यह_कैसी_शिक्षा
शिक्षा प्राप्त करना हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य होता है, न केवल ज्ञान अर्जित करने के लिए, अपितु रोजगार प्राप्ति के मुकाम की ओर अग्रसर होने के लिए भी यह खासतौर पर सहायक होता है। पर हमारे समाज में शायद इस दिशा में कुछ ज्यादा ही ध्यान दिया जा रहा है और मैं स्तब्ध हूँ यह जानकर कि कई बच्चों की प्रारंभिक स्तर की शिक्षा की बुनियाद भी नकल और रिश्वत के ढाँचे पर खड़ी हुई है।
हमारी एक रिश्तेदार का बेटे का शुरू से ही पढ़ाई में मानसिक स्तर सामान्य स्तर से भी कम रहा है। पढ़ाई में इसलिए कह रही कि दुनियाभर के बाकी के उलटे सीधे कामों में शुरू से ही दिमाग बखूबी चलता रहा है। बचपन में उसकी दादी मेरे पास कभी कभार पढ़ने के लिए भेजा करती थीं क्योंकि उसके माँ बाप कम पढ़े लिखे होने के कारण उसे पूरा सहयोग नहीं दे पाते थे। ऊपर से खुद हिंदी माध्यम में पढ़ने के बावजूद बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाने का मोह!
जैसे तैसे ट्यूशन वगैरह के बल पर वह पाँचवी तक तो पास होता रहा, पर छठी कक्षा में फेल हो गया। तो माँ बाप ने सी बी एस सी बोर्ड का मोह त्याग पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड के एक प्राइवेट स्कूल में दोबारा छठी कक्षा में दाखिल करवा दिया। यहाँ पर विद्यालय के अध्यापकों द्वारा ट्यूशन पर जोर देकर खुद ही बच्चों को परीक्षा में आने वाले सवाल जवाब बता कर पास कर दिए जाने की प्रवृत्ति ने बच्चे को पढ़ने के शौक को जड़ से ही मिटा दिया। इस साल उसने दसवीं की परीक्षा देनी थी, तो मुझे पूरा विश्वास था कि वह इस साल परीक्षा में किसी भी तरह से पास नहीं होगा। पिछले दिनों उसकी परीक्षा के दौरान मेरा उनके घर जाना हुआ, तो मैंने परीक्षा की तैयारी के बारे में पूछा। बहुत ही बेशर्मी से उसने जवाब दिया कि “आंटी ट्यूशन वाले सर को सब पेपरों का पता है। और यह भी कि कहाँ पर चेक होने हैं। इसलिए कोई चिंता नहीं।” उसकी मम्मी भी उसकी पढ़ाई को लेकर कोई खास चिंतित नजर नहीं आई। मैंने सोचा कि ऐसे थोड़ी हो सकता, अब तो बोर्ड की परीक्षा है, यह ऐसे ही शोखी मार रहा।
कल अचानक फिर से उनके घर जाना हुआ, तो मेरी हैरानी की सीमा न रही यह जानकर कि वह परीक्षा में पास हो चुका है। उसकी ताई और उनकी बेटी ने ही बाद में मुझे बताया कि इसने पाँच हजार रुपये पहले से दिए हुए थे, जिसके एवज में उसे परीक्षा हाल में नकल की सुविधा तक मौहेय्या करवाई गई। बाकी तो जो गड़बड़ी हुई होगी, उन्हें नहीं पता।
खैर अब उस बच्चे का ओवरकांफिडेंस तो देखिए कि आगे ग्यारहवीं कक्षा में विषयों के चुनाव के बारे में पूछे जाने पर बहुत शान से कहता फिर रहा,”मैं तो आंटी चाहे मेडिकल ले लूँ, नान मेडिकल या कामर्स, सब में पास हो जाऊंगा। वो तो बस ऐसे ही नहीं ले रहा, आर्ट्स ले ली मैंने।” अब मुझे यह नहीं समझ आया कि यह जो हो रहा, सब माँ बाप की निगरानी में ही हो रहा आखिर। शुरू से ही अपने बेटे को मोबाइल, बाइक वगैरह की सुविधाएं प्रदान करने में अपना लाड प्यार लुटाने वाले माता पिता ने उसे शिक्षा जैसी जरूरी चीज दिलवाने में जरा भी जोर नहीं लगाया। सिर्फ कक्षा आगे बढ़ने के साथ साथ बच्चे का मानसिक स्तर और ज्ञान आगे बढ़ा या नहीं, इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं की उन्होंने। और एक बात और यह परिवार आर्थिक स्तर पर कोई बहुत ऊँचा स्थान नहीं रखता, फिर भी बेटे की जायज नाजायज माँगों को पूरा करने में ही वे अपनी परवरिश की सार्थकता मानते हैं।
परिवार की बात एक तरफ रख हमारी शिक्षा प्रणाली और उसमें चल रही गड़बड़ियों के बारे में सोचकर भी हैरान हो रही हूँ। कैसे हैं वो अध्यापक, जो पैसे के लालच में अनुचित तरीकों से बच्चों को डिग्रियां थमा रहे? इतना जोर वे पढ़ाई में कमजोर बच्चों को अतिरिक्त जोर लगाकर पढ़ाने में लगाएँ, तो क्या सही नहीं होगा? बच्चों को बचपन से ही हम गलत तरीकों से शिक्षित कर डिग्री तो दे देंगे, पर उनका अधकचरा ज्ञान समाज को किस दिशा में ले जाएगा? यहाँ पर दोषी तो हम सब हैं न।
सीमा भाटिया
वरिष्ठ साहित्यकार
लुधियाना, पंजाब