मज़दूर
हालातों से होकर मजबूर ही बनता है कोई मज़दूर
पेट की आग बुझाने को ही रहता है घर से कोसों दूर
करता है मेहनत इतनी पड़ जाते हैं छाले हाथ पांवों में
रहता है फिर भी वो सदा तनाव और अभावों में
गर इस जहां में मज़दूर ना कोई होता
ना होती गगनचुंबी इमारतें ना रहने को घर होता
रहते हैं ख्वाब उनके अधूरे, औरों के पूरे कर जाते हैं
रखता नहीं कोई याद उन्हें गुमनाम ही मर जाते हैं
ना समझें केवल मज़दूर उन्हें आखिर हैं वो भी इंसान
ना ढायें ज़ुल्म उनपर दें उन्हें भी उचित मान- सम्मान
हो सके ढंग से गुज़र बसर,होनी चाहिए इतनी मज़दूरी का प्रावधान
जी सकें सिर उठाकर,बना रहे उनका भी आत्मसम्मान
वन्दना भटनागर
साहित्यकार
मुज़फ्फरनगर