मास्टर साहब कहिन

मास्टर साहब कहिन

किस्सा एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय के मास्टर साहब की है।आज मास्टर साहब के घर पर अफरा-तफ़री का माहौल है।श्रीमती जी कपड़े प्रेस कर रही, सुपुत्र जूता पॉलिश कर रहा , स्वयं मास्टर साहब दाढ़ी बनाने में व्यस्त।कुल मिलाकर घर का माहौल बड़ा गर्म था।कोई और दिन होता तो बिना प्रेस कपड़ा, बिना पॉलिस जूता जैसे-तैसे ही मास्टर साहब सो -उठ के विद्यालय निकल पड़ते थे।किंतु आज अर्थात 5 जून, विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में विद्यालय में वृक्षारोपण कार्यक्रम था, जिसमें ससमय, सुसज्जित होकर मास्टर साहब की उपस्थिति अनिवार्य थी।साथ ही मुश्किल यह थी कि कार्यक्रम में शिक्षा विभाग के अधिकारी भी सम्मिलित होने वाले थे।
मास्टर साहब और उनकी किस्मत के बीच छत्तीस का आंकड़ा था। मास्टर साहब को जब भी कोई जरूरी काम होता है, उनकी किस्मत उनसे रूठ कर कहीं दूर मटरगश्ती करने निकल पड़ती है।आज भी यही दुर्योग था।नहाने गये नल में पानी गायब, सुबह की अफरा-तफ़री में श्रीमती जी मोटर चलना ही भूल गयी।आनन फानन में तैयार हो कर किसी तरह घर से निकले तो आज स्कूटर भी नखरे के मूड में।बहुत दिनों से उसकी सर्विसिंग टाली जा रही थी, तो बदला लेने का मानो उसे भी आज का ही शुभदिन प्राप्त हुआ। किक पर किक मार-मार कर पसीने से तर-बतर हो गए, स्नान-ध्यान, पाउडर-परफ्यूम सब कुछ पसीने के साथ बह गए तब कहीं जाकर स्कूटर का मन द्रवित हुआ और वह स्टार्ट हुआ।

मास्टर साहब येन-केन-प्रकारेण किसी तरह विलंब से विद्यालय पहुंचे, परंतु गेट पर ही अधिकारी महोदय की गाड़ी देख इनकी सिट्टी-पिट्टी गुम।प्रधानाध्यापक, शिक्षकगण, अधिकारी सभी इनके ही इंतज़ार में घड़ी पर नज़रे जमाये बैठे थे।इधर मास्टर साहब की हवाइयां उड़ी थी।वृक्षारोपण के लिए वृक्ष लाने की जिम्मेदारी कल बढ़-चढ़ कर स्वयं ही अपने कंधे पर ली थी और सुबह की परेशानियों के मध्य वृक्ष लाना तो भूल ही गये।प्रधानाध्यापक की आँखों से अंगारे बरस रहे थे।अधिकारी महोदय ने इन्हें खूब खरी-खोटी सुनाई।यहाँ तक की नक्सली क्षेत्र में ट्रांसफर तक की धमकी दे डाली।उन सबके समक्ष मास्टर साहब की हालत ऐसी कि मानो काटो तो खून नहीं।बस गिड़गिड़ाने और क्षमा याचना के सिवा कर ही क्या सकते थे।

कार्यक्रम को आगे बढ़ाना जरूरी था।अधिकारी महोदय की भी अपनी सीमाएं थी।उन्हें भी विभाग को कार्यक्रम की तस्वीरें भेजनी थी।आजकल किसी भी कार्यक्रम के फ़ोटो के बगैर उनके ऊपर के अधिकारी भी कहाँ सुनने वाले हैं।सभी मानो अपने से नीचे वालों को सुनाने के लिए ही ऊपर बैठे हो।सभी चिंतित थे, किया तो किया क्या जाए?पौधे थे नहीं, मास्टर साहब लाना भूल गए थे और बगैर पौधा के वृक्षारोपण का कार्यक्रम कैसे सम्पन्न होता?सभी गम्भीर चिंता की मुद्रा में थे।

मेरा ऐसा अनुभव रहा है कि सभी सरकारी महकमों में सबसे निठल्ली प्रजाति चपरासियों की होती है।बगैर पैसे लिए तो वे अपने बेंच से उठकर दूसरे बेंच तक भी ना जाएं।मगर उनमें काबिलियत भी गज़ब की होती है।उनके पास प्रत्येक सरकारी समस्या का रेडीमेड समाधान उपलब्ध होता है।

प्रधानाध्यापक ने एक भेदपूर्ण दृष्टि चपरासी की ओर डाली और वो एक्शन की मुद्रा में आ गया।कुछ ही मिनटों में वृक्षारोपण की सारी व्यवस्था हो गई।उसने शीघ्रता से विद्यालय के गेट पर लगे एक पेड़ की डाल काटी, उसे ही जमीन में गाड़ दिया गया, सभी ने मुस्कुराते हुए तस्वीरें खिंचवायी।तत्पश्चात चाय-नास्ता का दौर चला,और अधिकारी महोदय की भी खुशी खुशी विदाई हो गई।मास्टर साहब के भी जान में जान आयी।वे भी अपना नास्ता का पैकेट उठाये मुस्कुराते हुए स्कूटर की ओर बढ़ चले।स्कूटर भी प्रसन्न मुद्रा में एक ही किक में स्टार्ट हो गया।तभी विद्यालय में एक गाय प्रवेश करती हुई नजर आई और चपरासी उसे भगाने दौड़ा, उसके हांथों में वही वृक्षारोपण कार्यक्रम का अभिन्न अंग था जिसके साथ कुछ देर पहले ही सभी ने प्रसन्न मुद्रा में तस्वीरें खिंचवायी थी।

आज का अखबार देख मास्टर साहब फुले न समा रहे थे,कल के कार्यक्रम और वृक्षारोपण का महत्व दर्शाती उनकी अत्यंत सुंदर तस्वीर जो छपी थी अखबार में।

डॉ. सुधा सहज
शिक्षिका एवं साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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