बेचारी शिक्षा
पुस्तकों की गलियों में भटकते – भटकते,
मुलाकात हो गई शिक्षा से,
मैंने पूछ लिया उससे, यूंही हाल उसका।
रूआंसी होकर बोली वह,
मत पूछो क्या हाल है मेरा,
पहले रहती थी गुरुकुलों में,
सादगी और संस्कारों के संग,
पर अब हो गईं हूँ बाजारू,
कभी पैसों के बल पर बेची और खरीदी जाती हूँ,
और कभी बन मोहरा राजनीति का, व्यापम घोटालों में घसीटी जाती हूँ।
जन वितरण प्रणाली के तर्ज पर,
वितरित होती हूँ, गांव के पाठशालाओं में,
जहाँ तथाकथित शिक्षित शिक्षक, खरीदी हुई डिग्रियों के बदौलत,
बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी को कंधे पर लेकर सो जाते हैं,
बिना छत की कक्षाओं में रखे टेबुल पर।
शिक्षा की बदहाली का हाल बड़ा परेशान किया मुझको,
सोचती हूँ, क्या कभी वह दिन भी आयेगा,
महज औपचारिकता नहीं यह शिक्षा हमें जीना सिखाएगी।
ऋचा वर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार