एकलव्य

एकलव्य

”आंटी जी!..आंटी जी!”
कोई धीमे स्वरों में पुकार रहा था. मै टहलने लिए तैयार हो ही रही थी ..गेट पर झाँक कर देखा तो, रुन्छु था. मैंने गेट खोलकर पूछा -”अरे रंछु!..कहाँ था इतने दिन?दिखाई ही नहीं दिया?”
”आंटी जी बाहर गाँव चला गया था. बाबा के साथ काम करने. ..वहां सड़क बन रहा था ,मै बालू उठा के देता था दूसरे मजदूर लोगन को. ”
मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था. ..उसके पिता पर. पर सुबह सुबह अपना मूड ख़राब नहीं करना चाहती थी, अत; चुप रह गयी. -”आंटी जी कचरा फेंकवाना है?”मैंने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़ गयी. जानती हूँ मेरे लाख मना करने के बावजूद वह मानेगा नहीं, कचरा तत्परता से फेंक ३रुपये की मांग करेगा और फिर दूसरे घर की ओर…पर हर बार जब रुन्छु को मासूम सूरत लिए अपने दरवाजे पर खड़ा देखती हूँ, तो मन में यह प्रश्न जरुर कचोटता है ७-८ वर्ष की उम्र में ही खुद कमा कर खाने ललक और आत्मविश्वास कहाँ से आया?इतने छोटे बच्चों को किसी स्कूल में या माँ बाप की छत्र छाया में कुछ सीखना पढ़ना चाहिए था, पर इतनी सुबह उठ कर लोगों के घरों से कचरा एकत्र कर फेंकना और रोज पंद्रह रुपये कमा लेना ही जिन बच्चों की सबसे बड़ी खुशी थी, ..ऐसा क्यों था?मै चलते चलते सोचती जा रही थी, .केवल रुन्छु ही नहीं बस्ती के अधिकाँश छोटे छोटे बच्चों ने इसे ही अपना प्रारब्ध माँन लिया था. और माँ बाप के काम पर चले जाने के बाद वे झुण्ड बना कर घरों से निकलते हैं, और अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं. ..
शुरू शुरू में मुझे बहुत बुरा लगता था. ..इतने छोटे बच्चों से काम करवाना या कचरा फेंकवाना. पर मैंने देखा था क़ि उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी भर पेट भोजन भी मिलना दुर्लभ था. और बस्ती में इन बच्चों की संख्या बहुत ज्यादा थी. मै उन्हें पढ़ाकर या कुछ और क्रियात्मक कार्य देकर उन्हें भर पेट भोजन करवाना चाहती थी. ….पर वे पैसे ही कमाना चाहते थे किसी अन्य कार्य के लिए हरगिज तैयार नहीं थे.रुन्छु मेरी नौकरानी बसंती का बेटा था. अत; मेरे घर में बेधड़क घुस आता था. उसको खाली समय गंवाते देख कर मैंने बसंती को कई बार डांटा था. पर उस पर कोई असर पड़ता न देख कर चुप ही रहती ,हर साल बसंती एक नए बच्चे को जन्म देने की तैयारी में होती,और बदले में रुन्छु को भेज देती. …घर के हलके कामों के लिए. परिवार नियोजन की जानकारी होते हुए भी वह इसका महत्त्व नहीं समझती थी. उलटे मेरे समझाने पर वह काम छोड़ देने की धमकीभी दे डालती. थी पर मैंने कोशिश जारी रखी, सामने स्थित थाने में लगे परिवार नियोजन औरबाल – श्रम से होने वाले,नुकसान के चित्र दिखाए, रोज ही उनसे होने वाली बर्बादी की काल्पनिक,भयावह कहानियाँ भी सुनाईं तब कहीं जाकर चार बच्चों की माँ बनने के बाद वह अपना बंध्याकरण करवा आई. मै अपनी उपलब्धि पर बहुत खुश थी. पर बच्चों की समस्या ज्यों की त्यों रही. वे हमेशा की तरह कभी सुबह कभी शाम या दोपहर में प्राय; -”आंटी जी, भूख लगी है, कुछ खाने को दो” कहते हुए हाजिर हो जाते हैं. मेरी बेटियां उन्हें कभी मुढी, ब्रेड, या रोटी खाने के लिए लिए ..दिया करती थीं,पर यह उनका स्थायी हल तो नहीं था. एक बार मैंने रुन्छु और उसके दोस्तों को समझाया-”अगर मै तुम्हें पढों तो तुम रोज आओगे ना?”पर उनका जवाब सुन मैं दंग रह गयी,वे पढने की बजाय कमाना चाहते थे. बसंती की लडकियां अपने छोटे भाई बहनों को गोद लेकरइधर उधर ,निरुद्देश्य घूमती रहती थीं.या माँ के साथ काम सीखने निकल जाती थीं. पीछे रह गए सारे बच्चों ने अपने कमाने के अलग रास्ते खोज लिए थे. पर मेरे सवाल में रुन्छु ने थोड़ी दिलचस्पी दिखाई, -”आंटी जी, फोटू वाली किताब भी पढ़ायेगा?”
मैंने खुशी खुशी ‘हाँ’ कह कर उसकी और आशा भरी नज़रों से देखा उसने फिर दूसरा सवाल दाग दिया-”पढके क्या होगाआंटी जी ?”
-”पढ़ लिख के बड़ा आदमी बनोगे,अच्छा काम करोगे तो और ज्यादा कमाओगे, कचरा फेंकने जैसा काम तो नहीं करना पडेगा. ”….वह हूँ,हूँ, कहकर आगे चला गया. कुछ दिनों के बाद रुन्छु मुझे थाने में झाड़ू लगाता दिखाई दिया ठीक उसी होर्डिंग के नीचे जहां लिखा था-” बाल श्रम अपराध है”.और इस अपराध को रोकने वाले अधिकारी महोदय उसे सफाई से काम करने का निर्देश दे रहे थे. ..इस बिडम्बना पर मेरा मन भर आया. ..दोपहर को रुन्छु घर आया तो तो सहमा सा था. मैंने पूछा-‘क्या हुआ?”
-”काम अच्छा नहीं हुआ तो साहब ने थप्पड़ मारा. ,उसके गाल पर पाँचों उँगलियों के निशान दिखाई दे रहे थे.पर उसकी आँखों में एक दृढ़ निश्चय की झलक भी मैंने देखी थी उस क्षण.—”आंटी जी हम पढाई करेगा, और ढेर सारे पैसे कमाकर एक साइकिल खरीद कारखाने जाएगा”
-”हाँ.. हाँ.. जरुर .मैंने अपने बच्चों की एल के जी के चित्र वाली सारी किताबें उसे दे दीं.और केवल रोज देखने के लिए कहा. अब रुन्छु का आना कम हो गया था.जब कई दिन हो गए तो मैंने बसंती से पूछा-” रुन्छु क्या कर रहा है आजकल?..आता ही नहीं अब तो”.
-”उसे फुर्सत ही कहाँ है दीदी, रात दिन किताब में फोटू देखता रहता है. सारे बच्चे मिलके खेलते हैं, पर वह तो किताब में पता नहीं क्या निहारता रहता है. ,एक दिन उसका बाबा उसको खूब मारा वो उनके साथ काम पर नहीं गया न?”…मेरा मन रुन्छु से मिलने के लिए बैचैन हो उठा. –‘उसे मेरे पास भेज देना ”कह कर मै अपने काम में लग गयी. शाम को रुन्छु हाजिर था, अपनी बाल सेना के साथ आज तो वे सब एक स्वर में बोल रहे थे. –”आंटी जी हम लोगन भी पढेगा सब,बाकिर काम भी करेगा, नहीं तो बाबा पढ़ने नईं देगा”. अपनी बात कह कर रुन्छु तो चला गया पर पर एक ज्वलंत प्रश्न छोड़ गया था. जिस देश का बचपन भूखा, नंगा, हो, अपनी रोटी खुद जुटाने के लिए मजबूर हो, वहां सर्व शिक्षा अभियान चलाना या ग़रीबों का जीवनस्तर उठाने की बात करना बेमानी है.एक मृगत्रुश्ना है, रुन्छु और उसके मित्र दिन भर काम में लगे रहते, और शाम को थके हारे होने पर भी पढने जरुर आते वे जो काम करते थे वे उनकी क्षमता से परे और अमानवीय थे. कोई गटर साफ़ करता था,तो कोई वेटर का काम करता था. चुना पोतने से लेकर बालू ढ़ोने तक के सारे काम वे करते थे. धीरे धीरे बच्चोने मेरे पास बैठ कर अक्षर ज्ञान तो प्राप्त कर लिया था, उनमे रुन्छु सबसे आगे था, उसकी नियमित पढाई के लिए उनकी बस्ती में जाकर बात की तो जैसे तूफ़ान खड़ा हो गया. कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था क़ि उनका बच्चा ४-५ घंटे स्कूल में जाकर बिताये,काम कौन करेगा?”
मै बिफर गयी और उनकी शिकायत आगे करने की धमकी दी तो वे कुछ शांत हुए. मेरी कालोनी के सरकारी स्कूल में वे सभी भर्ती हो गए थे. वहां उन्हें भर पेट खाना भी मिलता था,और पढाई भी होती. साथ ही उनके छोटे भाई बहन भीवहीं रहकर खाना खाते ,खेलते भी थे. सबसे अच्छी बात यह हुई क़ि अब बस्ती वालों को भी कोई आपत्ति नहीं थी. पर कुछ सिरफिरे लोगों का लोभ जरुर बढ़ गया था. वे बच्चों के न रहने पर हुए नुकसान की भरपाई चाहते थे.,उनके मुखर विरोध में कालोंनी के कुछ भद्र जन भी शामिल थे. जिनके यहाँ ये बच्चे काम करते थे. …पर यह विरोध जल्दी दब गया था, क्योंकि कानून का भय और खुद उनकी पत्नियों का विरोध आड़े आ गया था. मी.शर्मा के यहाँ सात वर्षीय गुडिया, बच्चों को खिलाने से लेकर रोटी तक बनालेती थी.बच्चे दिन भर कभी कारें धोते,घास काटते और बदले में दो रुपये या कभी वो भी नहीं, पर इस शर्मनाक कृत्य पर लज्जित होने के बदले, …आज वे भी सबके नेता बने डटे हुए थे. …
खैर बात आई गयी हो गयी क्योंकि बच्चों ने हार नहीं मानी थी. उन्हें स्कूल में नया माहौल मिला तो उनकी सोच भी बदलने लगी थी. वरना उनके घरों में तो हंडिया पीकर दिन भर गालियाँ बकते ,माँ की मार पिटाई करते पिता होते, और जीभर हाड तोड़ मेहनत करती,रोटी, बिसूरती माँ होती.थी.
जब वे मेरे घर के सामने से साफ़ सुथरे कपडे पहने बस्ता लेकर गुजरते तो ‘नमस्ते करना नहीं भूलते थे.धीरे धीरे समय आगे बढ़ता गया, बच्चों से लोग काम तो अभी भी करवाते ही थे, पर मैं निश्चिन्त थी क़ि एक पीढ़ी तैयार हो रही थी, जो इस घिनौने कृत्य को रोक पाने में अवश्य सक्षम होगी. ……
–आज कई वर्षों के बाद मैंने फिर अपने गेट पर रुन्छु को खड़े देखा ..परन्तु तब और अब के रुन्छु में जमीन आसमान का फर्क था. वह नीली पैंट, और सफ़ेद कमीज पहने हाथों में मिठाई का डिब्बा लिए खडा था. मै आश्चर्य चकित हो देखती रह गयी -क्या यह वही रुन्छु है?छोटा सा, मैले कुचैले कपडे पहने …कचरा फेंकवाने की याचना करते हुए. ”–उसने मुझे प्रणाम किया, —”आंटी जी हम दसवीं पास कर लिए हैं”.. मै आज बहुत खुश थी, वह एक छोटी सी शुरुआत कहें या कोशिश एक बड़ी सफलता के रूप में साकार हो गयी थी. ,उसकी नन्हीं आँखों का सपना सच हो गया है.. और मेरा नन्हा -”एकलव्य” अपनी लड़ाई जीत गयाहै.

पद्मा मिश्रा
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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