महिला दिवस : पिंजड़े से उड़ान
महिला और पुरुष – यही दो शाश्वत जातियाँ हैं। और एक अनवरत संघर्ष चलता रहता है दोनों के बीच, आर या पार की लड़ाई भी।
शायद, जब मानव जीवन कदराओं में जी रहा था, तभी बंटवारा हो गया था – बाहर के काम, जंगली जानवरों के शिकार, आग जलाना – पुरुष करें और गुफा की देखभाल, बच्चों के लालन-पालन, साज सफाई स्त्रियाँ करेंगी। फिर धर्म आए, रीति-रिवाज बने, सभ्यता चली, राजा-महाराजा आए, बनने लगी दीवारें, औरतों को एक लक्ष्मण रेखा में रहने की हिदायत दी जाने लगी। सीता को लक्ष्मण रेखा से बाहर आने की बड़ी सजा मिली, वनवास मिला और अग्नि परीक्षा भी देनी पड़ी। मध्ययुग आते-आते हर तरफ औरतें बन गई भोग विलास की वस्तु, चाहे वो भारत हो, अरब हो या चीन युद्ध में जीतने वालों ने औरतों को जीत का यंत्र बना लिया। हजारों राजकुमारियाँ शासनतंत्र के पिंजड़े में कैद हो गईं। शिक्षा और व्यवस्था से अलग हुई ये औरतें बड़ी जुझारू निकलीं | हिम्मत और जीवटता से उन्होंने अपना वजूद बनाए रखा- कभी कोई रजिया सुल्तान, कोई महारानी एलिजाबेथ और कहीं राजमाता अहिल्याबाई – अपनी पहचान बनाने में सफल रही। स्त्रियों ने कभी भी संघर्ष नहीं छोड़ा | कारोबार, हस्तकरघा, बाजार, कृषि में अपनी पहचान बनाई रखी और कंधे से कंधे मिलाकर चलती रहीं, लेकिन मूक और समाज के दकियानूसी परम्पराओं से बंधी-बिंधी | नई सुबह देखने की आदत डाल दी उन्होंने। हर मोड़ पर जिंदगी से आँख मिलाना नहीं छोड़ा उसने।
फिर आया एक नया युग, जिसमें विज्ञान शामिल था। जिसमें लड़कियों को शिक्षा देने की बात हुई। घर की बेड़ियों को काटकर उन्मुक्त जीवन के अवसर मिलने लगे। बंद खिड़कियाँ धीरे-धीरे खुलने लगीं। नए जमाने की आहटें युगों से ताले लगे दरवाजे पर थपकियाँ देने लगीं। ये सब एक दिन में नहीं हुआ। युग बीत गई, शताब्दियाँ बदल गई। स्त्रियों ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा।
आधुनिक महिला दिवस तो 1911 में 8 मार्च को शुरु हुआ जब अमेरिका में महिलाओं ने ‘समान वेतन’ के लिए लड़ाई छेड़ी | गूंगे को मानो जुबान मिल गई हो। लेकिन उनका सफर खत्म नहीं हुआ था। समान वेतन, वोट देने का अधिकार, हर कदम पर आवाज उठानी पड़ रही थी। अमेरिका से उठती हुई ये लहर ऑस्ट्रेलिया और यूरोप तक पहुंची। भारत में स्वतंत्रता संग्राम में ही औरतों ने दहलीज लांघ ली थी, लेकिन बेड़ियाँ बंधी रहीं। यूनाइटेड नेशन्स ने 1975 में मार्च 8 को “अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस” घोषित कर दिया। भारत में हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को मनाते हैं और राष्ट्रीय महिला दिवस 11 मार्च को सरोजनी नायडू के जन्म दिवस पर | अमेरिका 1987 से मार्च महीने को ‘महिला महीना’ के रूप में मनाता रहा है।
क्यों मनाते हैं हम यह दिवस, जब बेड़ियाँ है, दुराचार है, बोलने की आजादी नहीं ? जब सिनेमा, नाटक, कविताओं में उनको गलत तरीके से पेश किया जाता है ? अभी भी उसके भावनाओं की अभिव्यक्ति सीमित है। मुझे लगता है जरूरी है ये महिला दिवस | कम से कम एक दिन तो हम एक साथ हो सकते हैं। अपनी बात रखने का एक मंच बना सकते हैं। महिलाओं को पुरस्कार प्रदान कर सकते हैं, उन्हें प्रोत्साहन दे सकते हैं। और यही एक समय है जब पिंजड़े से निकलकर खुली हवा में उड़ान भर सकते हैं या उसके स्वप्न देख सकती है। आज की हर बच्ची, हर लड़की, हर महिला अपनी पहचान बनाने को उत्सुक है। खुद की तलाश में निकली हुई जुझारू महिलाओं की उड़ान स्वतंत्र है, असीमित है। वो मानव जाति की अदम्य रचना, हर लड़ाई को ललकार में बदल सकती है – चाहे मौन रहकर, चाहे शोर कर कर।
डॉ अमिता प्रसाद
दिल्ली