वीरांगना बीना दास

वीरांगना बीना दास

आज से ठीक 88 वर्ष पूर्व 6 फरवरी 1932 का दिन था, जब कलकत्ता विश्वविद्यालय के कनवोकेशन हाल में बैठे सैकड़ों लोग एक युवती द्वारा लगातार चलायी जा रही गोलियों से स्तब्ध रह गए, जिनका निशाना कोई और नहीं बल्कि बंगाल का तत्कालीन गवर्नर स्टेनले जैक्सन था। हालाँकि जैक्सन बच गया पर युवा लड़की के इस साहस ने पूरे ब्रिटिश साम्राज्य को थर्रा कर रख दिया। क्रान्तिकारी और राष्ट्रवादी विचारों से ओत प्रोत वह युवती थी बीना दास।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के शिक्षक एवं प्रसिद्ध ब्रह्मसमाजी बेनी माधव दास और समाजसेविका सरला देवी के घर के कृष्णानगर(बंगाल) 24 अगस्त 1911 बीना दास का जन्म हुआ था। ब्रह्म समाज का अनुयायी यह परिवार शुरू से ही देशभक्ति से ओत-प्रोत था। इसका प्रभाव बीना दास और उनकी बहन कल्याणी दास पर भी पड़ा। साथ ही बंकिमचन्द्र चटर्जी और मेजिनी, गेरी वाल्डी जैसे लेखकों की रचनाओं ने उनके विचारों को नई दिशा दी।

अपने अध्ययनकाल में ही अंग्रेजों के खिलाफ निकाले जाने वाले विरोध मोर्चों और रैलियों में बढ़ चढ़ कर भाग लेने लगी थीं, परन्तु शीघ्र ही उनके मन में ये भावना घर कर गयी कि सशस्त्र क्रान्ति ही अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न करने का एकमात्र मार्ग है। अपनी इसी सोच को साकार रूप देने के लिए वह कलकत्ता के क्रान्तिकारी समूह छात्र संघ में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं थीं।

1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय बीना दास ने कक्षा की कुछ अन्य छात्राओं के साथ अपने कॉलेज के फाटक पर धरना दिया और उसके बाद वे ‘‘युगांतर’’ दल के क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आयी। उन दिनों क्रान्तिकारियों का एक काम बड़े अंग्रेज अधिकारियों को गोली का निशाना बनाकर यह दिखाना चाहता था कि भारतवासी उनसे कितनी नफरत करते हैं। अंग्रेजों को सबक सिखाने की उनकी इच्छा शीघ्र ही पूरी हुयी जब उनके संगठन ने उन्हें बंगाल के क्रूर गवर्नर को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मारने का काम सौंपा।

बीना दास को बी.ए. की परीक्षा पूरी करके दीक्षांत समारोह में अपनी डिग्री लेते समय दीक्षांत भाषण देने वाले बंगाल के गर्वनर स्टेनली जेक्सन को अपनी गोली का निशाना बनाने की जिम्मेदारी दी गई। 6 जनवरी 1932 की बात है। दीक्षांत समारोह में गर्वनर ज्यों ही भाषण देने लगा, बीना दास अपनी सीट पर से उठी और तेजी से गर्वनर के सामने जाकर रिवाल्वर चला दिया। सचेत गर्वनर थोड़ा सा हिला जिससे निशाना चुक गया और वह बच गया। बीना को वहीं पकड़ लिया गया। मुकदमा चला जिसकी सारी कारवाई एक ही दिन में पूरी करके बीना दास को नौ वर्ष की कड़ी कैद की सजा दे दी गयी। अपने अन्य साथियों का नाम बताने के लिए पुलिस ने उन्हें बहुत सताया, पर बीना ने मुँह नहीं खोला।

1937 में प्रान्तों में काँग्रेसी सरकार बनने के बाद 1939 में बीना दास जेल से रिहा होने के बाद भी अंग्रेजों का विरोध जारी रखा और भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के कारण फिर से 1942 से 1945 तक जेल यात्रा की और अनेक कष्ट उठाये। 1946 से 1951 तक वे बंगाल विधानसभा की सदस्य रही। गांधीजी की नौआखाली यात्रा के समय लोगो के पुनर्वास के काम में बीना ने भी आगे बढ़कर भाग लिया।

ऋषिकेश में लगभग 35 वर्षों तक एकाकी जीवन व्यतीत करते हुए 26 दिसंबर 1986 को उनकी मृत्यु हो गयी। दुर्भाग्य है कि देश के किसी भी इतिहासकारों ने कभी भी इस क्रान्तिकारी के बारे में जानने की कोशिश नहीं की और अपनी युवावस्था देश के नाम करने वाली बीना दास गुमनामी के अंधेरों में रहते हुए ही इस नश्वर संसार को छोड़ गयी।

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं……….
सादर नमन

 

डॉ नीरज कृष्ण
साहित्यकार
पटना, बिहार

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