मजदूर
परेशानी हो या आँधी हो दिन रात श्रम करते हैं।
बोझा सर पे लेकर चलते हम मजदूर नहीं थकते हैं।।
फिर भी दो जून की रोटी को कभी कभी तरसते हैं।
मैं मजदूर हूं हां बहुत मजबूर हूं बस यही कहते हैं।।
ग़रीबी कहो या लाचारी , किस्मत की है मारी ।
तपते तन ,जलते मन व दिल में दर्द रहे भारी ।।
मन से कठोर होकर , मेहनत दिन रात करते हैं ।
मैं मजदूर हूं, हां बहुत मजबूर हूं बस यही कहते हैं ।।
सुलगती साँसें ,मचलता मन छुटते पसीने से ।
चमकता उनका तन ,पाँव के छाले महीने से ।।
आह न निकलती कांटे पाँवों में रोज चुभते हैं ।
मैं मजदूर हूं, हां बहुत मजबूर हूं बस यही कहते हैं ।।
परिवार पालते हैं हर दर्द को सीने से जकड़ते हैं।
सिसकियों को दबाकर वो रोज खुद से लड़ते हैं।।
पसीना बहता है तन से आँखों से आँसू बहते हैं ।
मैं मजदूर हूं, हां बहुत मजबूर हूं बस यही कहते हैं ।।
मौसम भी जब दगा दे जाता आँधी व तुफान से।
आँखों में नमी लेकर वह कहता है भगवान से ।।
भरी गर्मी हो या दुपहरी कभी नहीं वो रुकते हैं
मैं मजदूर हूं, हां बहुत मजबूर हूं बस यही कहते हैं ।।
निक्की शर्मा रश्मि
साहित्यकार
मुम्बई,महाराष्ट्र