शार्दुला नोगजा की कविताएँ
सर्वे सन्तु निरामया!
दी रचा स्वर्णिम धरा ने अल्पना
ओ समय के रथ ज़रा मद्धम चलो!
है सकूरा और जूही की गली
ओ सुगन्धा चाँदनी में न जलो!
जैसे पूर्वाभास से भयभीत हो
जल छिड़क माँ मंत्र बुद-बुद बोलती
मानवों के क्षेम को व्याकुल धरा
गाँठ अदरक, हरिद्रा की खोलती
बहुत ऊँची जा लगीं कुछ बूटियाँ
आओ मारुत आओ, तुम फुनगी चढ़ो!
उत्सवों का सत्व बस उल्लास कब?
सभ्यता-तहजीब की ये रीतियाँ
इक जगह रमज़ान की इफ़्तार है
पिंड विच बैसाखियों की प्रीतियाँ
है अवध के साथ मिथिला बावरी
आओ राधव अब मही पर पग धरो!
हो गई धूमिल कलम दुख में अगर
अग्रजों के पाँव जा बैठो ज़रा
जिस तरह प्रकृति वहन दारिद्रय कर
स्वागातातुर पुष्प के होती हरा
उस तरह तुम उत्सवों में मुस्कुरा
हो सके तो दर्द औरों के हरो!
फिर से धूप धरा पर उतरी
पातों को गहना पहनाने
पर्वत का माथा सहलाने
चुम्बन लेने नर्म कली का
फिर से धूप धरा पर उतरी
कल ही तो थक कर सोई थी
आर्त पुकारों संग रोई थी
आज विगत की परछाईं धो
अक्षय धूप धरा पर उतरी
कीच कफ़न बन जब था फैला
प्रकृति का आँचल था मैला
श्वेत वसन धारण कर निर्मल
मृण्मय धूप धरा पर उतरी
निर्माणों का बिगुल बजा कर
संवेदन के भाव जगा कर
वीरों का अभिनन्दन करने
निर्भय धूप धरा पर उतरी
सूरज में गरमी ना हो
सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।
देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।
ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।
लय को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जाता जो सब छोड़ कर
रोको ना, तुम जाने दो।
सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो!
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