रोटी ,कपड़ा और मकान

रोटी ,कपड़ा और मकान

कदम बढ़ चले कदम
ना चिलचिलाती धुप
ना भींगने का डर.
सर्द हवाएं भी नही हिलाती दम
नही चुभती
मिलता जो भी हो दर्द
लिंग से परे
पत्थर तोड़े या
चढ़ जाएँ ऊँची इमारते
ना अँधेरे का भय
बहुत कुछ को नकारते
हमसब हैं निकलते
हंसते खिलखिलाते
अपने खोली से
अपनी दो चार फीट की
छाँव से
जज्बा है हमारा कर्म
बच्चों की रोटी के लिए
परिवार की दुखती पेट के लिए
मिल जाए सुख की वो रोटियाँ
जीते हैं बस आज के लिए
कल जो बीत गया वो था सपना
आज ऐसा समय आया
निर्भर निरीह है पल
भय भूले हम
अपने घरों को हैं चले
अपनों से मिलने का जुनून
और आज बस आज है
कल की सोच क्या करें
हमारे बिना असमर्थ समाज
देश जन समझे कभी
हमारी मेहनत पर
है खडी़ दुनिया
चाहते हम सुख शांति
जी हाँ ! मजदूरी की
रोटी कपड़ा मकान
समझे हमारा स्वाभिमान …..!!

डॉ आशा गुप्ता”श्रेया”
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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