विश्‍व जनसंख्‍या दिवस : चुनौती और सोच

विश्‍व जनसंख्‍या दिवस : चुनौती और सोच

साल 1987 से 11 जुलाई को प्रतिवर्ष विश्‍व जनसंख्‍या दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज विश्‍व की आबादी 7 खरब के ऊपर है और यह दिन शायद इसीलिए जरूरी है कि हम बढ़ती जनसंख्‍या से उत्‍पन्‍न चुनौतियों को समझें और अपने भविष्‍य के निर्णय लें।

दृष्‍य एक:

रामू काका अपने खेत को निहार रहें हैं। तीन बीघे का खेत है। तीन लड़के और तीन लड़कियां। तब कभी सोचा नहीं है कि ज्‍यादा बच्‍चे नहीं होने चाहिएं। तब तो ‘जिसने दिया मुंह को, वही देगा खाने को’। खेत बंट गया तीन लड़कों में। दो बीघा तो लड़कियों की शादी में ही बिक गए थे। अब एक बीघे से क्‍या होगा। अपने ही घर में मजदूर हो गए। काश ये समझा होता कि वह हमारी ही जवाबदारी है। ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ उसे समझ तो आ गया, लेकिन बड़ी देर से।

दृश्‍य दो:

गांव में एक ही कुंआ है जिसका पानी मीठा है। जब सन् 1947 में आजादी हुई थी तो गांव की आबादी थी 250 के आस-पास। सत्‍तर साल में यह हो गई दस गुनी। अब ढाई हजार लोगों के लिए नहाने, खाने, पीने का पानी कहां से आए। तीन किलोमीटर दूर नदी है। वहां से पाइप लगे तो पानी आएगा। सरकार कहती है हर घर में 55 लीटर पानी दिया जाएगा। गांव के मुखिया समझा रहे थे। काश! हम सबने सोचा होता कि जनसंख्‍या कम रखनी है। ऐसा ही चलता रहा तो गांव में कोई नई बहू नहीं आएगी। तीन किलोमीटर दूर से पानी कौन लाएगा। हमने अपनी जवाबदारी नहीं निभाई तो कौन इसका भागी बनेगा। सरकार ने तो कहा ही था- संपन्‍न गांव, खुशहाल परिवार, छोटा परिवार, सुखी परिवार।

दृश्‍य तीन:

कोलकाता शहर में दो रेलवे स्‍टेशन हैं- हावड़ा और सियालदह। प्रतिदिन वहां करीब दस लाख लोगों से ज्‍यादा आते-जाते हैं। सुबह नौ बजे तो तिल रखने की जगह नहीं होती है। केवल काले बाल, सिर और तंग जगह। यही हाल मुम्‍बई की लोकल ट्रेन का है। पैर रखने की जगह नहीं, सांस में सांस भरते लोग। कभी मुम्‍बई और कोलकाता लंदन और पेरिस की तर्ज पर बसाए गए थे। साफ चौड़ी सड़कें, सुंदर बिल्‍डिंग। फिर गांवों से पलायन शुरू हुआ। काम की तलाश में। गांवों में खेत बंट गए, नौकरियां नहीं रहीं, जितने ग्रेजुएट उतनी नौकरियां नहीं। सभी शहर ऐसे ही भर गए लोगों से। आबादी को ना नियंत्रित करने के कारण जहां हमने दो के लिए प्रावधान रखा, वहां हमें बीस लोगों को देखना पड़ा। सरकारों ने, नीति बनाने वालों ने, आगाह किया कि देश को अगर आगे ले जाना है तो जनसंख्‍या नियंत्रित करना होगा। हमारी सारी व्‍यवस्‍थाएं हांफ रही हैं, चरमरा रही हैं। आए दिन बस, ट्रेन और दूसरे यातायात के साधन आदमी के बोझ से दबे पड़े हैं। इसके कारण सभी संसाधन भी कम पड़ जाते हैं।

दृश्‍य चार :

सन् 2025 तक शायद भारत अपनी जनसंख्‍या के कारण विश्‍व में पहले स्‍थान पर होगा। इसकी परवाह रतन, अब्‍दुल, फ्रांसिस, सतनाम किसी को भी नहीं है। ये औरतों का काम है। आशा दीदी ने गांव में एक कैम्‍प रखा है। सुधा, हसीन, मेरी, जसविन्‍दर जा रही हैं। उनको भी बोला है। धीमी हँसी हँसकर टाल रहे हैं। पिछले इतने सालों में तो यही होता आया है। अगर‍ दो लड़कियां हो गई, तो बेटे की चाहत में एक बच्‍चा और सही। अपनी पत्नियों से सलाह का प्रश्‍न ही नहीं है। उन्‍हें तो ‘ना’ का अधिकार ही नहीं है। हां, जिसने पढ़ाई कर ली, बी.ए. पास कर लिया, शादी 25 साल में की तो उन्‍होंने जीवन के ये सही निर्णय भी लिए। अब ‘‘बेटी पढ़ाओ और बेटी बचाओ’’ – लड़कियां भी पढ़ें, आगे बढ़ें और जीवन के महत्‍वपूर्ण निर्णय खुद लें। लड़कियां सक्षम और शिक्षित- तब शायद समस्‍या कम हो।

दृश्‍य पांच :

डिग्री कॉलेज का प्रांगण भरा हुआ है। पच्‍चीस सीट के लिए साढ़े पांच हजार बच्‍चों ने आवेदन दिया है। सभी उत्‍साहित, जीने की ललक, आगे बढ़ने की उमंग से भरे हैं। इतने बच्‍चों के लिए आगे क्‍या रास्‍ता है? यहां दाखिला नहीं मिलेगा तो फिर ऑनलाइन, वोकेशनल, मुक्‍त विश्‍वविद्यालय जाएंगे। एक डिग्री तो चाहिए। इतने बच्‍चों से तो हर तरह के संसाधन पर एक दबाव पड़ेगा ही। क्‍लास रूम, शिक्षक, गुणवता- सभी को संभालना शायद एक बड़ी चुनौती है। अगले पैंतीस वर्षों में जनसंख्‍या वृद्धि एक बड़ी चुनौती बनेगी। हम 30% वृद्धि की तरफ जा रहे हैं। चीन की जनसंख्‍या 2% घटेगी ओर अफ्रीका की भी बढ़ेगी। तो उन देशों में जहां संसाधन कम या सीमित हैं, वहां बहुत समस्‍याएं हैं। कुछ लोगों का कहना है कि बच्‍चे और युवा जनसंख्‍या बढ़ने से हमें फायदा होगा। लोग ज्‍यादा संपन्‍न होंगे तो देश में बाजार बढ़ेंगे। लेकिन यही आबादी 30 साल में बूढ़ी हो जाएगी और उनकी उत्‍पादकता कम हो जाएगी। ऐसा अभी जापान में हो रहा है। वहां युवा जनसंख्‍या कम है तो उनकी जी.डी.पी. की बढ़त भी एक से दो प्रतिशत पर सीमित हो गई है।

दृश्‍य छह:

यह एक जंगल है आदिवासी क्षेत्र का। हरा-भरा, घास, वृक्ष से भरपूर। करीब 400 एकड़ में फैला है यह जंगल। साल, शीशम, महुओ के पेड़ों से भरा हुआ। गांव भी हैं जंगल के कोनों में। पहले 13 घर थे, अब 150 हैं। आबादी बढ़ी तो घर अलग हो गए। जिस डाल पर बैठे उसी को काट दिया। जंगल की लकड़ी, घास बेचकर खाते थे पहले। अब पूरा नहीं पड़ता। फिर ठेकेदार के साथ मिली भगत कर अंदर के पेड़ काट दिए। जंगल के जानवर भी जंगल नष्‍ट होने के कारण बाहर निकलने लगे तो एक दंगल ही हो गया आदमी और जानवर के बीच। आबादी बढ़ी, जंगल कटे, सुरक्षा घटी और आदमी के संघर्ष भी बढ़े।
इस तरह से और आबादी बढ़ी तो जंगल में ना एक पेड़ बचेगा ना एक जानवर। ये तो वर्चस्‍व की लड़ाई है-मानव और जानवर- उतनी सी जगह के लिए।

तो यह विश्‍व जनसंख्‍या दिवस 2020 हमारे लिए क्‍या संदेश लाया है। यही कि बढ़ती जनसंख्‍या विस्‍फोटक है और इसको नियंत्रित करना ही होगा। इससे स्त्रियों और बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य पर भी असर पड़ता है। यह बहुत बार स्‍पष्‍ट हो गया है कि बढ़ती जनसंख्‍या गरीबी का भी कारण है। गरीबी बढ़ने से अपराध भी बढ़ते हैं और दूसरी समस्‍याएं आती है। जनसंख्‍या हमारे विकास की गति को भी प्रभावित करती है। भारत में हमारे सरकार ने बहुत कदम उठाएं हैं। लेकिन आवश्‍यकता है इसमें सबको मिलकर काम करने की। ये सभी लोगों का दायित्‍व है और इसे एक लक्ष्‍य बनाना होगा। अगर हमें विश्‍व शक्ति बनना है तो बढ़ती जनसंख्‍या की कमजोरी पर विजय पानी होगी। विश्‍व जनसंख्‍या दिवस का यही संदेश है कि सोच बदलो, दिशा बदलो और इस समस्‍या का समाधान आपके हाथ में ही है।

डॉ अमिता प्रसाद

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