कहां से कहां आ गए
कौन थें हम
हम वही थें
जो ईंट और गारा के लिए झगड़तें थें
पशुओं की तरह लड़ते थें
रक्त के रंग को नकारते रहें
अलग अलग सोचते और
अलग अलग विचारते रहें
आपसी संबंध हमारे
एक दूजे को नीचा दिखाने पर तुले रहें
हम कितने अच्छे और कितने भले रहें
नींद ना चैन
दिन और रैन
बस सुख की लालसा में
बस समृद्धि की लालसा में
बस एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में अंधाधुन भागते रहें
खुद को खुद ही पछाड़ते रहे
और देखो
आज क्या से क्या हो गये
अपनी ही खोलो में कैद हो गये
धिक्कारता है आज निर्रविरोध मेरा मन
अलापता है सुबह शाम एक ही राग
रे मनु पुत्र जाग
बैठा है आज तूं बारूद के इक ढेर पर
पूरी सदी हैं मिटने के कगार पर
जाग रे इंसान जाग
और बंद कर दिए उस ईश्वर ने भी अपने द्वार
वो भी कहता है आज
कि अपनी ही कऱो अर्चना
अपनी ही करो वंदना
पूजना ही है तो मानवता को पूज
भूख से लड़
ग़रीबी से भिड़
आसुंओं को पी
घर में रह और अतंस को जी
वरना देख
समुचे विश्व पर
बिजलियों से भरा भयानक बादल
चढ़ा आ रहा है
सागर से लेकर गहनतम खाई तक
अन्तरिक्ष से धरती की अमराई तक
यह जलता तपता हुआ सूरज
बस आग ही बरसायेगा
प्राण वायु तक को भी पी जायेगा
कुछ भी नहीं बचेंगा फिर
तो जागो
गहो
अब भी वक्त है
बारूद के जिस ढेर पर बैठें हो
उसे मौत की चिंगारी से बचा लो
तुमने नहीं
तो देखों वक्त ने सिखाया
पूरे विश्व को आज
एक कुटूम्ब बनाया
सोनिया अक्स़
साहित्यकार
पानीपत , हरियाणा