग है।फिर यू एस ए सियाटेल में, आस्ट्रेलिया सिडनी में अपने देश को रिप्रजेंट करना,सम्मान प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं बहुत पहले से ही जे एम डी पब्लिकेशन नयी दिल्ली से संपादकीय में जुड़ी हुई थी। साहित्यत्यकारों को जोड़ने का प्रयास करती हूँ। फिर ए आई पी सी की ‘कालजयी”पत्रिका के संपादक मंडल की सदस्य बनायी गई और इंद्रप्रस्थ लिटरेरी फेस्टिवल ,नई दिल्ली की झारखंड अध्यक्ष। आज मैं यहाँ टोरंटो में लिखते हुए सोच रही हूँ कि ईश्वर मुझे राह दिखा रहे हैं कि मुझे अभी और कुछ करना है। मेरी प्रेरणा मानव पीड़ा चाहे वो शरीर का हो या हृदय का, जिसको मैनें देखा समझा और भोगा भी।नकारात्मकता को समझ सकारात्मकता के ओर बढ़ना । मैं सदा स्वयं को एक विद्यार्थी ही समझती हूँ। यहाँ विश्व हिंदी संस्थान,कनाडा के संस्थापक,संरक्षक व एडमिन सरन घई जी से मुलाकात संयोग ही नही है,पर यह एक संदेश है कि साहित्य व विज्ञान का संगम संभव है, संवेदनशीलता मानव की प्रकृति है,मैं उससे कभी अलग नही । मेडिकल सेवा पेशा मेरे रक्त में घुला है तो साहित्य एक वरदान मीठा अमृत है, जो जीवन को एक और जीवन देता है । मैं कृतज्ञ हूँ विधाता की जो मेरे जीवन के हताश पलों में मेरे साथ रहे। मेरे पति डॉ अनिल,मेरा परिवार,मेरे बच्चे , मेरी बहनें लीला, शीला, मित्र डॉ जी के लठ, डॉ अनिता, उर्मिला जी अपने पेशे के सभी सहयोगियों डॉ मित्रों की, साहित्यकार गुरूवर डॉ वीणा श्रीवास्तव, डॉ सी भास्कर राव, डॉ शांति सुमन, सभी मित्र बहनों भाइयों ,मेरे मरीजों की आभारी हूँ, जिनका विश्वास मुझे मिलता रहा है, जिन्होनें मुझे सदा उत्साहित किया व् करते रहते हैं। मै समाज के प्रति भी कृतज्ञ हूँ । मानव सेवा करते अपनी संवेदनशीलता को रूप दे सकूँ यही मेरे जीवन का कर्म और धर्म है।
The Tree doesn’t cry that it lost it’s Flowers. It is always busy in creating new flowers. Better to forget How much we have lost in life,But what new we can do is the the true significance of Life.
डॉ आशा गुप्ता
स्त्रीरोग विशेषज्ञ ( टी एम एच) कवियित्री व साहित्यकार
जमशेदपुर