सा, रे गा, मा, प…….
“गृहस्वामिनी” की संपादिका का आग्रह था कि “महिला दिवस” और उनकी पत्रिका के “महिला विशेषांक” के लिए हम उनको नामित करें जो कि हमें प्रेरित करती हैं, जो कि हरेक परिस्थितियों से जुझारू होकर जीना जानती है। आसपास देखा तो लगा कि हर महिला ही इस सम्मान की अधिकारी है। सबके संघर्ष अलग हैं और सबकी पहचान अलग है। मैंने सोचा कि क्या विषय परिस्थितियों से लड़कर ही कोई ‘विजयी भव’ का हकदार हो सकता है या फिर हर दिन की चुनौती का सामना करते हुए भी विशिष्ट हो सकता है?
1985 बैच में 16 महिला अधिकारियों ने मसूरी एकादमी में कदम रखे थे जो कि बैच के 160 चयनित लोगों का 10 प्रतिशत था। अपनी कहानियाँ, अपने परिवेश, अपने संघर्ष के साथ हम वहाँ आए थे। लोगों की अनेक अपेक्षाएं थीं हमसे | हम पुरुष और स्त्री के किरदार एक साथ निभा रहे थे। अपने आप को लोगों के दोहरे मानदंड से भी देख रहे थे। अपनी पगडंडियाँ और रास्ते भी हम खुद बना रहे थे। अगर लिख सकूं तो कभी “सोलह पुराण” जरुर लिखूंगी। साड़ी के साथ पैंट पहनी है हमने, गोलियाँ भी झेली हैं, पुरुष प्रधान समाज के साथ मीठी-खट्टी लड़ाई की है और अपने लिए एक जगह बनाई है।
अपने इस उहापोह की स्थिति से उबरते हुए अपने दो आई.ए.एस. महिला अधिकारियों को मैंने चुना है जो कि मेरी बैचमेट हैं और करीब 36 सालों से साथ हैं हम। उम्र के हर पड़ाव को हमने साथ ही पार किया है।
“मेरा यह मानना है”
शालिनी प्रसाद, स्वयं एक आई.ए.एस. अधिकारी की पुत्री हैं। जन्म तो बिहार के आरा में हुआ लेकिन स्कूली पढ़ाई हुई दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में। और बाद में जे.एन.यू. से राजनीति विज्ञान किया। एक प्रतिष्ठित परिवार, जहाँ, सभी बच्चे किसी न किसी विशेष प्रतिभा के धनी थे, वहाँ शालिनी को अपनी पहचान बनानी शायद मुश्किल हुई होगी। घर के ढेर सारे चचेरे-मौसेरे भाई-बहन उससे बड़े थे। शालिनी की हर बातें परिपक्व थीं – उनके साथ पलने बढ़ने के कारण। बहुत कम उम्र में उसने आई.ए. एस. की परीक्षा पास की थी। एकादमी में शालिनी के सुंदर व्यक्तित्व के सभी कायल थे और कितने साथी अधिकारी लड़के उसके आस-पास मंडराते थे। लेकिन मजाल हो कि उसने किसी को भी अपने दिल की भनक लगने दी हो। शालिनी की बड़ी खासियत है अपनी बात को साफगोई से और बिना डरे कहना। दिल्ली और लखनऊ में बड़े-बड़े पदों को संम्हाले मे हमेशा खरी उतरी है सबकी कसौटी पर | शालिनी निडर है और मुखर भी। हाँ, जहाँ उसे लगता है कि उसकी बात चिकने घड़े पर जाएगी, वहाँ वो चुप रहती है। इतने सारे लोगों ने विवाह का प्रस्ताव रखा, लेकिन उसने कभी शादी नहीं की। वो अकेलेपन का शिकार भी नहीं है। अपने मूल्यों पर जीने के कारण ही शालिनी प्रसाद को इस पुरस्कार लिए मैं नामित करती हूँ। दूसरों की मदद करने के लिए तत्पर, महिलाओं के लिए, पंचायतों के हक के लिए लड़ने वाली और किसी से न दबने वाली मुखर शालिनी हर स्थिति में खुश रहती है। कहीं भी कुछ ढिढोरा नहीं पीटने वाली शालिनी में बस एक दुर्गुण है – वो थोड़ी आलसी है। बहुत सारे काम वो करना चाहती हैं – लिखना, बच्चों के लिए ई-प्लेटफॉर्म तैयार करना, मदद के लिए पोर्टल या ट्रस्ट बनाना- हम चर्चाएं भी बहुत करते हैं लेकिन समय टलता रहता है। शालिनी के साथ कोई बोर नहीं होता – उसकी कहानियाँ, विश्लेषण चलते रहते हैं जोर के ठहाकों के साथ | मुखर, मधुर, प्रखर “ शालिनी – तुम्हें चयन किया है क्योंकि तुम अपनी ऊँची उड़ान में भी जमीन से जुड़ी हो।
“चल छोड़ परे”
वीणा खुराना जब 1985 में आई.ए.एस. के लिए चुनी गईं तो उसके नाम के आगे कोई पदनाम नहीं था- बस “वीणा’| वीणा को हम ‘मदद’” बुलाते हैं। कपड़े आयरन करने से लेकर पासपोर्ट बनवाने तक – वो लोगों की ‘मदद’ के लिए हमेशा तत्पर रहती है। ये शायद इसीलिए कि वो अपने चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी है। पिता का अगरबत्ती का छोटा कारोबार था – पाकिस्तान से विस्थापित होकर पिता का परिवार दिल्ली आया था। वीणा ने बचपन में हर तरह का जीवन देखा होगा – कम में जीने की, हर संघर्ष में आगे बढ़ने की। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.कॉम. किया और वहीं पढ़ाया भी। फिर चुन ली गई इस कठिन यू पी.एस.सी. परीक्षा में। वीणा अपनी उपलब्धियों को कभी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं बोलती। कुछ भी प्लास्टिक नहीं है उसमें। आई.पी.एस. अधिकारी ईश कुमार से शादी करने के बाद में “वीणा ईश’ हो गई लेकिन सरलता, सादगी और हर स्थिति में कमर कसने वाली वीणा बदली नहीं। वीणा में एक खासियत और है अपनी और दूसरों की समस्याओं को बारीकी से विश्लेषण करना। कभी-कभी हम उसे बोलते हैं-परोपकार करना बंद करो और थोड़ा अपने लिए भी जीओ। वीणा के बुरे वक्त में उसको एक सहारा है, अपने गुरु जी का। हाथरस के “गुरु दरबार” में माथा टेककर उसने हर संघर्षों में शक्ति पाई है। ‘कॉमनवेल्थ गेम’ के समय वीणा ने जी जान लगाकर काम किया और समयबद्धता में रही वो। बाद की परिस्थितयों में जब यह प्रोजेक्ट जाँच के घेरे में आया तो वो बहुत परेशान हुई। अपनी ईमानदारी के बलबूते पर वहाँ से कीचड़ में कमल की तरह निकल आयी। दो बच्चों की माँ और एक प्यारे पोते की दादी वीणा आज आंघ्र प्रदेश की विजिलेंस कमिश्नर है। वीणा ने हमेशा रिश्तों को अहमियत दी है। उसका ‘चल छोड़ परे” हर मौके पर उसका और हमारा हौसला बढ़ाता है। मुझे उससे बस एक शिकायत है – वो अपने को बहुत दबाकर रखती है। अब इस उम्र में उसका बदलना तो मुश्किल है। वीणा तुम्हें चयन किया है क्योंकि तुम सहज हो।
ये दो अधिकारी – मुखर, जीवट, कर्मठ और ईमानदार महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं। “हम भी आपके जैसे ही हैं – बस चाहिए एक लगन जो आपको अलग कर सकें – इस भीड़ से |” – यही संदेश है सभी महिलाओं को मेरा।
डॉ. अमिता प्रसाद
दिल्ली