आज बिरज में, होरी रे रसिया
होटल के कमरे की बालकनी से समुद्र की मचलती लहरों में खोई बैठी थी कात्यायनी। शुभेन्दु ने आकर कहा ‘हम कल नहीं जा सकते गोवा से।’
लेकिन क्यों… हमारी टिकट तो कन्फर्म है। पूछा कात्यायनी ने।
वो … राजभवन से यह आमंत्रण आया है। होली मिलन समारोह में आपका गायन व सम्मान रखा है। राज्यपाल महोदय ने स्वयं आपको आमंत्रित किया है।
आप जानते हैं शुभेन्दु, हम होली नहीं खेलते। कोई रास्ता निकालो इस आमंत्रण से बचने का।
रंगों से खुद को दूर कात्यायनी ने किया है। शास्त्रीय संगीत की प्रख्यात गायिका शिप्रा देवी ने नहीं। वैसे हमने बता दिया है आपको रंगों से एलर्जी है। डॉक्टर ने अबीर गुलाल व रंग से दूर रहने की हिदायत दी है।
कुछ नहीं कहा कात्यायनी ने। मौन को स्वीकृति मानकर शुभेन्दु ने फोन पर सहमति दे दी राजभवन आने की।
बंगले के लॉन में गुलाल की थालियां सजी थीं। शिप्रा देवी को विशाल सभा कक्ष में लाया गया। खचाखच भरा था हॉल। एक तरफ़ छोटा सा मंच बना था।
विशिष्ट अतिथियों के बैठने के लिए राज्यपाल महोदय के साथ बैठने की व्यवस्था थी।
स्वागत व सम्मान के पश्चात शिप्रा देवी ने मंच पर स्थान ग्रहण किया। तबला, पखावज व सितार तैयार थे।
शिप्रा देवी ने साउंड चैक के बाद राग काफी में ठेठ बनारसी अंदाज़ में ठुमरी उठाई-
उड़त अबीर गुलाल… लाली छाई रे
लाल श्याम, लाल भई राधे….
लाल भयो बृज सारा……..
उसके बाद फर्माइश हुई उस ठुमरी की जिसके बिना शिप्रा देवी का कोई भी कंसर्ट पूरा नहीं होता।
कुछ घूँट पानी के पीकर छेड़ दी तान।
आज बिरज में होरी रे रसिया
होरी रे रसिया बरजोरी रे रसिया
अपने अपने घर से निकसी
कोई श्यामल कोई गोरी रे रसिया
आज बिरज में……….
श्रोताओं ने अपने स्थान पर खड़े होकर तालियाँ बजाई, शिप्रा देवी के बाहर जाने तक।
राज्यपाल महोदय ने कहा, आप तो बनारस से हैं। वहाँ की होली तो प्रसिद्ध है… एलर्जी ने आपको रंगों से दूर कर दिया मगर।
दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करते हुए शिप्रा देवी कार में बैठ गईं।
बनारस का और वहाँ की होली का जिक्र स्मृतियों की शांत झील में कंकर सा गिरा और हलचल होने लगी।
कात्यायनी को संगीत का शौक बचपन से था। उस शौक को परवान चढ़ाते थे दादा सा। किसी की मजाल जो मुँह खोले उनके सामने। बस काका सा को पसंद नहीं था गाना बजाना। उनकी नजरों में यह भांड-मीरासियों का काम था।
संगीत विशारद की उपाधि के बाद अलंकार उपाधि के लिए कात्यायनी ने प्रयाग संगीत महाविद्यालय में प्रवेश लिया था। वहाँ मिला था कपिल। संगीत आचार्य था। कात्यायनी के कंठ में उसे सरस्वती और लगन में एकलव्य दिखा। डूब गया वो पूरी तरह से तराशने में कात्यायनी को।
जब दादा सा सुनते कात्यायनी को रियाज़ करते हुए फूले न समाते।
हर साल होली में हवेली में धमाल होता था। संगीत की महफिल के साथ पिचकारियों से बरसती थी धार और छा जाती थी भांग की बहार।
इसबार कात्यायनी ने सिफारिश की कपिल को बुलाने के लिए।
दादा सा तो संगीत के पारखी थे। गुणी संगीतज्ञों का सम्मान करते थे। स्वीकृति दे दी थी।
काका सी भृकुटी तन गई थी मगर। कात्यायनी के मेलजोल की बात उन तक पहुँची तो, जन्मकुंडली बनवा ली थी कपिल की। उसका अछूत होना सबसे बड़ा अपराध था उनकी दृष्टि में।
वो हवेली में कदम रखे, अतिथि सम्मान मिले उसे यह गलत है। मगर दादा सा का फैसला तो बदल नहीं सकता।
आया था कपिल। सफेद धोती-कुर्ता और अंगवस्त्र में पूरा पंडित लग रहा था। दादा सा ने हाथ पकड़ कर अपने साथ बिठाया।
फिर सजी महफिल और गूँजने लगी कपिल के सधे स्वरों में होरी।
लाल गोपाल गुलाल हमारी आँखिन में जिन डारो जू।
बदन चन्द्रमा नैन चकोरी इन अन्तर जिन पारो जू।।
कपिल के आलाप और सरगम पर जहाँ सभी झूम रहे थे वहीं काका सा का खून उबल रहा था। ठंडाई के गिलास से वो उसे नियंत्रित करने की कोशिश में अनियंत्रित होते जा रहे थे।
गायन के बाद शुरू हुआ रंग।
कपिल ने भरकर पिचकारी कात्यायनी को निशाना बनाया।
बिजली की चपलता से वो भागी और बगीचे में आदमकद मूर्ति के पीछे जा छिपी।
कपिल उसे तलाशता वहीं पहुँच गया और कात्यायनी ने पीछे से आकर मुट्ठी में भरा गुलाल कपिल के चेहरे पर मल दिया।
शुरू हुई बरजोरी…. राधा करत विनती न सुने नन्दलाल…. बंहिया पकड़ कलाई मरोड़ी।
तभी धांय की आवाज़ हुई दो बार।
कात्यायनी जब घूमी तो कपिल तर था लाल रंग में।
बारहबोर की दोनों गोली समा गई थीं सीने में और वो गिर गया वहीं।
कात्यायनी की चेतना विलुप्त हो गई थी।
जब होश आया वो हवेली में नहीं कलकत्ता की होटल में थी।
उसके बचपन का दोस्त शुभेन्दु जो बहुत पहले लंदन चला गया था अपने माता-पिता के साथ, बैठा था।
माँ ने उसे गोद में भर लिया था। समझाया था या हवेली का फ़ैसला दोहराया था नहीं मालुम। बस इतना समझ सकी थी उसे शादी करके शुभेन्दु के साथ लंदन जाना है।
उसके बाद उसने होली के रंगों से दूरी बना ली थी। हर रंग उसे सुर्ख लाल दिखता था। कपिल के सीने से बहता हुआ…..
शुभेन्दु ने उसे यादों में डूबा देखा तो हाथ उसके हाथ पर रख दिया।
उस स्पर्श से कात्यायनी लौटी आज में।
कात्यायनी, बनारस और होली तुम्हारे जहन में डर बनकर समा गये हैं। अब तुम उस हवेली में नहीं मेरे साथ हो। फिर डर कैसा।
शुभेन्दु अगर आप न होते तो मैं कब की खत्म हो गई होती। आपने कात्यायनी को नया जीवन दिया शिप्रा बनाकर। मेरे साथ मेरे संगीत को भी जिंदा रखा….. मेरे गुरु के सपने को… जिसे मेरे घरवालों ने गलत समझा। कपिल के साथ मेरे प्यार की गलतफहमी ने उस देवता की जान ले ली…. वो मेरी वजह से….
नहीं कात्यायनी। कोई भी किसी के लिए न मौत की वजह हो सकता है न ज़िंदगी की। यह विधि का विधान है। तुम केवल उस विधान के होने की वजह बनीं। तुम न होतीं तो कोई और होता।
बहुत दुख है मुझे कपिल के न होने का। इसीलिए उस सपने को पूरा करने के लिए मैंने तुम्हें शिप्रा देवी के रूप में संगीत की दुनिया में जीवित किया। कपिल जहाँ है, बहुत ख़ुश होगा आज तुम्हारी उपलब्धि से।
शायद तुम ठीक कह रहे हो। लेकिन मैं तुम्हारे इस उपकार का बदला कैसे चुकाऊँ….
बता दूँ… मानोगी मेरी बात। पूछा शुभेन्दु ने।
अपनी जान देकर भी…. क्षत्राणी हूँ।
तो फिर आज….. और जेब में रखे गुलाल से गाल लाल कर दिये शुभेन्दु ने कात्यायनी के।
एक पल को हतप्रभ सा देखा कात्यायनी ने। फिर न जाने क्या हुआ उसको।
अपने गालों पर लगा गुलाल हाथों में लेकर शुभेन्दु को लगा दिया।
शुभेन्दु ने जेब से पैकेट निकाला मगर कात्यायनी ने झपट लिया।
शुभेन्दु का सिर और चेहरा रंग दिया था कात्यायनी ने।
ड्राईवर ने सीडी प्लेयर आन कर दिया था। शिप्रा देवी की ठुमरी गूँज उठी थी।
“आज बिरज में होरी रे रसिया…..”
मुकेश दुबे
वरिष्ठ साहित्यकार
सीहोर, मध्यप्रदेश