नवगीत की सशक्त हस्ताक्षर- शांति सुमन

नवगीत की सशक्त हस्ताक्षर- शांति सुमन

जिनका व्यक्तित्व सुगंधित फूलों का बगीचा है,
जिनकी शाब्दिक अभिव्यक्ति में शांति का संदेश है,
जिनकी कलम किसी अदृश्य को सदृश्य से जोड़ती है,
जिनकी भावाभिव्यक्ति में उन्मुक्त कंठ की जादूगरी है ,
जिनके शब्दों में खो जाता है सुनने वाले का मन
ऐसे स्वनाम धन्य है आदरणीय शांति सुमन ।

जिंदगी की धूप- छांव एवं परिस्थितियों के कोहरे जीवन को कई अनुभव दे जाते हैं। जिंदगी परत दर परत तब खुलती चली जाती है जब हम अच्छे बुरे अनुभव से गुजरते हैं।इन अनुभवों से जुड़ी हुई खट्टी मीठी संवेदनाएं जब शब्द बनकर कागज पर उतरती हैं तो नए-नए बिम्ब के साथ हम जिंदगी के विभिन्न रंगों को जीते हैं । यही शब्दाभिव्यक्ति जब गीत के रूप में प्रस्फुटित होती है तो सारे भाव दिल की गहराइयों तक उतरते चले जाते हैं। बातों को नए अंदाज में रखने की कला ने नवगीत को गेयता के साथ अभिव्यक्ति प्रदान की ।

हमारा जीवन प्रकृति में समाहित है और प्रकृति के हर कण से मानव कुछ ना कुछ सीखता रहता है। नवगीत परंपरा भी अपने में निराली है । सन् 1952 से 60 तक जो पद्य साहित्य प्रकाश में आया, उसमें गीत- नवगीत परंपरा सामने आई। तुकांत पंक्तियों में एक मुखड़ा और दो या तीन अंतरे में नवगीत लिखे गए। काव्य प्रस्तुति में गीतात्मकता प्रधान रही है। नवगीत में तारतम्यता को बनाए रखने के लिए अंतरे की अंतिम पंक्ति मुखड़े की पंक्ति के समान तुकांत बनी, ताकि अंतरे के बाद मुखड़ा को दोहराया जा सके। गीतात्मक विधा के कारण भले ही नवगीत में छंद से संबंधित कोई नियम नहीं है परंतु गीतात्मक होने के कारण गेयता और लय में रुकावट ना आए इसलिए मात्राओं का संतुलन बनाए रखना आवश्यक माना गया ।नव गीत शैली को आत्मसात करते हुए अपने समकालीन कवि गण में आदरणीय शांति सुमन जी का नाम भी बड़े सम्मान से लिया जाता है। साहित्य की महान विभूतियों में कविवर निराला ,राजेंद्र प्रसाद सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, माहेश्वर तिवारी, सुभाष वशिष्ठ, कुमार रविंद्र के साथ शांति सुमन जी नवगीत की हस्ताक्षर है ।

गीत अंतर्मन की विभिन्न रसानुभूति को जागृत करती संवेदना का नाम है। हिंदी साहित्य में नवगीत परंपरा अपने आप में आनंद का सृजन है। साहित्य समीक्षक कहते हैं कि- “गीत की आत्मा व्यक्ति केंद्रित है जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता को समेटे हुए हैं। भाषा के स्तर पर नवगीत छायावादी शब्दों से परहेज करती दिखाई देती है।” हालांकि शाब्दिक अभिव्यक्ति में छायावादी दृष्टि की संरचना दिखाई देती है। नई कविता में गीत विधा का समावेश हुआ और यही नवगीत कहलाए। अभिव्यक्ति के स्तर पर यदि देखें तो नवगीत नव गति, नव लय, ताल छंद के साथ गीतात्मकता बढ़ाने वाले नए कथन ,नव प्रतिबिंब ,उपमान के रूप में प्रकाश में आए। शांति सुमन जी नवगीत में उपरोक्त कथन तब सार्थक हो जाता है जब वह कहती हैं-

“नमी बेतहासे
खुशबू कँपी – कँपी
कबूतर के पंखों पर ठहरी भोर
औंधे कजरौटे- सा आसमान
फटे आंचल सी नदी
पथराए बरगद के नैन
ठहरी थी कोई सदी ।”

हमारे देश की संस्कृति अनुकरणीय है। बाग -बगीचे ,खेत -खलिहान ,कृषक समाज ,पारस्परिक निर्भरता, आपसी प्रेम और प्रकृति के साथ हमारा अटूट संबंध है। यह सारी बातें जमीनी है जो हमें हमारे अस्तित्व से जोड़ती हैं। नवगीत की परंपरा में कुछ ऐसे आवश्यक तत्व है जिसमें संस्कृति व लोक तत्व का समावेश होता है। शांति सुमन जी कहती हैं-

“गंधों के मोहपाश ,
दरवाजे खड़े रहे,
लाखों त्यौहार- पर्व
सपनों में पड़े रहे
सांधे यो बिछलीं-
तिर आया नैनो में सवेरा
जाल फेंकता रहा मछेरा…..”

नवजीत के सृजनात्मक बिंब अपने गीतों में तुकांत की जगह लयात्मता को प्रमुखता देते हैं। इस बात की झलक हमें उनकी पंक्तियां मिलती हैं जो एक सुखद इंतज़ार को रेखांकित करती है। वह कहतीं हैं-

“मुट्ठियों में बंद कर ली
नागकेसर हवा
एक तिनका धूप लिखती
है भला सा नाम
देखना फिर अतिथि
आयेगा तुम्हारे गांव
सर्दियों में नरम हाथों
से भरा कहवा……..”

शांति सुमन जी के गीतों में हमें समय का आइना दिखाई देता है ।समाज में हो रहे परिवर्तन मन कई प्रश्न उठा रहे हैं।उनके गीत उस संवेदना को छूते हुए से आगे बढ़ रहे हैं कि यह परिवर्तन कैसा होगा? उन्होंने नवगीत में नए प्रतीक एवं नए बिम्बों का प्रयोग बड़ी ही बारीकी से किया है। उनकी पंक्तियों में आम आदमी का संघर्ष रेखांकित होता है। संघर्ष का दारूण अवस्था, गरीबी और नव पीढ़ी में ककहरे के साथ सुख की काल्पनिक अभिव्यक्ति में आशावादी दृष्टिकोण नजर आता है। वह कहतीं हैं-

“फटी हुई गंजी ना पहने
खाए खाए बासी भात ना
बेटा मेरा रोए मांगे एक पूरा चंद्रमा
पाटी पर वह सीख रहा लिखना
ओ ना मा सी अ से अपना ,आ से आमद
× × × ×
आंखों में उठने वाले गुस्से को सोच रहा। रक्त हीन हुआ जाता कैसे गोदी का पालना।”

शांति सुमन जी के गीतों में वर्णित सामाजिक बदलाव में उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण झलकता हैं । वह परिवर्तन की आकांक्षी हैं। प्रकृति और पुरुष समाज का मुख्य बिंदु है उनकी यही वैज्ञानिक दृष्टि कहती है –

“धरती सारी माँ-सी
बाप को हल में जुते देखकर
सीखे हो संभालना
घट्ठे पड़े हुए हाथों का प्यार बड़ा ही
सच्चा खोज रहा अपनी बस्ती में ।”

उनके नवगीतों में सकारात्मक चिंतन का भाव बहुत ही स्पष्ट दिखाई देता है। वह कहना चाहती हैं कि परिस्थितियां कितनी भी विपरीत क्यों ना हो हमें सजग रहना चाहिए । वह कहतीं हैं-
” तेज कर उड़ानों को
उड़ानों को तेज कर
धीरज रखो
अलग मत करना कभी
इस कठिन दिन को
छांव में भी धूप के किस्से
कहो मन को….” यह पंक्तियां हमें विषम परिस्थितियों में सकारात्मक चिंतन से जुड़ती हैं।

नवगीत वह परंपरा है जिसमें बात कहने का ढंग कुछ ऐसा नया हो कि जो कुछ कहा जाए वह प्रभावशाली हो। उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग करते हुए, अपने मन की बात कहतीं हैं-

“तुम आए
जैसे पेड़ों में पत्ते आए
धूप खिली
मन लता खिल गयी ।”

शांति सुमन जी के नवगीतों में एक विशेषता यह भी देखी गई कि उन्होंने अभिव्यक्ति के दौरान शाब्दिक चयन बहुत सटीक तरीके से किया, जिसमें ग्रामीण अंचलिक शब्दावली के साथ-साथ तत्सम तद्भव कभी सटीक प्रयोग किया जब वे कहती हैं-

” यह दिन भी बीत गया
लो खुद को टेहते…
× × × ×
मुट्ठी भर पेड़ खड़े
डाल -पात के नखरे
मुंह ढक के पड़े हैं किनारे
गदबेर- से ।”

नवगीत को छंद के बंधन से मुक्त रखा गया परंतु लयात्मकता इसका आवश्यक तत्व बनी । पढ़ने में कविताएं अतुकांत सी लगेंगी , परंतु जब इसे रागात्मक संस्कार मिल जाता है तो अभिव्यक्ति अत्यंत कर्णप्रिय हो जाती है-

“मां की परछाईं- सी लगती
गोरी -दुबली शाम
पिता- सरीखे दिन के माथे
चूने लगता घाम
दरवाजे की सांकल-
छाप अंगुलियों की ठहरी
भुनी हुई सूजी की मीठी
गंध लिखी देहरी
याद बहुत आते हैं घर के
परिचय और प्रणाम……।”

अपने नव गीतों में शांति सुमन जी ने प्रकृति की सूक्ष्मता का निरीक्षण किया है।जब हम स्वयं को प्रकृति का अंग मान लेते हैं तो लिखना और भी सहज हो जाता है । वे कहते हैं कि –

” मेघ तरु फूले
साथ थे कुछ दूर चल कर रास्ते भूले

हवा के ये महल झोंके
बीन बजाते हौसलों के
बरुनियों के देवदारू तले पड़े झूले
××××××
धूल -माटी के घरौंदे
आंधियों के पांव, पौदे
दस दिशा,दस हाथ, फिर भी लग रहे लूले…

नए प्रतिमानों के साथ मधुर अभिव्यक्ति लिए शांति सुमन जी की कलम एक सुरीला संसार गढ़ती चली जाती है। उनके गीतों के भाव बिंब, हमें जमीनी हकीकत से जोड़ते हैं। आधुनिकता की अंधी दौड़ एवं कृत्रिमता के कारण सिकुड़ता घर आंगन उन्हें बेचैन करता है। दिखावे की ठाट बाट में गुम होते बाग -बगीचे , अमराई ,धूप ,हवा, नदी एवं स्वाभाविक जीवन शैली को हाशिए पर खड़ा कर दिया है ।इसकी टीस भी उनके गीतों में स्पष्ट दिखाई देती है। उनके गीतों में जनधर्मिता लक्षित होती है। अपने गीतों में साधारण जन की जीवन आस को रेखांकित करते हुए उनके दुख- दाह, ताप त्रास, बेबसी लाचारी को जन जन तक पहुंचाकर, वह उसमें आवश्यक परिवर्तन का आगाज करती नजर आती हैं। स्त्री विमर्श करते हुए अपने गीतों में स्त्री की दशा को बयां करतीं हैं। साथ ही सब कुछ लुटा कर भी स्त्री अपनी मेहनत से नव निर्माण करती है। एक मजदूर स्त्री की दशा उन्हें बेचैन करती है और वह कहती हैं-

“इसी शहर में ललमनिया भी रहती है बाबू
आव बचाने खातिर कोईला चुनती है बाबू ”

शांति सुमन जी के नवगीत हमें जिंदगी से जोड़ते हैं। एक सलज विराट सत्य को खोजती उनकी लेखनी हर आम व्यक्ति को खास बना देती है। उनके कथन में वर्णित आवेग परिवर्तन चाहते हैं। उनके गीतों में वर्णित भावुकता सामाजिक चेतना का भाव पैदा करती हैं। उनके गीत जुबान पर चढ़ जाते हैं और उनके स्वर हृदय में व्याप्त अंधकार को प्रकाशित करते हैं। ऐसे स्वर सम्राज्ञी, कोकिल कंठ, विदुषी के पद चिन्ह हमारी चेतना को जीवंत बनाए रखते हैं। उनके लिए यह कहना सर्वथा उचित है कि –

“तुम आए धरती पर ऐसे बदलने लगी है घाम
छांव खोजते पसीने को मिल जाए शीतल छांव
जैसे भोर की अरुणाई में खिलते नित नए सुमन
तुम आए मानव बगिया में बन शांति सुमन”

डॉ उमा सिंह किसलय
साहित्यकार
गुजरात

0
0 0 votes
Article Rating
3 Comments
Inline Feedbacks
View all comments