खनक चूड़ियों की
माँ, आज खो गयी हूँ तुम्हारी यादों में
लेटी हूँ कुछ पल सुकून से
तुम्हारी यादों को समेटे अपने अंतर्मन में।
मुझे याद है जब मैं छोटी थी
मुझे परियों की सी फ्रॉक पहना
बालों में रिबन और आँखों में काजल लगा
मुझे प्यार से निहारती थी,
और इस डर से कि कहीं नज़र न लग जाये
मुझे काला टीका लगा चूम लेती थी,
उससे भी तुझे तसल्ली नहीं होती थी
नए नए उपाय कर मेरी नज़र उतारती थी
माँ, तुम बड़ी अजीब थी।
जब मैं गुड़िया की शादी रचाती
तुम अपनी पुरानी ज़री की साड़ी से
गुड़िया के कपड़े बनाती थी,
अपने संदूक से तरह-तरह की चीजें निकाल
गुड्डे की बारात सजाती थी,
और लड्डू कचौड़ी बना
बन्ना बन्नी गाती थी
और दहेज में खिलौने सजा
बच्चों के साथ बच्ची बन जाती थी
माँ, तुम बड़ी अजीब थी।
परीक्षा के दिनों में
जब मैं रात-रात भर जाग कर पढ़ती
तुम भी कहाँ सोती थी माँ,
कभी पानी, कभी चाय बनाती
और नींद न आने का बहाना कर
वहीं पास में बैठी रहती थी,
पढ़ते-पढ़ते सर दुःखता होगा
ये कह सर में तेल मालिश करती थी,
बेटी बड़ी अफसर बनेगी
ये सोच हर समय पढ़ने को कहती थी
माँ, तुम बड़ी अजीब थी।
मेरी शादी के लिए तुम परेशान रहती थी
बेटी को दूर नहीं भेजूँगी
ऐसा कह आस-पास ही वर खोजती थीं,
मुझे याद है मेरी शादी के लिए
संभाल कर रखे तुमने ढेरों कपड़े
बर्तन और तोहफे निकाले थे
और जब पापा को पड़ी धन की कमी
तुमने बटुए में जमा किये रुपये निकाले थे,
शायद विवाह की तैयारी तुमने
मेरे जन्म लेते ही शुरू कर दी थी
माँ, तुम बड़ी अजीब थी।
माँ, तुम कभी कोई तोहफा
अपने लिए नहीं रखती थी
और न कभी अपने लिए कुछ खरीदती थी,
बेटी की शादी में काम आएगा
ऐसा कह सब सहेज कर रख लेती थी
तभी तो विदाई के बाद तुम्हारी
अलमारी खाली दीखी थी,
मुझे याद है जब मैं पहली बार माँ बनी थी
मेरी नींद न खराब हो ये सोच मेरी बेटी को
चुपचाप अपने कमरे में सुला लेती थी
माँ, तुम बड़ी अजीब थी।
गर्मी की छुट्टियों में जब मैं ससुराल से आती
तुम ढेरों पकवान बना कर रखती थी
ये भी खा ले, वो भी खा ले कह दिन रात दुलारती थी,
और जब वापस जाने लगती
बेटी, तू यह भी रख ले, वह भी ले जा
कहकर मेरी अटैची भर देती थी,
कुछ खाने का सामान रखा है
कह मुझे टोकरी थमाती थी
और जब मैं टोकरी खोल देखती
उसमें पापड़, बड़ियाँ, अचार के साथ लड्डू, मठरी,नमकपारे
और न जाने क्या-क्या भर देती थी,
माँ, तुम बड़ी अजीब थी।
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आज तुम नहीं हो माँ
पर हर पल तुम रहती हो आस-पास
शायद तुम नहीं जानती
गूँजती है कानों में अब भी वही आवाज़,
जानती हो माँ
अब भी मैं तुमसे पूछकर करती हूँ हर काम
चौंककर घूम जाती हूँ
लगता है तुम पुकार रही हो मेरा नाम,
हर मोड़, हर राह पर दिखाई देती हो तुम
माँ, बहुत याद आती हो तुम।
जब थक कर मूँद लेती हूँ आँख
आभास होता है
तुम्हारी छाया का अर्श
याद आ जाता है
तुम्हारा प्यार भरा स्पर्श,
एहसास होता है माथे पर
तुम्हारे स्नेह का चुम्बन
नज़र आता है बंद आँखों में
तुम्हारी ममता का अंजन,
हो सके तो एक झलक दिखा जाओ तुम
माँ, बहुत याद आती हो तुम।
याद नहीं कब पी थी गर्म चाय
कब खायी थीं उतरती रोटियाँ
ये सब अब सपना सा लगता है
काश तुम होतीं
तो अब भी अपना सा लगता,
तुम्हारे उँगलियों में था अजब ही स्वाद
तुम बिन अब सब लगता है बेस्वाद,
याद आती है वो कढ़ी, वो खीर
जो बनाती थी तुम
माँ, बहुत याद आती हो तुम।
बीत गये बरसों न सुनाई किसी ने लोरी
काश लौट आते वो दिन
जब हिलाई थी तुमने झूले की डोरी,
चाहूँ मैं आज तेरे आँचल में छुप जाऊँ
कैसे करूँ बयां तुम बिन न रह पाऊँ,
आज भी श्वासों में बसी है
उन मसालों की सुवास
जिनसे महकता था तेरा आँचल
और मिलती थी स्नेह की आस,
काश एक बार लौट आओ तुम
माँ, बहुत याद आती हो तुम।
****************
तुम बिन अब माँ सूने हैं सब त्योहार
तुमसे ही थी रौनक, संस्कृति और संस्कार,
देखा है मैंने, तड़के तुम उठकर
नानी की तरह निपटाती थी काम
न माथे पर आती थी शिकन
न कभी दिखती थी थकान,
हमें था अपने आराम से वास्ता
और नानी और तुमको रहती
सुबह शाम नाश्ते की चिंता,
नानी का भी मासूम चेहरा, बड़ी आँखें थीं
माँ तुम बिल्कुल नानी जैसी थी।
कहाँ खो गए वो दिन, वो शाम, वो रातें
जब शुरू होती थीं सुबह तुमसे
और मिलती थीं थपकी भरी रातें,
कैसे भूल सकती हूँ
तुम्हारा नानी जैसा रूप सुहाना
माथे पर बड़ी कुमकुम की बिंदी
और कांधे पर सीधे पल्ले का टिकाना,
वो भरी कलाई में चूड़ियों की खनक
आँखों से टपकता ममता का रस
और सादगी भरे मुखड़े पर
मुस्कुराहट की चमक,
यादों में ननिहाल की छवि बसी थी
माँ, तुम बिल्कुल नानी जैसी थी।
****************
बीत गये वो दिन
जब तुम्हारा आँचल थामे मैं घूमती थी
तुम्हीं मेरी सहेली थी
और तुम्हीं मेरी प्रेरणा थी,
माँ देखो, आज मैं भी बन गयी हूँ माँ
अब वो बेफिक्र से दिन न रहे
मैं भी तुम्हारी तरह
जिम्मेदारी के एहसास तले दब गयी हूँ माँ,
आज तुम्हारे रूप में समाई हूँ
माँ, मैं तेरी ही परछाईं हूँ।
तरस गयी हूँ मैं, न मिलती दुलार की मेवा
अब है घर गृहस्थी, पति, बच्चों की सेवा,
रात को थक कर जब बिस्तर पर आती हूँ
उड़ जाती है नींद मेरी
और तुम्हारी तरह
कल की चिंता में डूब जाती हूँ,
याद आता है माँ,
कितना तंग किया था हमने
झुकता है सर सजदे में
कैसे सब संभाला होगा तुमने,
आज माँ बन ये बात समझ पाई हूँ
माँ, मैं तेरी ही परछाईं हूँ।
माँ, मैं भी तुम जैसी हो गई हूँ
अपनी चिंता भूल सबकी फिक्र में घुल गई हूँ,
नहीं ध्यान कब सर दर्द से दुखा
कब ताप ने जकड़ा तन को
बस देख बच्चों का भोला मुखड़ा
तुम्हारी तरह मिल जाता सुकून मन को,
माँ, आज मैं भी तुम्हारी तरह
सब कुछ छोड़ दौड़ जाती हूँ
बारिश में भीगे कपड़े उठाने
और सुबह का काम निपटा
लग जाती हूँ पापड़,बड़ियाँ, अचार बनाने,
लगता है तुम्हारी आत्मा में नहाई हूँ
माँ, मैं तेरी ही परछाईं हूँ।
नहीं याद कब वक़्त अपने लिये निकाला
हर आहट पर धड़क गया दिल
दौड़कर अपनों को संभाला,
माँ, तुम्हारी तरह छुपाने आ गये हैं ग़म
होंठों पर रहती मुस्कान भले ही आँखें हो नम,
मिली विरासत में माँ तुम जैसी शक्ति
माँ, बहन, बहू, बेटी, पत्नी हर रूप में मैं ही चमकती,
तुम्हारी तरह न कभी लांघी लक्ष्मण रेखा
खुद से पहले सदा दूसरों का मान देखा,
भले ही दे विदाई, हो गयी पराई हूँ
फिर भी माँ, मैं तेरी ही परछाईं हूँ।
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अब उम्र के उतरते पड़ाव में
एक छाया सी उभर आई है
खुली आँखें हो या बंद पलकें
हर ओर एक परछाईं नज़र आई है,
ये वो क्षितिज नहीं जिसे मैं छू न सकूँ
ये वो मृगतृष्णा नहीं जिसे मैं पा न सकूँ,
इस अक्स ने है सहलाया मुझे
कुछ तुझ जैसा रूप दिखलाया मुझे,
शायद मेरी बेटी बड़ी होने लगी है
माँ, तेरी छवि उसमें दिखने लगी है।
आज बेटी ने अपना बदला है रूप
दे रही सहारा बन एक टुकड़ा धूप,
सहलाती भी है, पुचकारती भी है
न रखूँ अपना ध्यान
तो प्यार से डांट देती भी है,
कभी तन पर चादर ओढ़ा देती है थपकियाँ
देख कष्ट में मुझको रोक लेती है सिसकियाँ
देख रही हूँ धीरे-धीरे
कहीं खो गया उसका बचपन
हर नारी की यही कहानी
पच्चीस में भी मानों हो पचपन,
मेरी बेटी अब तुझ सी लगने लगी है
माँ, तेरी छवि उसमें दिखने लगी है।
देखती हूँ बेटी जिम्मेदार हो गयी है
भूल गुड़ियों का खेल अब सयानी हो गयी है,
माँ, वो भी तुम जैसी अन्तर्यामी लगने लगी है
बिन कहे मौन भाषा वो पढ़ने लगी है,
जैसे तुम रखती थीं मेरी जेब में बादाम
रख जाती है सिरहाने भर कटोरी कटे आम
मेरी चिंता में माँ, न होना परेशां
फिक्र रहती है उसको अब मेरी सुबहो शाम,
छोड़ अपना ख़्याल
सबके लिये अब जीने लगी है
माँ, तेरी छवि उसमें दिखने लगी है।
न जाने क्यों बेटियाँ माँ सी होती हैं
जो गोद में थीं खेलीं अब सहारा होती हैं,
जिन्होंने चलना था सिखाया
आज थामतीं उनका हाथ
लड़खड़ाते जब कदम तब होतीं वो साथ,
होते हैं घर रोशन जहाँ लेती जन्म बेटियाँ
बेटों से बढ़कर प्यारी होती हैं बेटियाँ,
हर रिश्ते का मान रखती हैं बेटियाँ
ससुराल से पीहर को जोड़ती हैं बेटियाँ,
वो बेटी नहीं, मसीहा लगने लगी है
माँ, तेरी छवि उसमें दिखने लगी है।
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बीते कुछ वर्ष, बेटी हो गई पराई
सूनी हो गई बगिया, फूटी रुलाई,
जो शिक्षा का दहेज दे तुमने की थी मेरी विदाई
आज दुल्हन बन बेटी को वही सीख पहुँचाई,
एक दिन आई उसके घर भी एक भोली परी
बेटी की गोद में खिली एक नन्ही कली,
रूप में थी उसके चाँदनी सी चमक
तन पर थी उसके दामिनी सी दमक,
भरा अंक में उसको, देख मुझे मुस्काई
भर आईं आँख, माँ तेरी याद सताई,
नख-शिख तक तेरी झलक सी आई
गा रहे सब सोहर, घर में थी खुशी छाई,
टकटकी बांधे देख रही मानों पहचान पाई
माँ, तू घर में जैसे नातिन रूप में आई।
हर चेष्ठा उसकी प्रिय लगने लगी
शुक्ल पक्ष के चन्द्र सी बढ़ने लगी,
खेल-खेल में गुड़िया को सुलाती, झूठमूठ कभी दूध पिलाती,
मत रो, मत रो गुड़िया ऐसा कहकर बाहों का झूला झुलाती,
सोच रही मैं देख कर उसको
कैसी अजब ये बात है होती
कुदरत का ये अजब करिश्मा
हर नारी जन्म से माँ है होती,
उसकी हर रूप में तेरी झलक है आई
माँ, तू घर में जैसे नातिन रूप में आई।
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जानती हूँ अब अधिक नहीं जी पाऊँगी
कुछ दिन में माँ, तेरे पास ही आऊँगी,
चाहूँगी हर जन्म में तुझे माँ रूप में पाऊँ
बन बेटी तुम्हारी तेरे आँचल का सुख पाऊँ,
तुम्हारी तरह ही मैंने भी नारी का हर रूप है जिया
कभी लिया अमृत का स्वाद, कभी विष का घूँट है पिया,
आज दिलाती हूँ यकीं
घर पर तख्ती भले ही न हो अपने नाम की
पर महावर रचे पांव से ही
घर में गूँजेगी आवाज़ पायलों की
और भले ही मिले हमें दूसरा दर्ज़ा
पर गूँजेगी सदा “खनक चूड़ियों की”।
माँ, जो भी सीखा तुमसे, वही मंत्र दिया बेटी को
जो तुमने सीखा अपनी माँ से
वही पहुँचेगा मेरी बेटी की बेटी को,
हर जन्म में नारी इसी रूप में आयेगी
चाहे देवी हो या साधारण नारी
वो अपनी पहचान स्वयं बनायेगी,
और नाम जब भी लिया जाएगा
पिता से पहले माता का ही नाम आयेगा,
ये आहट है हर नारी की, उसकी पीढ़ियों की
सताई जाएं भले ही बेटियाँ
पर गूँजेगी सदा “खनक चूड़ियों की”
पर गूँजेगी सदा “खनक चूड़ियों की”।
रचयिता—
*डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’*