रजनीगंधा

रजनीगंधा

कल सांझ का दिया जलाने गई थी तुलसी तले घर के आंगन में,
तभी मस्त हवा के झोंके ने बिखेर दी रजनीगंधा की सुगंध पूरे आंगन में।
वो रजनीगंधा जिसे तुमने बड़े प्यार से लगाया था हमारे आंगन में,
और कहा था,
“प्रिये गुजारेंगे गर्मियों की रातें इस प्यारे से आंगन में”।
पर,
तुम्हें तो भा गया परदेस का आंगन
अब तो ये रजनीगंधा ही रह गई है मेरी एक सहेली इस सूने घर आंगन में।
चंचल हवा के झोंके हैं या तुम्हारे हाथों की छूअन.. मदहोश सी पड़ी हूँ, आज अकेली
इस आंगन में,
प्रतीक्षारत हूँ,
कभी तो लौटकर आओगे,
करने मुझे सराबोर अपने अथाह प्रेम के सागर में,
और झूमेंगे दो दिल,
ये चांद,
ये तारे और
ये रजनीगंधा की डालियाँ
एक बार फिर इस आंगन में।

 

ऋचा वर्मा
साहित्यकार
पटना, बिहार

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