शैल अग्रवाल की कविताएं
1.प्रेम में
अक्सर
शब्द जो कभी
कहे ही नहीं गए
साफ-साफ सुने जाते हैं
जैसे बारिश की बूंदें
गिरती हैं रेगिस्तान में
खो जाने को धीरे धीरे
जैसे भूखे की आँख में
आ जाती है चमक
रोटी की आस में
जैसे प्रार्थना में
शब्द उच्चारते हम
मंत्र की तरह
पर यह जादू तभी तक तो
जब तक जरूरत हमारी
बेचैन ना कर दे हमें प्यार में।
प्रेम एक बन्धन भी तो
एक उलझन भी तो
आत्मा का इस नश्वर शरीर से
चिर राग-विराग है
बावरी चिड़िया है शायद
ऊँची डाल पर बैठ घोंसला बुनती
जगह कम जहाँ पर बैठी वहीं
लुभाती रिझाती मीठे सुर गाती
पास जाओ तो कहती
दूर ही रहो, पास न आओ
अपनी ही आँच में झुलसती
और झुलसाती जाती
गीत जो इसके सुने हमने
उर में धंसे शूल के स्वर हैं
पीड़ा ही तो पर गीतों में ढलती
पीड़ा ही तो प्रेम रस पगती
एक-दूजे के ताप सुलगती
बावरी मीरा सी है यह
राधा और सीता की है यह
कितनी कहानियाँ बिखरी पड़ीं
इसके विषपान की….
नहीं, समर्पित नदी है शायद
किसी बावरे बेचैन मन की
अपनी ही रौ में जो बहती जाती
संग किरकती महकती गीली माटी
तपते सूरज और शीतल हिम की बेटी
हठीले होठों से जी भर मुस्काती
और आँखों में आँसू भर लाती
अपने पर एक घाव ना गिनती
कठिन डगर है पनघट की
अल्हड़ यह अलबेली
हँस-हँसकर गाती चलती…
2.धरती हूँ मैं
कहाँ हैं मुझे चाहने वाले
मां जो कहते थे मुझे
मेरी पूजा करते थे
उनका इंतजार करती हूँ मैं
धरती हूँ मैं
अबतक तो मैंने सबको था पाला
सोखी है बरखा और तपती ज्वाला
मेरी गोद में तुम जो खेले बढ़े
मुझे ही मौत की चादर उढ़ाते
तुम्हारा पेट भरती हूँ मैं
धरती हूँ मैं
आग यह सीने में कैसी लगा दी
सागर उबला लहरें झुलसाती
पिघल रहे हैं मेरे हिम शिखर
उजड़ चुके कितने पक्षियों के घर
अगली होगी तुम्हारी भी बारी
पल-पल आंसू झरती हूँ मैं
धरती हूँ मैं
कलुषित नदियाँ कलुषित है जल
जहरीली हवाओं के इस चक्रवात में
पलपल ही थोड़ा-थोड़ा मरती हूँ मैं
धरती हूँ मैं
खिलो महको झाँको दरारों से
उपेक्षित अँधेरी झिर्रियों
टूटते ढहते बेबस किनारों से
कैसे अँधेरों में भटकी हूँ में
धरती हूँ मैं
चट्टानों का सीना भेदो
हारो ना पर बुरी आदतों से
लौटेगा ना वक्त कहती हूँ मैं
धरती हूँ मैं
जागो चेतो जबतक है वक्त
बीज हो तुम ही तो मेरी आस के
संभावनाओं के विकास के
तुम पर विश्वास करती हूँ मैं
धरती हूँ मैं…
– शैल अग्रवाल
ब्रिटेन