अहिल्या का अभिशाप
महाभारत का युद्ध अठारह दिनों तक ही चला था। लेकिन अशिक्षा की लड़ाई अभी लंबी चलेगी। पहाड़ों की हरी गोद में बसा हुआ ये आदिवासी गाँव अपने सबसे पास के शहरी कस्बे से 40 किमी दूर था। दो बसें आती हैं यहाँ। चार बजे के बाद कोई पब्लिक साधन नहीं है कहीं आने-जाने का। कुछ लोग ट्रैक्टर से चले जाते हैं या फिर दुपष्टियों से। हाट-बाजार में मिट्टी के बर्तन बेचना, कुछ हरी सब्जियों का धंधा और छोटा-मोटा गाँव का कारोबार, बस इतना ही होता है इस गाँव में।धान के मेढ़ वाले खेत, नारियल के पेड़, छोटा तालाब, अमरूद और आम के बगीचे, गाँव बहुत ही सुंदर था। गाँव में थोड़ी चहल-पहल होती है जब कोई त्यौहार आता है। फिर लोग अपनी देशी पोशाक में आग के चारों तरफ नाचते-गाते नजर आते हैं। क्या बूढ़े, क्या बच्चे, क्या जवान, सभी जैसे तालमय हो उठते हैं। करीब ढाई हजार लोग रहते हैं गाँव में और तकरीबन ढाई सौ बच्चे स्कूल जाते हैं। यहाँ दसवीं क्लास के बाद स्कूल नहीं है। फिर बगल के कस्बे में जाना पड़ता है इंटर कॉलेज के लिए। छह कमरों में दस क्लास चलते हैं। बच्चों को दसवीं कक्षा तक आने का मौका ही नहीं मिलता है। आठवीं क्लास आते-आते ज्यादातर लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। लड़कों को भी विज्ञान और गणित समझ ही नहीं आता। स्कूल में पिछले दस सालों में केवल सात बच्चे हीं दसवीं पहुंच पाए हैं। गाँव के इस स्कूल में छह शिक्षक हैं। और छह पोस्ट रिक्त हैं। ऐसा नहीं कि गाँव के लोगों को बच्चों की पढ़ाई की थोड़ी भी चिंता नहीं है। कितनी बार तो शिक्षा विभाग को, कलेक्टर को अर्जी दे आए हैं। शिक्षक आते हैं और तीन चार महीने रहकर चले जाते हैं। शहरों में पले-बढ़े शिक्षक रहने की, खाने की, संसाधनों की इतनी समस्याएं शायद झेलना नहीं चाहते। तो भाई, इसमें बच्चों का क्या दोष? बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती हैं, टीवी के माध्यम से पढ़ाई की जाए, ऐसा भी बताया जाता है। तो क्या इस गाँव के लोगों का अभिशाप कभी खत्म नहीं होगा?
अहिल्या का अभिशाप भी खत्म हुआ था जब राम के चरण उस पत्थर पर पड़े थे। तब क्या शताब्दियों का इंतजार करना होगा बच्चों को किसी राम का!
प्रमिला जब बस से उतर रही थी, तब उसके मन में बहुत बातें हिलोरे ले रही थी। सोचकर आई थी कि टिकना ही होगा इस गाँव में। घर बसाकर यहीं रहेगी वो। रोज का आना-जाना नहीं करेगी। एक कमरा खोज दिया था स्कूल के सह-शिक्षक ने। छोटा कमरा था – बस एक चारपाई, एक कुर्सी, टेबल और पीछे बरामदे में खाना बनाने की जगह। वहीं पर परदा लगाकर नहाने की व्यवस्था कर दी थी।
सुबह जब साढ़े नौ बजे स्कूल की घंटी बजी तो, आधे से ज्यादा बच्चे नहीं आए थे। जो आए भी थे, उनको देखकर कुछ खास विश्वास नहीं हुआ कि उनको पढ़ने में कोई रूचि है। दोपहर में थोड़े बच्चे और आ गए। लगता था वर्षों से नहाया नहीं है। किसी के पैर में चप्पल नहीं थी, कोई खाना खाने के लिए बर्तन लेकर आया था। खाना खाकर बच्चे फिर से भाग गए। दूसरों ने बताया ये बच्चे अपने माँ-बाप के साथ मिट्टी के बर्तन बनाते हैं। पहले तीन हफ्ते तो यही समझने में लग गया कि बच्चों को स्कूल में आने के लिए कैसे मनाया जाए। पहले तो एक लिस्ट बनी। स्कूल आने वाले बच्चों से ही पूछकर कि उनके कितने साथी नहीं आ रहे हैं। पूरे छत्तीस बच्चे आठवीं के नीचे और तेरह बच्चे आठवीं के ऊपर।
प्रमिला और राजू में एक अच्छी दोस्ती हो गई थी। राजू सातवीं क्लास में पढ़ता था। होशियार, चपल, चतुर और आँखों में चमक। बड़ा होकर पुलिस में जाना चाहता है। छोटे-से गाँव की छोटी-सी आशा। स्कूल से मिले खाने और कपड़ों पर ही उसकी गुजर-बसर होती है। दो भाई और एक बहन । स्कूल तो आते हैं पर शायद केवल खाना खाने के लिए ही लेकिन राजू को जैसे एक ललक है। हमेशा ढेरों सवाल पूछता ही रहता है। देश-दुनिया की, शहरों की।
प्रमिला की आज यह तीसरी फेरी थी गाँव में। घर-घर जाकर बात कर रही थी। किसी ने कहा – क्या करना है पढ़कर? गाँव में गाय ढोंगर ही तो चराना है। लड़कियों को तो भेजने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। खेत-खलिहान, घर-द्वार में काम करें, आगे भी तो यही करना है। प्रमिला को अचानक एक उपाय सूझी। आज प्रमिला ने गाँव के सभी दादा-दादी,नाना-नानी को स्कूल बुलाया है। खुद देखो, स्कूल की समझो और आगे की सीखो। अब हमारी कौन सुनेगा? फिर भी दादा-दादी, नाना-नानी आए। साफ-सुथरे कपड़ों में। थोड़ा शरमाए, सकुचाए – अब हमीं नहीं पढ़े तो कैसे बोलेंगे घर में। लेकिन प्रमिला ने हिम्मत नहीं हारी। बात कर मना ही लिया कि थोड़ा समय निकालकर आएं। कुछ नहीं तो गपशप ही हो जाएगी।
पिछले दो महीनों में तीन दादा, चार दादी, दो नाना और एक नानी -प्रमिला की सांझवाली क्लास में आते हैं। थोड़ा राजू और प्रमोद मदद कर देते हैं उनकी क्लास में। एक घंटा स्कूल में रुककर उन्होंने हिसाब लगाना, हस्ताक्षर करना, छोटे-मोटे साइन बोर्ड पढ़ना सीख लिया था। उनके गर्वित चेहरे को देखकर प्रमिला खुश होती थी। यही बनेंगे हमारे स्कूल के ब्रांड एम्बेसडर। और सही में जुलाई में जब फिर से स्कूल खुले, तो पूरे बारह बच्चे नए थे।
मानों अहिल्या का अभिशाप शायद खत्म हो रहा था।
डॉ. अमिता प्रसाद