वसीयत
दिन – रात, सोते- जाते ,उठते- बैठते, एक ही ख्याल, एक ही बात , एक ही विचार, अपनी लाडली के नाम वसीयत में क्या करूँ ? क्या दूँ उसे जो उसकी मुस्कान सदाबहार बनी रहे ? क्या करूँ उसके नाम कि उसकी आँखों में बिजलियाँ चमकती रहें, क्या लिख दूँ जिसे पाकर वह सनातन आनंदमयी में हो जाए । घर -द्वार , जमीन- जायदाद , रुपया -पैसा या सोना -चांदी ? नहीं नहीं ये भी कोई चीज़ हैं जिन्हें वसीयत के रूप में दिया जाए। ये सब तो भोग विलास की सामग्री हैं, भोगने पर इसका अंत तो निश्चित है ।क्षणभंगुर कहा जाता है इन्हें।यदि ये सब लिख भी दूं तो एक समय उपरान्त तो कुछ भी नहीं बचेगा ।तब क्या होगा सम्बल मेरी बिटिया का?
वैसे ही मेरी बच्ची का बचपन कई विरोधाभासी उलझन बना रहा । अनेक प्रकार की नसीहतों का जाल सा बिछा था । संयुक्त परिवार, दादा दादी ,चाचा चाची, मां-बाप किसकी माने किसकी ना माने । अपने अपने अनुभव से सब उनके भले की है कहते होंगें और मैं माँ तो कुछ अधिक ही सतर्क थी बेटी को आदर्श बनाने के क्रम में। सोचने लगती दादा दादी का मोहक लाड, चाचा चाची का झरने का दुलार उसके शिक्षण प्रभाव में यत्किंचित बाधा न बन जाए। कभी-कभी अन्य अनवरत उत्पन्न होती विसंगतियों से भी मैं भयभीत हो जाती । उनसे बचाने का प्रयत्न भी करती पर हर बार सफल होती ये भी तो आवश्यक नहीं था और जब मकरन्द सने निःस्वन तीक्ष्ण बाण उसके भविष्य पर छोड़े जाते तो वो बेचारी भोली तो कुछ समझ ही नहीं पाती किन्तु मेरी सतर्कता उसका कवच बनी रही। तब मैंने भी इन सब से दूर , अपने से दूर भेज दिया अपनी बच्ची को उच्च शिक्षा हेतु उसके नाना नानी के पास जिनका सानिध्य गुरुकुल बना ।प्रारंभ में अच्छा नहीं लगता था मुझे।हूक उठती थी,कचोटती थी फिर भी उसकी याद मै सह गई क्योंकि वहाँ उसकी तरुणाई खिल रही थी । मेरी माँ उसकी सखी हो गई थी और मेरे पिता उसके अपने पापा से भी अधिक सखा । नाना की अदम्य शक्ति ,गलत को गलत कहने का साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, कर्म की आस्था , अपने पर विश्वास, आत्मनिर्भरता और अपने निर्णय स्वयं लेने की निडरता। बहुत कुछ आत्मसात कर लिया था उसने मेरे पिता का वो सब भी जिन्हें ग्रहण करने में मैं चूक गई थी।
शायद इसीलिए गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया तो इकलौतेपन की बहार पर मुग्ध ससुराल के द्वार पर सजी वन्दनवारों में लिपटी चमकती विषैली सर्पणी, शीष पर रखे वञ्चक आशीष, स्वार्थ के हाथों दिए गए उपहार और छद्मी मन के मनुहार इन सबके बीच भी उसने अपने को जिलाये रखा ।अपने विश्वास को अपनी आत्मा से पुष्ट किया , अंधेरों में अपनी आस्था के दीप जलाए और अकेली ही डटी रही जीवन संग्राम में । पर जब आप ईमानदार होते हैं ।संपूर्ण सच्चाई के साथ अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं तो विजयश्री स्वयं आपके चरणों को चूमती है । मुझे इसी संदर्भ में प्रसिद्ध सूक्ति स्मरण हो आई ” सत्य परेशान तो हो सकता है किंतु पराजित नहीं होता ” सचमुच तूफानों से घिरकर आँधियों को मुट्ठी में भर कर भी जो चिराग जलाने की हिम्मत रखता है तो सार्थक होते हैं दिनकर “कोशिश करने वालों की हार नहीं होती” लोग जितना उसे गिराने की कोशिश करते वह उससे भी अधिक उठती जाती और इतना उठती गई कि गिराने वालें ही अपनी नज़रों में गिर गए।
ललाट जिसका दमकता हो व्यक्तित्व जिसका चमकता हो ,सत्य जिसका पर्याय हो निर्भयता जिसकी अनुयायी हो ,जो स्वयं स्निग्ध वर्तिका सी उजलती हो उसके नाम कौन सा उजाला लिख दूँ? किन्तु लिखूंगी फिर भी, क्योंकि अपने बाद ही आश्वस्ति चाहिए मुझे कि वह आजीवन आनंद से सराबोर रहे , आत्मविभोर रहे। वह शाश्वती ज्योतिमर्यी सदैव अविरल उजलती रहे ।उसका प्रकाश चतुर्दिक प्रसरित रहे तो आज बिटिया के नाम लिखती हूँ वसीयत में मैं ‘स्वयं को’ सम्पूर्णता के साथ। मिला देती हूँ अपना अणुमात्र शिवत्व उसके शिव में ताकि उसके रोम रोम से गूँजता रहे –
“शिवोSहम् शिवोSहम् शिवोSहम्”
यही है मेरी वसीयत उसके नाम ।
डॉ रागिनी भूषण
पूर्व अध्यक्ष
संस्कृत विभाग
कोल्हान विश्वविद्यालय