“पसरते शहर ……….….. सिकुड़ते लोग” !!
सुविधाएं जब सनक और रुतबे का रुप ले लेती है, तो दबे पांव जिंदगी में घुन लगना शुरू हो जाता है। कभी शहर का मतलब सुख-सुविधाओं और बेहतर जीवन रहा होगा, पर आज शहरों की हालत देखते हुए ऐसा बिल्कुल नहीं नजर आता। अब हर कोई शहरों की दिक्कतों से रोज रू-ब-रू हो रहा है। वर्तमान में विश्व की 50% आबादी शहरों में रह रही है, और विशेषज्ञों की माने तो 2050 तक दुनिया की 70% आबादी शहरों में होगी। अब सोचना यह है कि आने वाले दिनों में मनुष्य शहरों को और जटिल बनाने की दिशा में विकसित करता है या उसे बेहतर जीवन के लिए अनुकूल बनाता है। आज जब चारों और स्मार्ट सिटी का नारा बुलंद हो रहा है, तो शहरों में मशीन बनकर अपनी जिंदगी का जायजा लेना और जरूरी हो जाता है।
पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने ‘The World Population Prospects 2019: Highlights’ नामक एक रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार वर्ष 2027 तक चीन को पछाड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2019 में भारत की आबादी लगभग 1.37 बिलियन और चीन की 1.43 बिलियन है। वर्ष 2050 तक भारत की कुल आबादी 1.64 बिलियन के आँकड़े को पार कर जाएगी। तब तक वैश्विक जनसंख्या में 2 बिलियन लोग और जुड़ जाएंगे और यह वर्ष 2019 के 7.7 बिलियन से बढ़कर 9.7 बिलियन हो जाएगी। भारत का जनसँख्या घनत्व 2011 जनगणना के अनुसार 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर थी, जबकि चीन में 2015 की गणना के अनुसार में 142 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। अर्थात हमारे देश में जनसँख्या घनत्व चीन को काफी पीछे छोड़ चुका है।
एक तरफ जहां 1950 में दुनिया की कुल आबादी मात्र 2.50 अरब थी और फिर 37 सालो के अन्तराल के बाद 1987 में हमारी दुनिया की कुल आबादी 5 अरब तक पहुच गयी यानी इन 37 सालो में हमारी आबादी एक झटके में दोगुनी हो गयी, जिस आबादी को लगभग डेढ़ लाख साल लगे 100 करोड़ पहुंचने में उसे हमने मात्र 214 सालों में ही 800 करोड़ के आसपास पहुंचा दिया है और अगर हम इसी गति से बढ़ते रहे तो 2050 में 1000 करोड़ के पार होंगे और स्टीफन हॉपकिंस की माने तो अगले 100 वर्षों में इंसान को रहने के लिए दूसरे ग्रह की आवश्यकता होगी।
मानव सभ्यता की उत्पत्ति को लगभग डेढ़ लाख हजार साल बाद जब 11 जुलाई 1987 को दुनिया में 500 करोड़वें बच्चे ने जन्म लिया, तब संयुक्त राष्ट्र संघ को बढ़ती हुई बेलगाम जनसंख्या से होने वाली समस्या का एहसास हुआ और 36 सदस्यों वाले एक संगठन यूनाईटिड नेशन्स पॉपुलेशन फंड – यू.एन.एफ.पी.ए. का गठन किया गया जिसे दुनिया में जनसंख्या के विषय में काम करना था और सैद्धांतिक रूप से बेलगाम होती जनसंख्या पर दुनिया का ध्यान खींचने के लिए 1989 से 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के रूप में मनाने एकमत से निर्णय लिया गया।
देश में सुरसा की भांति बढती आबादी ने स्वतंत्रता के पश्चात् देश की प्रगति में सर्वाधिक प्रभावित किया है। देश की आजादी के समय मात्र चौतीस करोड़ पचास लाख थी, आज एक सौ तीस करोड़ हो चुकी है। बढती आबादी ने 72 वर्षों में हुई सारी प्रगति को प्रभाव-हीन कर दिया है। देश में खाद्य उत्पादन जो 1950-51 में 50.83 मिलियन टन था 2013-14 में बढ़ कर 263 मिलियन टन तक पहुँच गया। इतना बड़ा उत्पादन इसलिए संभव हो पाया क्योंकि कृषि भूमि क्षेत्रफल 1960 में 133 मिलियन हेक्टयर था 2010 में बढ़ कर 142 मिलियम हेक्टयर हो गया और प्रति हेक्टेयर उपज जो 1960 में 700 किलो प्रति हक्टेयर थी 2010 में वैज्ञानिक संसाधनों एवं रासायनिक उर्वरकों के अधिकतम प्रयोग करने के कारण बढ़ कर 1900 किलो प्रति हेक्टेयर हो गयी अर्थात उपलब्ध साधनों का अधिकतम उपयोग किये जाने के पश्चात् ही यह संभव हो पाया, परंतु विभिन्न बीमारियाँ भी बढ़ गईं। अब और अधिक वृद्धि होने की सम्भावना नहीं हो सकती। खाद्य उत्पादन में इतनी वृद्धि होने के बावजूद, आर्थिक असन्तुलन के कारण आज भी देश की बहुत बड़ी जनसँख्या को एक समय का भोजन हु नसीब होता है। वर्तमान समय में देश में पर्याप्त खाद्य भण्डार होने के कारण, खाद्य तेलों के अतिरिक्त अन्य खाद्य पदार्थ को विदेश से मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। परन्तु यदि जनसँख्या वृद्धि नहीं रूकती है तो अवश्य ही हमें खाद्यान्न भी विदेशों से मंगा कर ही जनता का पेट भरना पड़ेगा। खाद्यान्न के अतिरिक्त अन्य सभी उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में आशातीत वृद्धि होने के बावजूद देश की सारी जनता के लिए सारी वस्तुएं,सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पायीं हैं। अतः गरीबी बढती जाती है दूसरी तरफ बढती आबादी ने बेरोजगारी के ग्राफ को कहीं अधिक किया है जिसके कारण भी गरीबी को बढ़ावा मिलता है, देश का विकास प्रभावित होता है।
जहाँ एक ओर उत्तरी अमेरिका का क्षेत्रफल विश्व का 16% है, वहाँ विश्व की केवल 6% जनसंख्या निवास करती है एवं यह विश्व की सम्पूर्ण आय का 45% उपभोग करती है। दूसरी ओर, एशिया का क्षेत्रफल विश्व का 18% है, किन्तु वहाँ विश्व की जनसंख्या का 67 % पाया जाता है। यह केवल 12% आय का उपभोग करती है। अफ्रीका के देशों की स्थिति और भी चिन्तनीय है अतः स्पष्ट है कि अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। इनके निवासियों को न केवल अपर्याप्त भोजन मिलता है, वरन् पौष्टिकता की दृष्टि से भी यह अच्छा नहीं होता। विश्व की 6% जनसंख्या आज भी अधनंगी, अधभूखी, अस्वस्थ, अशिक्षित और दरिद्र है। बहुत ही थोड़े व्यक्ति साधन संपन्न हैं।
अत्याधिक आबादी के कारण सड़कों पर यातायात का बोझ बढ़ रहा है जिसके कारण सड़कों पर जाम तो लगता ही है, प्रदूषण की मात्रा भी भयावह स्थिति तक पहुँच जाती है। जिससे अनेक प्रकार की बीमारियों को निमंत्रण मिलता है इसका प्रभाव अधिक आबादी वाले शहरों पर अधिक पड़ता है। अच्छे स्वास्थ्य के बिना विकास का कोई महत्व नहीं रह जाता।
खाद्य पदार्थों की उत्पादन से अधिक मांग होने के कारण व्यापारियों को मिलावट जैसे घिनोने अपराधों के लिए प्रेरित करता है,जिससे जनता का स्वास्थ्य दावं पर लग जाता है। और अनेक बार तो मिलावट का शिकार अकाल मृत्यु तक पहुँच जाता है।
प्राकृतिक स्रोत की एक तय-सीमा होती है यदि वह सीमा पार हो जाती है तो स्रोत समाप्त हो जाते हैं और अभाव का माहौल बनना निश्चित है, यही स्थिति आज अपने देश की बेतहाशा बढ़ चुकी आबादी का है जिसके कारण सभी प्राकृतिक स्रोत अपनी क्षमता खो चुके हैं। जिस देश में कभी दूध की नदियां बहती थीं आज वहाँ पानी की नदियों को भी तरस रहा है। वनों की संख्या अपना वजूद खोते जा रहे हैं। आवास की समस्या हल करते करते और उद्योगों के लिए जमीन उपलब्ध कराते-कराते और अन्य विकास के लिए आवश्यक जमीन उपलब्ध कराने के कारण खेती के लिए जमीन ख़त्म होती जा रही है। जबकि बढती आबादी के लिए और अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता है और निरंतर बढती जा रही है। हमारे देश में आबादी का घनत्व विश्व पटल पर सर्वाधिक हो चूका है। अतः बढती आबादी को रोकना किसी भी सरकार के लिए प्राथमिकता के रूप में लिया जाना नितांत आवश्यक है यदि अब भी आबादी इसी प्रकार बढती रही तो देश के लिए विकास करना तो दूर यथा स्थिति में रह पाना भी मुश्किल हो जायेगा।
1952 में आजादी के एकदम बाद भारत ने दुनिया में सबसे पहले परिवार नियोजन योजना शुरू की। उस समय भारत की आबादी थी लगभग 36 करोड़। 1974 में परिवार नियोजन के सम्बन्ध में इंदिरा सरकार द्वारा गंभीरता से प्रयास किये गए। प्रयास तो सही समय पर सही कदम था परन्तु उसको लागू किये जाने का तरीका गलत था, अतः एक अच्छा प्रयास पूरी तरह से असफल हो गया। उसके बाद किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं हो पायी कि वह परिवार नियोजन की योजना भी लागू कर सके। सन् 1974 से आज तक टैक्सपेयर्स के लगभग 2.25 लाख करोड़ रूपये परिवार नियोजन योजनाओं पर खर्च किये जा चुके हैं। यदि इस रकम का आंकलन हम आज के हिसाब से करेंगे तो यह 20 लाख करोड़ से भी अधिक बैठेगी। देश के कर-दाताओं के पैसों का इससे बड़ा दुरूपयोग आज तक नहीं हुआ है। इतनी बड़ी रकम खर्च करके हमने क्या पाया है? शायद 100 करोड़ की जनसंख्या वृद्धि और फिर भी उस पर तर्क करने के लिए अनेकों लोग तैयार हो जाते हैं। विडंबना है कि जिस देश ने दुनिया में सबसे पहले परिवार नियोजन योजना प्रारम्भ की आज वो गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन चुका है।
जिस देश में विश्व के पहले दो विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई आज दुनिया के उच्चतम 250 विश्वविद्यालयों में उस देश का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। बढती आबादी भी देश के विकास के लिए रोड़ा बन चुकी है राजनेताओं के लिए इस दिशा में कदम उठा पाना असंभव हो रहा है अतः यह समस्या देश के लिए घातक हो चुकी है। देश के विकास पर प्रश्नचिन्ह बन चुकी है। देश बढती जनसख्या के दुष्चक्र में फंस गया है। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि का रोकना आधुनिक विश्व में गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, आर्थिक पिछड़ापन, आदि पर विजय पाने का मूलमन्त्र है, राष्ट्र का बढ़ता हुआ विकास एवं उन्नत तकनीक का लाभ तो बढ़ती जनसंख्या ही निगल जाती है।
टैक्सपेयर्स के जिस पैसे को देश की प्रगति में लगना था अभी उस पैसे से हम शौचालय और गैस के कनैक्शन देने में ही लगे हैं। जबकि आज से लगभग 38 वर्ष पहले भारत और चीन की प्रतिव्यक्ति आय और अर्थव्यवस्था लगभग बराबर थी लेकिन चीन ने अपनी बढ़ती आबादी को रोककर अपने पैसों को रिसर्च, टैक्नोलोजी, रक्षा, रोजगार सृजन आदि के क्षेत्रों में लगाया और आज हम चीन की अर्थव्यवस्था के सामने कहीं पर भी नहीं ठहरते हैं। 1961 में हुए पहले बी.पी.एल. सर्वे के अनुसार भारत में 19 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे थे जोकि 2011 के सर्वे में बढ़कर 36 करोड़ हो गये। यूनाइटेड नेशन्स के अनुसार भारत में 50 करोड़ से भी अधिक लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं। अगले 35 वर्षों में युवा जनसंख्या अधिक होने के कारण भारत की आबादी लगभग 200 करोड़ होगी।
जनसंख्या पर नियंत्रण, बीमारी, भुखमरी पर नियंत्रण, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, मूलभूत सुविधाओं सड़क, पानी और सिंचाई के साधनों का विकास, विद्युत् उर्जा के उत्पादन पर जोर, स्कूलों व अस्पतालों का निर्माण, सभी के लिए न्यूनतम भोजन का प्रबंध, जी डी पी वृद्धि दर को तेजी से बढ़ाना, चरित्र निर्माण, राष्ट्रनिर्माण ये कुछ मुद्दे हैं जिनपर अब हमें खुद ही ध्यान देना होगा चूँकि सारे काम एक साथ करना संभव नहीं है किसी के लिए भी, अतः हमें खुद ही अपनी समस्याओं को चिन्हित करने के उपरांत अपनी प्राथमिकताओं का निर्धारण करना पड़ेगा। हर वर्ष विश्व जनसंख्या दिवस 11 जुलाई को मनाया जाता है और अगले एक साल तक जब तक यह दिन दोबारा ना आये भुला दिया जाता है।
डॉ नीरज कृष्ण
पटना, बिहार