रूपांतर

रूपांतर

सोचती है सारा काम निपटा कर ही जाए पर हो नहीं पाता उससे। बॉस के दिए फ़ाइलों की संख्या कम है पर बहुत कुछ निपटाना है उनमें। काम मिलता उसे ज़्यादा है, जानती है वह, क्योंकि ज़िम्मेदार है, कर्त्तव्यनिष्ठ है। हरिनारायण बॉस ज़रूर हैं पर उसका कष्ट समझते हैं समझाते भी हैं। एकल अभिभावक है वह अपने दो बच्चों की। छः साल पहले हुई रेल दुर्घटना में उसके प्रियतम पति सुरेश की मृत्यु हो गई थी। तैयार नहीं थी बिल्कुल इस जबरदस्त झटके के लिये वह, पर उन्ही की कंपनी में मिली नौकरी से आत्मनिर्भर होकर अपने नन्हे परिवार की आज रक्षा कर पा रही है । पति से कम क्वालिफ़ाइड सही पर बीकॉम की डिग्री ने उसकी ज़िंदगी बचा ली है।
आज राकेश जी ने बुला भेजा। बुजुर्ग हैं, बोले,“कांता अकाउंट आप ज़रा बैलेंस कर दिजिए, आपके लिए चुटकी भर का काम है।” गर्व तो हुआ था सुनकर पर मन की उत्फ़ुल्लता हंसी या थैंकयू में फूट न पाई। अक्सर ऐसे काम उस पर थोप दिये जाते हैं। स्त्री क्षमतावान हो और ‘ना’ बोलने से हिचकती हो तो समझो आफ़त ही है! पर चलो इस क्षमता के दम पर ही ज़िंदगी चल रही है और अस्मिता भी बची हुई है। कृतज्ञता की छौंक ने ना करना और मुश्किल कर दिया है। हाँ ये जरूर है कि अक्सर भूल जाती है मुस्कुराना, भूल जाती है कि वह एक स्त्री है… एक कोमल हृदया, सुंदर, रोमांटिक स्त्री जिसे दोस्त कभी ‘ओ अप्सरा’ कहकर छेड़ा करते थे। घर-बाहर के कामों में डूबी उसकी सारी शख़्सियत जैसे उसके चश्मे में समा गई है।

ऑफिस से निकलते हुए निहारती है खुद को आइने में…अच्छा लगता है तब. मैचिंग कपड़े… मीठी सी मुस्कान बिखेरते। पर अब मुस्कान यांत्रिक हो गई है। एक स्त्री खुलकर हंसे, बातें करे, यह बर्दाश्त होता है किसी को? अन्य स्त्रियाँ कनखियों से देख कर टिप्पणी करेंगीं, पुरुष खुला दरवाज़ा समझ कर तुरंत तशरीफ़ ले आएँगे! समाज से डरेगी या मन से? उत्तर नहीं हैं उसके पास। बस डर है! ज़िंदगी चल रही है बिना जान के। रसोई, ऑफिस, घर, बच्चें। सुबह-शाम, गाड़ी के ये सतत घूमनेवाले चार पहिए! न सुकून भरी कोई दोस्ती, न हँसने के पल, हाँ आस-पड़ोस की दया टपकातीं नज़रें चुभती अवश्य रहती हैं। आप बीती के दुखों और व्यस्तता के बीच हर्षोल्लास के फूल कैसे खिले!
बच्चे भी जानते हैं माँ घर आकर उनके और घर के काम निपटा कर ही कुछ और करेंगी।
इसीलिए बच्चों ने आज तय किया है कि माँ को हँसाया जाय! तेरह और दस के हैं दोनों, राजीव और रंजनी। गुल्लक तोड़ कर छुट्टियों में नानी से मिले पैसों से केक ख़रीदी। मेज़ पर नयी चादर बिछाई, केक उस पर सज गई, गुलदस्ता नीरजा आंटी के आँगन के फूलों से सजा, मोमबत्ती बीचों बीच मेज़ की निगरानी करती खड़ी हो गई … साथ ही एक पुस्तक, रिबन -पेपर में बँधी राजरानी की तरह । मम्मी की क्लॉसमेट मंजू आंटी ने हाल-चल पूछने के लिये फ़ोन किया। बच्चों ने कहा आप शाम को आइए पकोड़े लेकर!


कांता के घर में कदम रखते ही बच्चों ने नीम-अंधेरे कमरे में बत्ती जलाकर रौशनी कर दी खिलखिलाहट के साथ। दूधिया रौशनी में सजा-संवरा टेबल। राजीव रंजनी टेबल के दोनों ओर मुस्कुराते खड़े…गुलदस्ता थमाकर बोले- हैप्पी बर्थडे मम्मी।‘ ओह! आज जन्मदिन है उसका। सालों बीते जन्मदिन मनाए! हैप्पी बर्थडे गीत के साथ हंसते-हंसते मोमबत्ती जलाई गई, केक कटा और तभी मंजू पकोड़े और घर की मल्लियों के माला लेकर पहुंची। घर भर गया फूलों के सुगंध से। यही काफ़ी था मन की गाँठें खोलने के लिये। माहौल प्यार की इस लेन- देन की मधुर गूंज से भर गया। मंजू कांता के बालों में मल्ली को सजाती बोली, “गिफ़्ट खोलो, गिफ़्ट खोलो। देखें क्या है!” बच्चों ने थमाया। कांता सोच रही थी इन्हें पैसे कहाँ से मिले! नानी की ख़ुराफ़ात का उसे क्या पता!
अरे! ये क्या, ये तो सुरेश की किताब है। ऊपर मज़मून कह रहा है ‘सिर्फ़ तुम्हारे लिए’ सुरेश की लिखावट में। ये उसकी अंतिम गिफ़्ट थी कांता के लिए। भूल गई थी वह बिल्कुल। भीतर फूलों से सजे पन्नों में रेडियो सिलोन के उसके मनपसंद गीत सुरेश के अक्षरों में। हर गीत रोमांस और उल्लास भरा। उसके व्यक्तित्व और सुरेश से उसके रिश्ते की मिठास लिए। दोस्तों की कभी महफ़िल जमती तो दोनो के गानों से ही समा बंधता। चेहरे पर यादों ने मुस्कान ला दी। वक्त में कहीं थमे-रुके पलों की ख़ुशियाँ उमड़ आईं। क्यों बांध बनाकर उसने रोक दिया था सब, क्या होना चाहिये और क्या नहीं होना चाहिये के चक्कर में ! सबसे अहम् बात तो ये है कि खुश होना चाहिए! हंसकर बोली “अब गाना बनता है!”
सब उसे घेरकर बैठ गये। भूल गई थी बच्चें उसका गाना कितना पसंद करते हैं। दोस्त कितनी वाह-वाही करते थे। पलटते पन्नों में नज़र रुक गई, उसका प्रिय गीत जिसके बोल याद न होने के कारण आधा ही गा पाती थी—तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी, हैरान हूँ मैं…..
दौड़ते सुरों के ठहराव ने मन के हर कोने की उदासी धो -पोंछ दी।
खुश होना इतना मुश्किल नहीं। खुद को पाना भी नहीं। इसी खुद से तो वह प्यार करती है… ख़ुशमिज़ाज, रोमांटिक, ज़िम्मेदार, स्नेह भरी… और बहुत कुछ!
सभी रूप अंतर में ही हैं, बुला लो तो लौट आते हैं।

राधा जनार्धन
साहित्यकार
त्रिवेंद्रम, केरल

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