कोरोना बेचारगी और विडम्बनाएं

कोरोना बेचारगी और विडम्बनाएं

कैसा खुलासा था हमारी बेचारगी का
कि मिटाने के लिए स्थानीय श्रमिकों
की भी भूख
शुरू किया जा रहा था
दुबारा भवन निर्माण

जब तक इसकी चर्चा हो रही थी
दूरस्थ भोपाल में
ठीक था सब
बहुत परेशान थीं
शहर की एक
अग्रणी कवयित्री
अंतर राष्ट्रीय ख्याति की
घूम रही थीं
शहर भर में
करतीं भूखों की सहायता
साधुवाद पहुंचे उन्हें

किन्तु, जैसे ही यह
भवन निर्माण पहुंचा
मेरी गली में
खड़े हो गए
मेरे रोंगटे
चौकन्ने हो गए
आँख, कान
बढ़ गयी दिल की धड़कन
सांसत में प्राण
जब ऐन मेरी खिड़की के सामने
होने लगा भवन निर्माण!

सोचने लग गयी मैं
करने के बारे में फोन
पहुंचाने को उन डॉक्टर तक सन्देश
जिनका बन रहा है
यह हड्डी अस्पताल
कि ज़रा इंतज़ार करें और

कि मुजफ्फरपुर नामक
इस छोटे से शहर में
जहाँ अब तक आयीं हैं
इक्की दुक्की ही खबरें
संदिग्द्ध केसेस की
कहीं फ़ैल न जाए
महामारी
यहाँ ऑक्सीजन सिलिंडर ही नहीं
प्लाज्मा ट्रीटमेंट दूर की बात है

दोस्तों, यह केवल चेतावनी नहीं
भीरुपना भी नहीं
यह कविता एक कोशिश है
ढूंढने का निदान
कि निकला
निकाला कैसे जाए
गरीबी के दुष्चक्र से?

किस तरह बंद की जाए
बाल मज़दूरी
अनिवार्य बनायी जाए
शिक्षा
जुटाई जाएँ तमाम
नौकरियां
उठाया जाए
दो बच्चे का नारा

ताकि अगली बार अगर हो
लॉक डाउन
तो भिक्षा में फैलाये हाथ
सड़क पर निकले नहीं
कोई मज़दूर!

मॉल्थस और कोरोना
किस विडम्बना का हुआ था
पर्दाफाश
शुरू होते ही कोरोना काल
कितनी बड़ी आबादी कर रही है
जीवन यापन केवल
भवन बना कर
और कितनी बड़ी
भवन बनवा कर!

पता नहीं कितनों ने
भुला दिया है
मॉल्थस का वह सिद्धांत कि
प्रकृति करती है हिसाब
तमाम कांस्पीरेसी थेओरीज़ के बीच
ग़ौर करें इस सच पर
कि कितने प्रतिशत हरियाली के साथ
बिठा रहे हैं तादात्म्य
लगातार बनाते हुए कंक्रीट
के नए नए जंगल!

आप कह सकते हैं
यह समय सिद्धांतों का नहीं
शायद एक वैक्सीन ढूंढने का है
जिसमें जुटा है अमेरिका समेत
समूचा विकसित समाज

किन्तु यदि हम कहते हैं
खुद को विकासशील
प्रगति शील
तो क्या एक बार फिर
सिद्धांतों पर विचारने की
ज़िम्मेदारी
नहीं बनती हमारी?

पंखुरी सिन्हा
साहित्यकार
मुजफ्फरपुर,बिहार

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