एक शिक्षिका ऐसी भी
बात उन दिनों की है जब मेरी नियुक्ति मुम्बई के एक प्रसिद्ध कनिष्ठ महाविद्यालय में हुई थी।परिवार,दोस्त,रिश्तेदार सभी प्रसन्न थे कि सरकारी नौकरी मिल गयी,अब जिंदगी आराम से गुजरेगी।काम हो ना हो,तनख्वाह तो शुरू ही रहेगी।आज भी सरकारी नौकरी के प्रति लोगों की मानसिकता में अधिक अन्तर या बदलाव नहीं आया है।
खैर,महाविद्यालय में पहले दिन विभागीय परिचय के बाद व्याख्यानों और कार्यो का विभाजन किया गया।पहली बार विभागाध्यक्ष संध्या यादव जी से मुलाकात हुई।देखते ही पता चल गया कि ये वहीं हैं, जिन्होंने उम्मीदवारों का साक्षात्कार लिया था।अपनत्व भाव से उन्होंने मेरा विभाग में स्वागत किया और अन्य शिक्षकों से मेरा परिचय भी करवाया।कार्यो का विभाजन समान रूप से किया गया।उन्होंने भी उतना ही कार्यभार लिया, जितना अन्य शिक्षकों को सौंपा गया।मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ।एक विभागाध्यक्ष की कई जिम्मेदारियाँ होती हैं।ऐसे में अगर वे चाहती तो अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ दूसरे शिक्षकों को थमा सकती थीं।पर बजाये इसके उन्होंने समानता का उदाहरण प्रस्तुत किया।मेरे चेहरे पर आने-जाने वाले भावों को जानकर उन्होंने हँसते हुए कहा,”अरे,हम सभी शिक्षक हैं।इसी पद के लिए हमारी नियुक्ति हुई है।रही बात जिम्मेदारियों की तो वह समयानुसार आती रहती हैं।इन जिम्मेदारियों के कारण भला मैं अपने कर्तव्यों में कोताही कैसे कर सकती हूँ?”जीवन का यह मेरा पहला अनुभव था।अब तक यहीं देखा था कि लोगों को उनका अपना कार्य करने के लिए भी कहना पड़ता था।यहाँ तो एक अलग ही व्यक्तित्व से मुलाकात हो रही थी।
आनेवाले समय में उनकी अनेकों विशेषताओं का पता चला।जैसे विभाग के किसी शिक्षक की अनुपस्थिति में यदि उनका लेक्चर न होता तब भी वे क्लास में चली जातीं।पूछने पर मुस्कुराकर कहा करती,”बच्चे ना जाने कितनी दूर से आते हैं पढ़ने के लिए।अगर उनका कोई लेक्चर फ्री चला जाये तो उनका आना व्यर्थ हो जायेगा।माना कि उस क्लास की जिम्मेदारी मेरी नहीं पर पढ़ाने के लिए ही तो नियुक्ति हुई है न।फिर यहाँ स्टाफ रूम में बैठकर बेकार में समय व्यतीत करने से अच्छा तो उन विद्यार्थियों के साथ ज्ञान-प्राप्ति में समय बिताना श्रेष्ठ है।
अक्सर वे कहा करती,”विद्यार्थियों के प्रति ईमानदार रहिये।उनके प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूर्ण कीजिए।जरा सोचकर देखिए, हमारे बच्चे भी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।उन्हें भी कोई-न-कोई शिक्षक अवश्य पढ़ा रहा है।अगर वह शिक्षक अपना कर्तव्य पूर्ण ना करें तो हमें कैसा लगेगा?यहीं स्थिति इन बच्चों के माता-पिता और अभिभावकों की भी होती है।यह हमेशा याद रखिए, ईश्वर हमारे कर्मो को देख रहा है।अपने पेशे से बेईमानी एक शिक्षक के लिए ठीक नहीं।उसपर तो पूरे समाज और राष्ट्र के नवनिर्माण की जिम्मेदारी होती है।
बाद में अन्य शिक्षकों से ही मुझे पता चला कि वे एक प्रसिद्ध साहित्यकार भी हैं।उनकी पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं।पर कभी जिक्र नहीं किया था उन्होंने।पूछने पर उन्होंने उसी चिर-परिचित शैली में कहा,”पुस्तक-लेखन मेरी व्यक्तिगत रुचियों में सम्मिलित है।”स्वान्तः सुखाय” के लिए ही लिखती हूँ।इसलिए पब्लिसिटी करने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी कभी।”
मुझे इस तरह से हैरान होते देख उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा,”जीवन में अन्य कुछ भी करते रहिए पर प्रधान कार्य पढ़ाना है,यह मत भूलिए।प्रसिद्धि मिलने पर भी धरातल से जुड़े रहिए।”इस तरह सन्यस्त भाव से अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्णतः समर्पित एक शिक्षिका को देख यह भाव दृढ़ हो गया कि”देश की शिक्षा इन जैसे शिक्षकों के कंधों पर ही टिकी हुई है।”
शिक्षा-जगत में अक्सर इन जैसे शिक्षकों की उपस्थिति को अनदेखा किया जाता है पर ये ठोस नींव बनकर शिक्षा रूपी इमारत को संभाले रहते हैं।
राजेश रघुवंशी,
सहायक शिक्षक,लघुकथाकार एवं समीक्षक
नेशनल महाविद्यालय,
बांद्रा,मुंबई, महाराष्ट्र।