नई शिक्षा नीति :एक चिरप्रतीक्षित अनिवार्य कदम
भारत ऋषियों – मुनियों, योग,ध्यान और प्राणायाम की धरती रही है। सदियों पहले से यहां पृथ्वी के अध्ययन वाले विषय को ‘भूगोल’ और जिसकी गति हो उसे, ज+गत=’जगत’ कहा गया। अपनी इसी सभ्यता और समृद्धि के कारण, भारत हमेशा से ही विदेशी आक्रमणों का शिकार और दुश्मनों के हाथ हारने के बाद उनका आधिपत्य स्वीकारने को विवश भी होता रहा है।
इन्हीं में से एक और सबसे अंतिम , ब्रिटिश शासकों ने यहां की शिक्षा व्यवस्था को पूर्ण रूप से ध्वस्त कर दिया। उन्होंने यहां पर शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन लाते हुए लॉर्ड मैकाले द्वारा अनुशंसित शिक्षा प्रणाली को इंग्लिश एजुकेशन एक्ट 1835 तहत लाया जो पूर्णरूपेण अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने का पैरोकार था। इस प्रणाली का मुख्य उद्देश्य भारत में एक ऐसे संवर्ग का निर्माण करना था जिसमें अपनी सभ्यता, संस्कृति और इतिहास के लिए गर्व के बजाय शर्मिंदगी का भाव उत्पन्न हो जाए.. और अपने उद्देश्य में वह पूरी तरह सफल भी हुआ। अंग्रेजी के आगे हिंदी और संस्कृत ही नहीं, सभी भारतीय भाषाएं यहां के लोगों को पिछड़ी लगने लगीं। ‘योग’ जो आज के समय का सबसे लोकप्रिय व्यायाम है उसे अंग्रेजों ने ‘पी टी’ से विस्थापित कर दिया। दरअसल अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य भारत में एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था कायम करना था जो कि एक शिक्षण संस्थान के बदले एक, क्लर्क मेकिंग फैक्ट्री, हो। मैं नहीं कहती कि इतिहास , भूगोल, भाषा, विज्ञान, गणित इन सब को नहीं पढ़ना चाहिए परंतु इन सब का व्यावहारिकता में उपयोग होना जरूरी है, जबकि अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई शिक्षा व्यवस्था का मूल आधार हमारी स्मरण शक्ति की परीक्षा है। जो विद्यार्थी जितने अच्छे से अपने पाठ को याद रख सकता है, वह उतना ही अच्छा माना जाता है। इसी स्मरण शक्ति की जांच के लिए परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं, बस आपको रट कर या नकल कर परीक्षा देने की जरूरत है, उसी के आधार पर आपको अंक प्राप्त होंगे और उन अंकों के आधार पर आपको नौकरी मिलेगी। पर ऐसी शिक्षा का उपयोग व्यवहारिक जिंदगी में ना के बराबर होता है। प्लस टू पढ़कर विभिन्न इंजीनियरिंग एवं मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल जाता है, मेडिकल कॉलेज की स्थिति तो खैर ठीक-ठाक है, परंतु मशरूम की तरह उग आए इंजीनियरिंग कॉलेज से निकले छात्रों में तकनीकी ज्ञान का इतना अभाव होता है कि उन्हें बहुत बार नौकरी तक नहीं मिलती और मिलती भी है तो इतने कम पैसे मिलतें हैं कि उनसे ज्यादा तो प्लंबर, बिजली मिस्त्री, बढ़ई जैसे दूसरे लोग जिन्हें कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली बस उन्होंने अपने परिवार से या किसी मिस्त्री के साथ काम करते करते सीखा होता है, कमा लेते हैं, क्योंकि उनके पास व्यवहारिक ज्ञान होता है। यही नहीं, शोध परक शिक्षा के अभाव में बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों से भी निकलकर विद्यार्थी कुछ ऐसा नहीं कर पाते, जिससे देश और समाज का हित हो।
नई शिक्षा प्रणाली 2020 में इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया है कि हर बच्चे को उसकी दिलचस्पी के अनुकूल ऐसी व्यवहारिक शिक्षा दी जाये, कि पढ़ाई खत्म कर जब वह बाहर की दुनिया में कदम रखे तो उसके पास डिग्री के साथ कोई न कोई हुनर भी हो।
बच्चों को शिक्षित होने का प्रमाण केवल किसी तरह लिखित परीक्षा में पास होना भर नहीं हो। 5+3+3+4 के पैटर्न वाली इस पद्धति में पहले 3 वर्ष तक बच्चों को, यानि 3 से 6 वर्ष तक के बच्चों को आंगनबाड़ी या प्री प्राईमरी तक केवल खेलने के लिए ही स्कूल जाना है वह जैसे चाहें वैसे खेले। सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक हर बच्चा स्कूल पहुंचे.. विकलांग बच्चों के लिए भी समुचित व्यवस्था की जायेगी।
उसके बाद पहली और दूसरी कक्षा में थोड़ी बहुत पढाई होगी पर किसी तरह की परीक्षा नहीं।
अगला 3 में तीसरी, चौथी और पांचवी कक्षा
जारी रहेगी।
छठी क्लास से वोकेशनल कोर्स शुरू किए जाएंगे. इसके लिए इसके इच्छुक छात्रों को छठी क्लास के बाद से ही इंटर्नशिप करवाई जाएगी. इसके अलावा म्यूज़िक, बागवानी नियमित रूप से खेलकूद, योग, नृत्य, मार्शल आर्ट और आर्ट्स को बढ़ावा दिया जाएगा. इन्हें पाठयक्रम में लागू किया जाएगा.
परीक्षा आधरित शिक्षा व्यवस्था को प्रश्रय न देते हुए बच्चों को हर वर्ष परीक्षा नहीं देनी 3+3 यानि कक्षा 3 से 8 तक में क्रमशः कक्षा 3, 5 एवं 8 में परीक्षाएं होंगी।
4 वर्ष का उच्च और माध्यमिक 10 और 12 की बोर्ड परीक्षाओं में सेमेस्टर एवं बहुविकल्पीय प्रश्न आदि लाए जायेंगे। यह व्यवस्था क्रमशः 3-8, 8-11, 11-14, और 14-18 उम्र के बच्चों के लिए है।
पूर्व इसरो प्रमुख कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति ने इस तरह के मसौदे को तैयार किया था, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने दी.
जैसा कि ऊपर हमने देखा है, नई शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं।
अनुसंधान बताते हैं कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बाल्यावस्था में किसी भी विषय वस्तु को समझने और आत्मसात करने में के लिए मातृभाषा ही श्रेष्ठ है।
इसीलिए प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम पांचवी क्लास तक, यदि संभव हो तो आठवीं क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय भाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा में रखने पर जोर दिया गया है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी. हालांकि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा
पढ़ने-लिखने और जोड़-घटाव (संख्यात्मक ज्ञान) की बुनियादी योग्यता पर ज़ोर दिया जाएगा। उच्च शिक्षा में संस्कृत या अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकल्प होगा।
पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया है। उदाहरण के लिए पहले की व्यवस्था में अगर चार साल इंजीनियरिंग पढ़ने या छह सेमेस्टर पढ़ने के बाद किसी कारणवश आगे नहीं पढ़ पाते हैं तो आपके पास कोई उपाय नहीं होता, लेकिन मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी. इससे उन छात्रों को बहुत फ़ायदा होगा जिनकी पढ़ाई बीच में किसी वजह से छूट जाती है.
नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी भी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाख़िला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक ख़ास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं.
उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं. जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा. जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे. लेकिन जो रिसर्च में जाना चाहते हैं वो एक साल के एमए (MA) के साथ चार साल के डिग्री प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी (PhD) कर सकते हैं. उन्हें एमफ़िल (M.Phil) की ज़रूरत नहीं होगी।
शोध करने के लिए और पूरी उच्च शिक्षा में एक मज़बूत अनुसंधान संस्कृति तथा अनुसंधान क्षमता को बढ़ावा देने के लिए एक शीर्ष निकाय के रूप में नेशनल रिसर्च फ़ाउंडेशन (एनआरएफ़) की स्थापना की जाएगी
उच्च शिक्षा संस्थानों को फ़ीस चार्ज करने के मामले में और पारदर्शिता लानी होगी.
मानव संसाधन मंत्रालय जो पहले शिक्षा से संबंधित मामलों को देखता था उसका नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय रख दिया गया।
राज्य सरकार के सहयोग से जी डी पी का 6%.शिक्षा के क्षेत्र पर खर्च किए जाएंगे। विश्व के 100 सबसे बड़े शिक्षण संस्थानों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने की अनुमति होगी जिससे कि यहां के विद्यार्थियों को जाकर पढ़ने के लिए विदेश जाने की जरूरत ना पड़े।
आईआईटी और आईआईएम के समकक्ष ‘बहुविषयक शिक्षा एवं अनुसंधान विश्वविद्यालय’ की स्थापना की जाएगी जो विश्व स्तर के होंगे।
शिक्षण व्यवस्था में वांछित सुधार किये जाएंगे। शिक्षकों की नियुक्ति और पदोन्नति पर पर्याप्त ध्यान दिया जाएगा, ताकि योग्य शिक्षक नियुक्त हो सके।
गांधी जी का कहना था कि शिक्षा का अर्थ, बालक और मनुष्य के शरीर मन तथा आत्मा का सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास है।स्वामी विवेकानंद के अनुसार मनुष्य की अंर्तनिहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।
नई शिक्षा नीति में भारत के पुरानी परंपरा को पुनर्जीवित करने के प्रयास के साथ – साथ शिक्षा द्वारा ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि कर मनुष्य को एक योग्य नागरिक बनाया जाने की कोशिश है। ऐसा कुशल नागरिक जो कि हुनरमंद भी हो और समाज के लिए उपयोगी भी, ताकि वे बेरोजगार ना रहें।
क्लास छठी से बच्चों को इंटर्नशिप करने की जो व्यवस्था की गई है, उसके अंतर्गत वे बढईगिरी , खेती करना, बिजली का काम इत्यादि ऐसे ऐसे काम सीख सकते हैं जिसके चलते उनके दिल में श्रम के प्रति सम्मान की भावना विकसित होगी ।
वर्तमान स्थिति में कार्यों का बंटवारा बच्चे के पारिवारिक पृष्ठभूमि के अनुसार होता है। मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चों के लिए मिस्त्री का काम सर्वथा वर्जित है। क्योंकि डोनेशन के बल पर ही सही उनका नामांकन उच्च शिक्षण संस्थानों में होने की ज्यादा संभावना होती है जोकि गरीब घर के बच्चों जो कि पढ़ाई में उनसे कहीं बेहतर होते हैं के लिए संभव नहीं हो पाता । ऐसे में दोनों वर्ग के बच्चे असंतुष्ट होते हैं , क्योंकि उन्हें जो काम करने पड़तें हैं न वे उनकी योग्यता के अनुरूप होते हैं और ना ही पसंद के अनुरूप।
“जिसकी जैसी योग्यता उसको उसको वैसा काम” वाला सिद्धांत एक न एक दिन देश में आर्थिक और सामाजिक एकरूपता जरूर लाएगा।
अब यह देखने वाली बात होगी कि केंद्र और राज्य सरकार मिलकर इस शिक्षा नीति पर कितना अमल कर पाते हैं।
मुझे पूरा विश्वास है कि नई शिक्षा नीति एक न एक दिन भारत को आत्मनिर्भर बनाएगी , साक्षरता दर 100% होगी और भारत फिर विश्व में अपना एक सम्मानजनक स्थान बना लेगा।
ऋचा वर्मा
साहित्यकार
पटना,बिहार