लेखा जोखा 2020

लेखा जोखा 2020

साल 2020 अब बस कुछ ही घंटों का मेहमान है। ना मौसम बदलेगा, ना ही हवाएँ बदलेंगी – बस कैलेंडर की तारीखें बदल जाएगी। सरसों के पीले फूल, गेंदे के फूल, गुलदाबदी, डहलियाँ की सुंदर क्यारियाँ भी ज्यों कि त्यों रहेंगी। लेकिन साल बदल जाएगा। एक और साल चित्रगुप्त के मोटी बहीखाते में समा जाएगा, जहाँ पाप पुण्य का लेखा जोख होता है।

वैसे तो हर नया साल कुछ लेकर आता है – खुशियाँ, रिश्ते, आँसू, मुस्कान, उत्तार चढ़ाव। ये जो प्रचलन है न कि फिर से नई शुरूआत करते हैं — कितना ही सकारात्मक है। ओस की बूँदों से बादल बनकर बरसने जैसा।

थिच नांत हान, वियतनामी दार्शनिक ने रिश्तों को ठीक रखने के लिए एक बीजमंत्र दिया है और वो है अपनी तकलीफें दूसरे से साझा करिए और मदद माँगने में ना हिचकिचाइए |

मुझे लगता है कि 2020 के लेखा जोखा में अगर कुछ बदला है तो वो है रिश्ते। ऑफिस वर्क फ्रॉम होम हो गया, मिलना जुलना कम हो गया। लेकिन बातचीत जारी रही और समस्याओं को हमने दूसरी निगाहों से देखना शुरू किया। लगा जैसे कोई नई शुरूआत ही कर रहे हों। इसी तरह घरों से दूरी बनाने वाली नई पीढ़ी घर लौट आई। उन्हें छोटा शहर अब अच्छा लगने लगा। माँ के हाथ के बने आलू, बैंगन, काढ़ा, हल्दी-दूध सुहाने लगने लगे। पिज्जा, बर्गर और रोज घर से बाहर खाने वाली पीढ़ी ने भी एक नई शुरूआत कर दी। यूट्यूब पर खाना बनाना सीख लिया। अपना लेखा जोखा बदल दिया। बंगलोर से वापस चले गए, कुन्नूर और बम्बई से औरंगाबाद, दिल्‍ली से भटिंडा और कलकत्ता से बोलपुर। बड़े शहरों की चकाचौंध से लौटकर उन्होंने आसपास देखा और उन पुरानी गलियों के मजे लेने लगे। बड़े शहर की कमजोरियाँ छोटे शहरों की मजबूती बन गई । तालाब को समुन्दर समझने वाले भी अपनी औकात में आ गए। बगीचे में पानी देने जैसा ही हो गया रिश्तों को फिर से सँवारना। दादी माँ अब बच्चों के स्कूल के ऑनलाइन क्लास में साथ बैठने लगी। उनके योगा ज्ञान को सराहा जाने लगा। ऐसे सबकुछ अच्छा ही हुआ ऐसा नहीं है। ऑनलाइन क्लास में कितना सीख सकते हैं, यह बहस बनी हुई है।

शुरू में तो कई देशों ने एक दूसरे पर तोहमते लगाई। फिर मिलकर काम करने लगे। आपस में बातचीत करने लगे। फिर देशों ने एक दूसरों का साथ देना शुरू किया लेकिन अभी भी आगे निकलना है। बहुत सारी बंदिशों को पार करना है।

2020 शायद फ्लू के दो साल 1948 से 1920, द्वितीय विश्वयुद्ध के चार सालों 1940 से 1944 की भयावहता में कहीं आगे है और अभी भी 2020 अव्वल नम्बर पर है। इस प्रकार का डर, खौफ, अनिश्चितता शायद पहले कभी नहीं आई। दुनियाँ के पुराने तौर तरीके तहस नहस हो गए लगते है। सामान्य होने के लिए समय लगेगा। वक्‍त कितना भी भयावह हो, उम्मीद उसको जिंदा रखती है। वैक्सीन की उम्मीद ने आने वाले साल और बीते हुए साल का लेखा जोखा सही कर दिया है। बस थोड़ा सब्र जरूरी है। 2020 ने हमें यह सब्र टोकरी भर सौगात में दी है। 2021 के लिए तो बस यही कहूँगी कि यह साल अवसरों का साल बने – मिलने मिलाने का, नई तकनीकियों, नई दोस्तियों का, नए हालातों का — जो सुखमय हो।

डॉ अमिता प्रसाद

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