मानव को आलोकित करता शिक्षक

मानव को आलोकित करता शिक्षक

पं.श्रीकृष्ण चन्द्र झा का जन्म जमींदार परिवार में हुआ था।१० वर्ष के ही थे तो उनके पिता का देहान्त हो गया ।अल्प आयु के कारण सारे रिश्तेदारों ने सम्पत्ति हड़प लिये थे, जमींदारी भी छीन ली थी सरकार ने।
भाइयों की देखभाल भी उन्हें ही करनी पड़ी थी। भाइयों को पढ़ाने के साथ साथ उस आयु के और छात्रों को भी ट्यूशन पढ़ाते थे।एक तरह से दस वर्ष के आयु से ही शिक्षक की भूमिका निभाने लगे थे। साथ साथ स्वयं भी अध्ययन कर रहे थे। इतने मेधावी थे कि विपरीत परिस्थिति में भी डबल एम.ए. किये थे। कभी कभी भाइयों को पढ़ाने में भूखे भी रह जाना पड़ता था। आकस्मिक पिता के निधन हो जाने से समृद्ध परिवार को खाने के लाले पड़ ही गए थे। इस विपरीत परिस्थिति में भी उन्होंने छह गोल्ड मेडल प्राप्त किया था।
कृष्ण बाबू के परिश्रम तथा भाइयों के लगन से सभी भाई उच्च पदस्थ हो कर जीवन यापन करने लगे। कृष्ण बाबू को नौकरी मिल गयी और वे शिक्षक हो गये थे। उनकी आर्थिक स्थिति फिर भी ठीक नहीं हो पायी थी ,परिवार को संभालने में सारा तनख्वाह समय से पहले ही खर्च हो जाता था । अब भाइयों को पढ़ाने के बाद अपने बच्चों के अध्ययन का समय हो गया। अतः और भी दयनीय दशा हो गई थी।
अब भी कई दिन स्वयं भूखे रहना पड़ता था। बच्चों की परवरिश करने तथा भाइयों की देखभाल करते करते स्वयं को भूल ही गये थे।
सुशील और कर्तव्यपरायणा पत्नी के कारण उनके लिए एकमात्र कार्य पठन-पाठन रह गया था। सदैव छात्र के भविष्य के लिए सोचते रहते थे। छात्र को सर्वस्व मानते थे।अपने बच्चों के भी गुरु थे। वास्तव में ११ साल से ही उनकी संघर्ष की कहानी शुरू हो गयी थी।
मीलों पैदल चल कर छात्रों को पढ़ाने जाना पड़ता था।अपने भाइयों एवं ,बेटों के संग हजारों लोगों को पढ़ा कर काबिल ही नहीं बनाया वरन् सबको नवजीवन दिया। आज उनके कारण अनगिनत परिवार जीवन यापन कर रहा है।
शिक्षक किसी एक व्यक्ति को नहीं पढ़ाता है, बल्कि आगामी पीढ़ियों को भी विद्या दान देता है। एक व्यक्ति अपनी शिक्षा अपनी सन्तान को ही नहीं अपने बन्धु बान्धवों को , उसकी सन्तान अपने बच्चों को, ऐसे कितनी पीढ़ियों को एक शिक्षक के योगदान से से लाभ होता है।
शिक्षक ओस बन अपने विद्यार्थियों को शीतलता प्रदान करते हैं। स्वयं तप कर जो छाया दे, ऐसे शिक्षक थे वे।
जो पिता की तरह परवाह करे, माँ की तरह वात्सल्यपूर्ण स्नेह दे , शिष्यों के ज्ञान की पिपासा को शान्त करे, ऐसे महापुरुष थे कृष्ण बाबू।सबकी परवाह करते करते वे शारीरिक रूप से कमज़ोर हो गये थे।
विडम्बना है समाज की कि वे शिक्षक को उचित वेतन नहीं देते। पीढ़ी दर पीढ़ी को शिक्षा देकर रोटी देने वाले शिक्षक को उचित पारिश्रमिक भी नहीं मिलना अन्याय ही तो है।
शिक्षक जो गुरू की संज्ञा से विभूषित थे।जो अपने ज्ञान से छात्रों के भविष्य को संवारने के संग जीवन को आलोकित करने वाले महान् विभूति कृष्ण चन्द्र झा स्वयं आर्थिक अभाव में जीवन जी रहे थे। साल में एक बार ही वेतन मिलता था,ट्यूशन पढ़ने वाले विद्यार्थी के माता पिता कुछ पैसे देकर अहसान ही जताते थे। आखिर कब तक आर्थिक अभाव में मीलों पैदल चल कर पढ़ाने जाने वाले , परिवार के सदस्यों के भरण पोषण में जीवन को होम करने वाले कृष्ण बाबू अपने शरीर के बोझ को उठा सकते ! इस नश्वर शरीर को छोड़ वे ब्रह्म में लीन हो गये।
ऐसे नि: स्वार्थ , परिश्रमी,दयावान , परोपकारी शिक्षक अपने कर्तव्य निर्वहण में अपने जीवन को एक तरह से यज्ञ में आहुति ही दे डाली।
ऐसे महान शिक्षक देश में लाखों की तादाद में आये और कहाँ गये ,इसका कोई लेखा जोखा नहीं है। अपने अतुलनीय योगदान से देश के नागरिक को शिक्षित ही नहीं करते अपनी समस्त क्षमता को देकर जीवन को संवारते हैं।
मेरी दृष्टि में शिक्षक का दायित्व सीमा पर तैनात सेना के समान है। जैसे सेना प्रहरी बन देश की रक्षा करता है वैसे ही शिक्षक धरा पर अपने ज्ञान चक्षु से मानव को आलोकित करता है।
शिक्षक के विषय में लिखना “आकाश को स्पर्श’करने सदृश है।

आज कृष्ण बाबू सदृश कर्तव्यनिष्ठ नि: स्वार्थ शिक्षक की आवश्यकता है देश को ।

डॉ.रजनी दुर्गेश
साहित्यकार
हरिद्वार,उत्तर प्रदेश

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