कितनी और कैसी:: आजादी ?
आधी आबादी की आजादी कैसी और कितनी? इस पर हमेशा बात होती रहती है। कानूनी और संवैधानिक फ्रेम में सब कुछ बहुत आदर्श लगता है। समानता, स्वतंत्रता, और न्याय पाने के अधिकार सभी के लिए हैं। न्यायपालिका से संरक्षित भी हैं।लेकिन क्या स्त्री क्या पुरुष, दोनों के लिए ये किताबी नहीं रह जाते ? व्यवहार में कोई भी अधिकार निरपेक्ष नहीं होता है।सब कुछ आपसी कारकों पर निर्भर करते हैं।सामाजिक स्वीकृति और न्याययिक उदासीनता के कारण कोई अधिकार सही रूप में नहीं मिल नहीं पाते।
जाति,धर्म, क्षेत्रीय, सांस्कृतिक विविधता और परम्पराएं एक और आजादी के हक़ को सीमित करतीं हैं दूसरी ओर एक ऐसी रेखा खींच देतीं हैं जो महिलाओं को स्वयं अपने अधिकार के प्रति जागरूक नहीं होने देतीं।जहाँ देखें महिलायें को दोयम दर्ज़े का नागरिक माना जाता है,फिर अगर वह,गरीब,वांछित और पिछड़े वर्ग की हो तो सबका निशाना भी।
अशिक्षित महिला वर्ग की दुनिया ही अलग है।आजादी का अर्थ स्वयं के निर्णय ले सकने से है, मुक्त।स्वच्छंद जीवन से नहीं।आजादी के अर्थ भी अनेक हैं और अनर्थ भी कम नहीं।मुक्त समाज के अलग नियम है पर परम्परागत समाज के अलग।समाज में बहुत अधिक स्तरीकरण होता है।हर महिला अपने समाज, वर्ग, संस्कृति परम्परा से जुड़ी होती है। यहाँ तक कि हर परिवार में भी महिलाऐं भिन्न स्थितियों में रहती है,अतः आजादी के उसके अपने मायने होते हैं।अपने स्तर के हिसाब से ही वह जीवन जी पाती है।
देश की चारों दिशाओं के भूभाग का जीवन बहुत अलग है।मातृसत्तामक समाज में तुलनात्मक आजादी जरूर है। पर वे एक ही क्षेत्र में सीमित हैं।अधिकांशतः पुरुषप्रधान समाज में महिलाओं की हालत अच्छी नहीं है। आज भी वे शासित है शोषित भी। हर पल उन्हें पुरुष के बनाये हुए रिश्तों से बंध जीना पड़ता है।उन्हीं के बनाये हुए रिश्तों से बंध जीना पड़ता है।उन्हीं के बनाये आचार -विचार में सोचना तक पड़ता है। उनका स्वतंत्र सोच विद्रोह मान लिया जाता है ।आजीवन वे उसी विधि विधान का पालन करती हैं जो उनके लिए पुरुष समाज ने तय किया है। सुरक्षा और सम्मान के नाम पर निर्धारित रीतियाँ कब कुरीतियाँ बन गयीं खुद उन्हें नहीं मालूम।इन्हें कभी वे स्वेच्छा, कभी अनुशासन के नाम,और कभी लादे गये बोझ की तरह ढोती हैं। यहाँ तक कि पढ़ी लिखी महिला वर्ग भी इससे अछूता नहीं। आर्थिक निर्भरता इसका मूल कारण है।
अशिक्षा,जागरूकता का अभाव, कूप मंडूकता, साहस की कमी, पर्याप्त अवसरों की कमी, सामाजिक अवरोध और परिवार का असहयोग महिलाओं को सर नहीं उठाने देते। वे अभिशप्त हैं घुटने के लिए क्योंकि बाहर भी उनके लिए सुरक्षा और सम्मान प्राप्त नहीं।
उनकी आर्थिक निर्भरता,भावुकता और जिम्मेदारी और आत्मसम्मान के गुण उन्हें विचलित नहीं होने देते,पर यही सब उसके व्यक्तित्व और कृतित्व को दबा भी देते हैं और वह शासित की तरह जीने लगती है।कई बार नसीब के नाम पर और कई बार भावी जीवन की असुरक्षा के नाम पर।
महिलाओं का एक वर्ग हाशिये पर भी धकेल दिया गया है। मज़बूरी,अभाव, लाचारी, गरीबी आदि के कारण वह जिस्म के सौदे, धोखे और अन्य यौनिक अपराध से बच नहीं पातीं।महिलाओ के प्रति अपराध बढते जा रहे है। बच्ची हो या वृद्ध महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। अपराधों पर नियंत्रण भी नही हो रहा है। बल्कि और बढते जा रहे हैं। इनका एक हिस्सा स्वयं की पहल का और बाकी धकेला गया होता है। कारण वही हैं आर्थिक परतन्त्रता और लाचारी- असुरक्षा के ।
इन 75 सालों में पहले की अपेक्षा तस्वीर बदली जरूर है।आज वे ज़मीन से आसमान तक परचम फहरा रही हैं। दोहरे -तिहरे दायित्व निभा रही हैं। लेकिन मूल मुद्दे आज भी वही हैं समुचित शिक्षा और जागरूकता के अभाव के। जिसके कारण महिलाओं के हक़ और आजादी के लिए कुछ ठोस कदम अपेक्षित हैं ।इसके लिए सरकार,समाज और व्यक्ति स्वयं को आगे बढ़ कर आना होगा। समाज में महिलाओं के प्रति उत्तरदायी भावना हो तभी सुरक्षा और सम्मान की सम्भावना बढ़ सकती है । आधी आबादी की आजादी का हक़ का सपना सपना न नहीं बल्कि साकार यथार्थ बने।आजादी के अवसर तब अमृत तुल्य साबित होंगे जब महिलाओं को समान, और समुचित अधिकार उन्हें मिलेंगे।
महिमा शुक्ला,
इंदौर,भारत