पुनरावृति।
चारों ओर लुढ़कते पासे हैं,
दाँव पर लगी द्रोपदियाँ हैं,
लहराते खुले केश हैं,
दर्प भरा अट्टहास है,
विवशता भरा आर्तनाद है,
हरे कृष्ण की पुकार है…
चारों ओर पत्थर की शिलाएँ हैं,
मायावी छल है,
लंपटता है,
ना जाने कितनी ही अहिल्याओं की
पाषाण देह है,
नैनों में आत्म ग्लानि का नीर भरे,
उद्धार के लिए,
सदियों से राम का इंतज़ार है…
चारों ओर हिनहिनाते अश्व हैं ,
कभी इस, तो कभी उस खूँटे से बँधी
गाय समान माधविय़ाँ हैं,
पुरुषसत्ता का बोलबाला है,
कराहती मानवता है,
अबोली पीड़ा है,
युगों – युगों तक छाई गहन उदासी है….
चारों ओर लक्ष्मण रेखाएँ हैं,
कपट से छली गईं,
देहरी को लाँघती,
जलती चिताओं में ,
अग्नि परीक्षा देती,
कितनी ही सीताएँ हैं…
चारों ओर मी टू का शोर है,
छिन्न – भिन्न होती,
टूटती विश्वास की डोर है,
इस कोलाहल में
किसने सुनी यह चीत्कार?
किसने सुनी उसकी न्याय की पुकार?
क्या कभी पा सकेगी ,
जिस इंसाफ़ की वह लगा रही गुहार?
या फ़िर कटघरे में खड़ा कर,
उँगलियाँ उठाई जाएँगी ,
उसी पर
हमेशा की तरह, हर बार?
– डॉ. विनीता अशित जैन.