हरि अनंत हरिकथा अनंता
तुलसीदास के ‘हरि अनंत हरिकथा अनंता’ की तरह ही विविध आयामी और नवों रसों से भरपूर रामकथा भारत ही नहीं, विश्व के कई देशों में प्रचलित है। असल में देखा जाए तो आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण में जिन-जिन स्थानों का उल्लेख है, भौगोलिक उन सभी क्षेत्रों में साहित्य और संस्कृति के किसी न किसी रूप में रामकथा का समावेश आज भी उपस्थित है।
राम के प्रति जिज्ञासा और समर्पण जहाँ विश्वव्यापी है, रामकथा कब और किसने शुरु की निश्चय ही एक जटिल शोध का ही विषय है। रामकथा का प्राचीनतम उल्लेख बृह्मांड पुराण में है। इसके अनुसार सर्वप्रथम रामकथा भगवान शंकर ने देवी पार्वती जी को सुनाई थी, जिसे पास बैठे कौवे ने भी सुना। उसी कौवे का पुनर्जन्म कागभुषंडी जी के रूप में हुआ । और यही नहीं, उन्हें पूर्व जन्म में सुनी वह रामकथा पूरी तरह से याद भी रही। तब उन्होंने वही राम कथा अपने शिष्यों को सुनाई। इस तरह से इस कथा का आगे प्रचार-प्रसार हुआ। भगवान शंकर के मुख से निकली यह रामकथा ‘अध्यात्म रामायण’ के नाम से भी जानी जाती है, इसमें श्रीराम को ईश्वर का अवतार माना गया हैं, जो शरणागत के रक्षक और तारक हैं। वक्त के साथ-साथ कथा की यह लोककल्याणकारी धारणा और भी मजबूत होती चली गयी। तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अवतरण ने तो मानो इस विश्वास पर सील ही लगा दी। रक्षा कवच की तरह रामायण और हनुमान चालीसा कितनों की संरक्षक रही है, इसका प्रमाण आज भी अधिकांश भारतीयों के घरों में रामायण की उपस्थिति से पहचाना जा सकता है। आश्चर्य नहीं कि जहाँ-जहाँ भारतीय पहुंचे, रामायण भी पहुंची।
अन्नामी, बाली, बांग्ला, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावाई, कन्नड़, कश्मीरी, खोटानी, लाओसी, मलेशियाई, मराठी, ओड़िया, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलुगु, थाई, तिब्बती, कावी आदि कई भाषाओं में अबतक माना जाता है कि तीन सौ से भी अधिक रामायण लिखी जा चुकी है। पर सभी रामायण की कथा में कुछ न कुछ फेर-बदल है क्योंकि इनमें से कईयों में श्रीराम के बारे में ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जो मूल वाल्मीकि रामायण में नहीं हैं। बुद्ध ने पूर्व जन्मों का वृत्तांत कहते हुए शिष्यों को रामकथा सुनाई, जहाँ राम बोधिसत्व यानी तत्वज्ञानी हैं और राम व बुद्ध दोनों ही विष्णु के अवतार हैं। जैन रामायण में दैवत्व से अधिक कर्म प्रधान राम का चरित उकेरा गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामकथा को संस्कृत नहीं, जनजन की भाषा अवधी में लिखा , भारत के खोए आत्मविश्वास के लिए एक सुदृढ़ संदेश के साथ। और भारत ही नहीं, आज लव-कुश के मुंह से गायी यह गाथा विश्व के कई देशों में जीवन का प्रेरक गीत है।
वाल्मीकि रामायण और अन्य रामायण में एक बड़ा अंतर यह है कि वाल्मीकि रामायण को तथ्यों और घटनाओं के आधार पर लिखा गया था, जबकि अन्य रामायण को जनश्रुतियों के आधार पर । इसीलिए विद्वान आज भी वाल्मीकि रामायण को ही मूल रामायण कहते हैं। पर एक बात तो निश्चित है कि जीवन के हर प्रश्न और प्रसंग को समेटे यह रम्य रामकथा आज भी भारत ही नहीं, विश्व के कई देशों में न सिर्फ प्रचलित है, बल्कि नित नए रूप लेती अमरबेल-सी फल-फूल भी रही है। हाल ही में मॉरिशस जाने का मौका मिला था। वहाँ पर तो रामायण मानो लोगों के जीवन में धड़कती है। घर-घर में ध्वजा और कलश सहित मंदिर, राम हनुमान की पूजा,और रामभजन संध्या व अखंड रामायण जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं । इसी तरह फिजी, नेपाल, वर्मा कई ऐसे देश हैं जहाँ रामकथा के मंचन अभिनय आदि आज भी नियमित रूप से होते हैं। हाट-बाजारों में मूर्तियाँ बिकती हैं। हस्तकला और चित्रों में रामकथा अंकित होती रहती है। देखा जाए तो आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण में जिन-जिन स्थानों का उल्लेख है, भौगोलिक दृष्टि से उन सभी क्षेत्रों के साहित्य और संस्कृति से किसी न किसी रूप में रामकथा आज भी जुड़ी हुई है। यह बात दूसरी है कि कई देशों में रामकथा पर आधारित ये विदेशी कृतियाँ विचित्र तथ्यों से परिपूर्ण हैं। कहीं रावण साधु बनकर सीता को हरता है तो कहीं सेवक।स्थानीय संस्कृति और मान्यताओं से पूर्णतः अनुरंजित इन राम कथाओं को कहीं तो बोद्ध जातक कथाओं का जामा पहनाया गया है, तो कहीं इनका इस्लामीकरण भी हुआ है। कुछ संक्षिप्त हैं तो कुछ अत्याधिक विस्तृत भी।
राम कथा की विदेश-यात्रा के संदर्भ में वाल्मीकि रामायण का उल्लेख इस अर्थ में भी प्रासंगिक होगा कि यह कथा उन सभी स्थलों पर आज भी किसी न किसी रूप में जीवित है और स्थानीय व दर्शक जनसमुदाय को लुभाती रही है। बर्मा, थाईलैंड, कंपूचिया, लाओस, वियतनाम, मलयेशिया, इंडोनेशिया, फिलिपींस, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया, तुर्किस्तान, श्रीलंका और नेपाल की प्राचीन भाषाओं में राम कथा पर आधारित बहुत सारी साहित्यिक कृतियाँ मौजूद हैं । अनेक देशों में यह कथा शिलाचित्रों की विशाल शृंखलाओं में अंकित है और इसके शिलालेखी प्रमाण भी मिलते है। कई देशों में प्राचीन काल से ही विवध रूपों में रामलीला का प्रचलन रहा है और कुछ देशों में रामायण के घटना स्थलों का स्थानीकरण भी हुआ है।
रामकथा साहित्य के विदेश गमन की तिथि और दिशा निर्धारित करना कठिन काम है, फिर भी दक्षिण-पूर्व एशिया के शिलालेखों से तिथि की समस्या का निराकरण कुछ हद तक तो हो ही जाता है। अनुमान है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में ही रामायण वहाँ पहुँच गयी थी। अन्य साक्ष्यों से यह भी प्रतीत होता है कि रामकथा की प्रारंभिक धारा सर्वप्रथम दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर ही बही थी।
पंद्रहवी शताब्दी में इंडोनेशिया के इस्लामीकरण के बावजूद वहाँ जवानी भाषा में सेरतराम, सेरत कांड, राम केलिंग आदि अनेक रामकथा काव्यों की रचना हुई, जिनके आधार पर अनेक विद्वानों द्वारा वहाँ के राम साहित्य का विस्तृत अध्ययन भी किया गया है।
दक्षिण-पूर्व एशिया की सबसे प्राचीन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति प्राचीन जावानी भाषा में रचित रामायण काकाबीन है जिसकी तिथि नौवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। रचनाकार महाकवि योगीश्वर हैं।
इंडोनेशिया के बाद हिंद-चीन भारतीय संस्कृति का गढ़ माना जाता रहा है। इस क्षेत्र में पहली से पंद्रहवीं शताब्दी तक भारतीय संस्कृति का प्रभाव था। पर चौंकाने वाली बात यह है कि कंपूचिया के अनेक शिलालेखों में रामकथा की चर्चा तो हुई है, किंतु उस पर आधारित मात्र एक कृति रामकेर्ति ही अब उपलब्ध है, और वह भी खंडित रुप में। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह हे कि चंपा (वर्तमान वियतनाम) के एक प्राचीन शिलालेख में वाल्मीकि के मंदिर का तो उल्लेख है, किंतु वहाँ रामकथा के नाम पर मात्र लोक कथाएँ ही अब उपलब्ध हैं।
लाओस के निवासी स्वयं को भारतवंशी मानते हैं। उनका कहना हे कि कलिंग युद्ध के बाद उनके पूर्वज इस क्षेत्र में आकर बस गये थे। लाओस की संस्कृति पर भारतीयता की गहरी छाप है। यहाँ रामकथा पर आधारित चार रचनाएँ उपलब्ध है- फ्रलक फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, ब्रह्मचक्र और लंका नोई। लाओस की रामकथा का अध्ययन कई भारत के विद्वानों ने भी किया है।
थाईलैंड का रामकथा साहित्य बहुत समृद्ध है। रामकथा पर आधारित कई रचनाएँ वहाँ उपलब्ध हैं- (१) तासकिन रामायण, (२) सम्राट राम प्रथम की रामायण, (३) सम्राट राम द्वितीय की रामायण, (४) सम्राट राम चतुर्थ की रामायण (पद्यात्मक), (५) सम्राट रामचतुर्थ की रामायण (संवादात्मक), (६) सम्राट राम षष्ठ की रामायण (गीति-संवादात्मक)।आधुनिक खोजों के अनुसार बर्मा में रामकथा साहित्य की १६ रचनाएं हैं, जिनमें रामवत्थु प्राचीनतम कृति है।मलयेशिया में रामकथा से संबद्ध चार रचनाएँ उपलब्ध है- (१) हिकायत सेरी राम, (२) सेरी राम, (३) पातानी रामकथा और (४) हिकायत महाराज रावण।
फिलिपींस की रचना महालादिया लावन का स्वरुप रामकथा से बहुत मिलता-जुलता है, किंतु इसका कथ्य बिल्कुल विकृत है।
चीन में रामकथा बौद्ध जातकों के माध्यम से पहुँची थीं। वहाँ अनामक जातक और दशरथ कथानम का क्रमश: तीसरी और पाँचवीं शताब्दी में अनुवाद किया गया था। दोनों रचनाओं के चीनी अनुवाद तो उपलब्ध हैं, किंतु जिन रचनाओं से चीनी अनुवाद हुआ, वे अनुपलब्ध हैं। तिब्बती रामायण की छह पांडुलिपियाँ तुन-हुआन नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त वहाँ राम कथा पर आधारित दमर-स्टोन तथा संघ श्री द्वारा रचित दो अन्य रचनाएँ भी मिलती हैं।
एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है। इस क्षेत्र की भाषा खोतानी है। खोतानी रामायण की प्रति पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से प्राप्त हुई है। इस पर तिब्बत्ती रामायण का प्रभाव साफ दिखता है।
चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया में राम कथा पर आधारित जीवक जातक नामक रचना है। इसके अतिरिक्त वहाँ तीन अन्य रचनाएँ भी हैं जिनमें रामचरित का विवरण मिलता है।
जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह होबुत्सुशु में भी संक्षिप्त रामकथा संकलित है। इसके अतिरिक्त वहाँ अंधमुनिपुत्रवध की कथा भी है।
श्री लंका में कुमार दास के द्वारा संस्कृत में जानकीहरण की रचना हुई थी। वहाँ सिंहली भाषा में भी एक रचना है, मलयराजकथाव।
नेपाल में रामकथा पर आधारित अनेकानेक रचनाएँ हैं जिनमें भानुभक्त कृत रामायण सर्वाधिक लोकप्रिय है।
रामायण शब्द का यदि हम संधिविच्छेद करें तो राम और अयन दो शब्द निकलते हैं। अयन का अर्थ है यात्रा; अर्थात् ‘रामायण’ का विश्लेषित रुप ‘राम का अयन’ है जिसका अर्थ है ‘राम का यात्रा पथ’,. यह मूलत: राम की दो विजय यात्राओं पर आधारित है जिसमें प्रथम यात्रा यदि प्रेम-संयोग तथा आनंद-उल्लास से परिपूर्ण है, तो दूसरी क्लेश, क्लांति, वियोग, व्याकुलता, विवशता और वेदना से आवृत्त। विश्व के अधिकतर विद्वान दूसरी यात्रा को ही रामकथा का मूल आधार मानते हैं। एक श्लोकी रामायण में राम वन गमन से रावण वध तक की कथा वर्णित है।
अदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणम्।
वालि निग्रहणं समुद्र तरणं लंका पुरी दाहनम्।
पाश्चाद् रावण कुंभकर्ण हननं एतद्धि रामायणम्।
जीवन के पेचीदा यथार्थ को रूपायित करने वाली राम कथा में सीता का अपहरण और उनकी खोज अत्यधिक रोमांचक व मार्मिक है। रामकथा की विदेश-यात्रा के संदर्भ में सीता की खोज-यात्रा को विशेष महत्व भी दिया गया है। वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के चालीस से तेतालीस अध्यायों के बीच इसका विस्तृत वर्णन हमें मिलता है जो ‘दिग्वर्णन’ के नाम से विख्यात है। वानर राज बालि ने विभिन्न दिशाओं में जाने वाले दूतों को अलग-अलग दिशा निर्देश दिए थे, इन निर्देशों से एशिया के तत्कालीन भूगोल की जानकारी मिलती है।
कपिराज सुग्रीव ने पूर्व दिशा में जाने वाले दूतों के सात राज्यों से सुशोभित यवद्वीप (जावा), सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) तथा रुप्यक द्वीप में यत्नपूर्वक जनकसुता को तलाशने का आदेश दिया। इस क्रम में यह भी कहा गया कि यव द्वीप के आगे शिशिर नामक पर्वत है जिसका शिखर स्वर्ग को स्पर्श करता है और जिसके ऊपर देवता तथा दानवों का निवास है।
यनिवन्तो यव द्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्।
सुवर्ण रूप्यक द्वीपं सुवर्णाकर मंडितम्।
जवद्वीप अतिक्रम्य शिशिरो नाम पर्वत:।
दिवं स्पृशति शृंगं देवदानव सेवित:।१
दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास का आरंभ इसी दस्तावेती सबूत से होता है। इंडोनेशिया के बोर्नियो द्वीप में तीसरी शताब्दी को उत्तरार्ध से ही भारतीय संस्कृति की उपस्थिति के ठोस सबूत मिलते हैं। बोर्नियों द्वीप के एक संस्कृत शिलालेख में मूलवर्मा की प्रशस्ति उत्कीर्ण है जो इस प्रकार है-
श्रीमत: श्री नरेन्द्रस्य कुंडगस्य महात्मन:।
पुत्रोश्ववर्मा विख्यात: वंशकर्ता यथांशुमान्।।
तस्य पुत्रा महात्मान: तपोबलदमान्वित:।
तेषांत्रयानाम्प्रवर: तपोबलदमान्वित:।।
श्री मूलवर्मा राजन्द्रोयष्ट्वा वहुसुवर्णकम्।
तस्य यज्ञस्य यूपोयं द्विजेन्द्रस्सम्प्रकल्पित:।।२
इसी शिला लेख में मूल वर्मा के पिता अश्ववर्मा तथा पितामह कुंडग का उल्लेख है। बोर्नियों में भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के स्थापित होने में भी काफी समय लगा होगा। तात्पर्य यह कि भारतवासी मूल वर्मा के राजत्वकाल से बहुत पहले उस क्षेत्र में पहुँच चुके थे।
जावा द्वीप और उसके निकटवर्ती क्षेत्र के वर्णन के बाद द्रुतगामी शोणनद तथा काले मेघ के समान दिलाई दिखाई देने वाले समुद्र का उल्लेख हुआ है जिसमें भारी गर्जना होती रहती है। इसी समुद्र के तट पर गरुड़ की निवास भूमि शल्मलीक द्वीप है जहाँ भयंकर मानदेह नामक राक्षस रहते हैं जो सुरा समुद्र के मध्यवर्ती शैल शिखरों पर लटके रहते है। सुरा समुद्र के आगे घृत और दधि के समुद्र हैं। फिर, श्वेत आभावाले क्षीर समुद्र के दर्शन होते हैं। उस समुद्र के मध्य ॠषभ नामक श्वेत पर्वत है जिसके ऊपर सुदर्शन नामक सरोवर है। क्षीर समुद्र के बाद स्वादिष्ट जलवाला एक भयावह समुद्र है जिसके बीच एक विशाल घोड़े का मुख है जिससे आग निकलती रहती है।
‘महाभारत’ में एक कथा है कि भृगुवंशी और्व ॠषि के क्रोध से जो अग्नि ज्वाला उत्पन्न हुई, उससे संसार के विनाश की संभावना थी। ऐसी स्थिति में उन्होंने उस अग्नि को समुद्र में डाल दिया। सागर में जहाँ वह अग्नि विसर्जित हुई, घोड़े की मुखाकृति (वड़वामुख) बन गयी और उससे लपटें निकलने लगीं। इसी कारण उसका नाम वड़वानल पड़ा। आधुनिक समीक्षकों की मान्यता है कि इससे प्रशांत महासागर क्षेत्र के किसी ज्वालामुखी का संकेत मिलता है। वह स्थल मलस्क्का से फिलिप्पींस जाने वाले जलमार्ग के बीच का हो सकता है। यथार्थ यह है कि इंडोनेशिया से फिलिप्पींस द्वीप समूहों के बीच अक्सर ज्वालामुखी के विस्फोट होते रहे हैं जिसके अनेक ऐतिहासिक प्रमाण भी मिलते हैं। दधि, धृत और सुरा समुद्र का संबंध श्वेत आभा वाले क्षीर सागर की तरह जल के रंगों के संकेतात्मक प्रतीक मात्र भी हो सकते हैं।
बड़वामुख से तेरह योजना उत्तर जातरुप नामक सोने का पहाड़ है जहाँ पृथ्वी को धारण करने वाले शेष नाग बैठे हैं। उस पर्वत के ऊपर ताड़ के चिन्हों वाला सुवर्ण ध्वज फहराता है। यही ताड़ ध्वज पूर्व दिशा की सीमा है। उसके बाद सुवर्णमय उदय पर्वत है जिसके शिखर का नाम सौमनस है। सूर्य उत्तर से घूमकर जम्बू द्वीप की परिक्रमा करते हुए जब सौमनस पर स्थित होते हैं, तब इस क्षेत्र में स्पष्ट रूप में उनके दर्शन होते हैं और सौमनस सूर्य के समान प्रकाशमान हो उठता हैं। उस पर्वत के आगे का क्षेत्र अज्ञात है।
जातरुप का अर्थ सोना है। अनुमान किया जाता है कि जातरुप पर्वत का संबंध प्रशांत महासागर के पार मैक्सिको के स्वर्ण-उत्पादक पर्वतों से ही रहा होगा। मक्षिका का अर्थ सोना होता है। मैक्सिको शब्द भी मक्षिका से ही विकसित माना गया है। यह भी संभव है कि मैक्सिको की उत्पत्ति सोने के खान में काम करने वाली आदिम जाति मैक्सिका से हुई है। मैक्सिको में एशियाई संस्कृति के प्राचीन अवशेष मिलने से इस अवधारणा की और भी पुष्टि हुई है।
बालखिल्य ॠषियों का उल्लेख विष्णु-पुराण और रघुवंश, दोनों में हुआ है, जहाँ उनकी संख्या साठ हज़ार और आकृति अँगूठे से भी छोटी बतलायी गयी है। कहा गया है कि वे सभी सूर्य के रथ के घोड़े हैं। इससे अनुमान किया जाता है कि यह सूर्य की असंख्य किरणों का ही मानवीकरण है। उदय पर्वत का सौमनस नामक सुवर्णमय शिखर और प्रकाशपुंज के रूप में बालखिल्य ॠषियों के वर्णन से प्रतीत होता है कि यह प्रशांत महासागर में सूर्योदय के भव्य दृश्य का ही भावभीना एवं अतिरंजित चित्रण है।
वाल्मीकि रामायण में पूर्व दिशा में जाने वाले दूतों के दिशा निर्देशन की तरह ही, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में जाने वाले दूतों को भी मार्ग का निर्देश दिया गया। उत्तर में ध्रुव प्रदेश, दक्षिण में लंका के दक्षिण के हिंद महासागर क्षेत्र और पश्चिम में अटलांटिक तक की भू-आकृतियों का काव्यमय चित्रण है, जिससे समकालीन एशिया महादेश के भूगोल की भरपूर जानकारी मिलती है। इस संदर्भ में उत्तर-ध्रुव प्रदेश का एक मनोरंजक चित्र उल्लेखनीय है।
बैखानस सरोवर के आगे न तो सूर्य तथा ना ही चंद्रमा दिखाई पड़ते हैं और न कोई नक्षत्र या मेघमाला ही। उस प्रदेश के बाद शैलोदा नामक नदी है, जिसके तट पर वंशी की ध्वनि करने वाले कीचक नाम के बाँस मिलते हैं। इन्हीं बाँसों का बेड़ा बनाकर लोग शैलोदा को पारकर उत्तर-कुरु तक जाते है, जहाँ सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। उत्तर-कुरु के बाद समुद्र है जिसके मध्य भाग में सोमगिरि का सुवर्णमय शिखर दिखाई पड़ता है। वह क्षेत्र सूर्य से रहित है, फिर भी वह सोमगिरि के प्रभा से सदा दैदीप्य रहता है। लगता है कि यह उत्तरीध्रुव प्रदेश का वर्णन है, जहाँ छह महीनों तक सूर्य दिखाई नहीं पड़ता और छह महीनों तक क्षितिज के छोर पर उसके दर्शन भी होते हैं, तो तुरंत ही आँखों से ओझल हो जाता है। ऐसी स्थिति में सूर्य की प्रभा से उद्भासित सोमगिरि के हिमशिखर निश्चय ही स्वर्णमय ही दिखते होंगे और सूर्य से रहित होने पर भी उत्तर-ध्रुव पूरी तरह से अंधकारमय नहीं।
सतु देशो विसूर्योऽपि तस्य मासा प्रकाशते।
सूर्य लक्ष्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवास्वता।
इस विषय में कई महत्वपूर्ण शोध भी हुए हैं जिनके द्वारा वाल्मीकी द्वारा वर्णित स्थानों को विश्व के आधुनिक मानचित्र पर पहचानने का प्रयत्न किया गया है। बोर्नियो द्वीप, जावा–सुमात्रा और प्रशान्त महासागर से लेकर उत्तरी ध्रुव जहां छह-छह महीने सूरज नहीं निकलता; इन सभी जगहों को इस महाकाव्य में पहचाना जा सकता है ।
भारतवासी जहाँ कहीं भी गये वहाँ की सभ्यता और संस्कृति को तो प्रभावित किया ही, वहाँ के स्थानों के नाम आदि भी बदलकर उनका भारतीयकरण किया। इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप का नामकरण सुमित्रा के ही नाम पर हुआ था। जावा के एक मुख्य नगर का नाम योग्याकार्टा है। ‘योग्या’ संस्कृत के अयोध्या का विकसित रुप है और जावानी भाषा में कार्टा का अर्थ नगर होता है। इस प्रकार योग्याकार्टा का अर्थ अयोध्या नगर हुआ। मध्य जावा की एक नदी का नाम सेरयू है और उसी क्षेत्र के निकट स्थित एक गुफा का नाम किस्केंदा अर्थात् किष्किंधा है। जावा के पूर्वीछोर पर स्थित एक शहर का नाम सेतुविंदा है जो निश्चय ही सेतुबंध का जावानी रुप है। इंडोनेशिया में रामायणीय संस्कृति से संबद्ध इन स्थानों का नामकरण कब हुआ, यह तो कहना कठिन है, किंतु मुसलमान बहुल इस देश का प्रतीक चिन्ह गरुड़ निश्चय ही भारतीय संस्कृति से अपने सरोकार को जरूर उजागर करता है।
मलाया स्थित लंग्या सुक अर्थात् लंका के राजकुमार ने चीन के सम्राट को ५१५ई. में दूत के माध्यम से एक पत्र भेजा था जिसमें लिखा था कि उसके देश को एक मूल्यवान संस्कृति की जानकारी है, जिसके भव्य नगर के महल और प्राचीर गंधमादन पर्वत की तरह ऊँचे और विशाल हैं। मलाया के राजदरबार के पंडितों को संस्कृत का ज्ञान था, इसकी पुष्टि संस्कृत में उत्कीर्ण वहाँ के प्राचीन शिला लेखों से हो जाती है। गंधमादन उस पर्वत का नाम था जिसे मेघनाद के वाण से आहत हुए लक्ष्मण के उपचार हेतु, हनुमान औषधि लाने के लिए उखाड़कर लाये थे। मलाया स्थित लंका की भौगोलिक स्थिति के संबंध में क्रोम नामक डच विद्वान का मत है कि यह राज्य सुमत्रा द्वीप में था, किंतु ह्मिवटले ने प्रमाणित किया है कि यह मलाया द्वीप में था।
बर्मा का पोपा पर्वत ओषधियों के लिए विख्यात है। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि लक्ष्मण के उपचार हेतु पोपा पर्वत के ही एक भाग को हनुमान उखाड़कर ले गये थे और उस पर्वत के मध्यवर्ती खाली स्थान को दिखाकर आज भी पर्यटकों को बताया जाता है कि पर्वत के इसी भाग को हनुमान उखाड़ कर लंका ले गये थे और वापसी यात्रा के दौरान उनका संतुलन बिगड़ जाने से वे पहाड़ के साथ जमीन पर आ गिरे थे और यहां पर एक बहुत बड़ी झील बन गयी। इनवोंग नाम से विख्यात यह झील अभी भी बर्मा के योमेथिन जिले में है। बर्मा के इस लोकाख्यान से इतना तो स्पष्ट है ही , कि वहाँ के लोग प्राचीन काल से ही रामायण से परिचित थे और उन लोगों ने उससे अपने को जोड़े रखने का भी प्रयत्न रखा है।
थाईलैंड का प्राचीन नाम स्याम था और द्वारावती (द्वारिका) उसका एक प्राचीन नगर था। थाई सम्राट रामातिबोदी ने १३५० ई. में अपनी राजधानी का नाम अयुध्या (अयोध्या) रखा था, जिसपर ३३ राजाओं ने राज्य किया। ७ अप्रैल १७६७ ई. को बर्मा के आक्रमण से इसका पतन हुआ। अयुध्या का भग्नावशेष थाईलैंड की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर है। अयुध्या के पतन के बाद थाई नरेश दक्षिण के सेनापति चाओ-फ्रा-चक्री को नागरिकों द्वारा १७८५ई. में राजा घोषित कर दिया गया, जिसका अभिषेक भी राम प्रथम के नाम से ही हुआ। राम प्रथम ने बैंकॉक में अपनी राजधानी की स्थापना की। राम प्रथम के बाद चक्री वंश के सभी राजाओं द्वारा अभिषेक के समय राम की उपाधि धारण की जाती है। वर्तमान थाई सम्राट राम नवम हैं।
थाईलैंड में लौपबुरी (लवपुरी) नामक एक प्रांत है। इसके अंतर्गत वांग-प्र नामक स्थान के निकट फाली (वालि) नामक एक गुफा है। कहा जाता है कि वालि ने इसी गुफा में थोरफी नामक महिष का वध किया था। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि थाई रामायण रामकियेन में दुंदुभि दानव की कथा में थोड़ा परिवर्तन है। इसमें दुंदुभि राक्षस के स्थान पर थोरफी नामक एक महाशक्तिशाली महिष है जिसका वालि द्वारा वध किया जाता है। वालि नामक गुफा से प्रवाहित होने वाली जलधारा का नाम सुग्रीव है। थाईलैंड के ही नखोन-रचसीमा प्रांत के पाक-थांग-चाई के निकट थोरफी पर्वत है जहाँ से वालि ने थोरफी के मृत शरीर को उठाकर २००कि.मी. दूर लौपबुरी में फेंक दिया था। सुखो थाई के निकट संपत नदी के पास फ्राराम गुफा है। उसके पास ही एक सीता नामक गुफा भी है।
दक्षिणी थाईलैंड और मलयेशिया के रामलीला कलाकारों का विश्वास है कि रामायण के पात्र मूलत: दक्षिण-पूर्व एशिया के निवासी थे और रामायण की सारी घटनाएँ इसी क्षेत्र में घटी थी। ये मलाया के उत्तर-पश्चिम स्थित एक छोटे द्वीप को लंका मानते हैं। उनका विश्वास है कि दक्षिणी थाईलैंड के सिंग्गोरा नामक स्थान पर सीता का स्वयंवर रचाया गया था जहाँ राम ने एक ही बाण से सात ताल वृक्षों को बेधा था। सिंग्गोरा में आज भी सात ताल वृक्ष हैं। जिस प्रकार भारत और नेपाल के लोग जनकपुर के निकट स्थित एक प्राचीन शिलाखंड को राम द्वारा तोड़े गये धनुष का टुकड़ा मानते हैं । उसी प्रकार थाईलैंड और मलेशिया के लोगों को भी विश्वास है कि राम ने उन्हीं ताल वृक्षों को बेध कर सीता को प्राप्त किया था।
वियतनाम का प्राचीन नाम चंपा है। थाई वासियों की तरह वहाँ के लोग भी अपने देश को राम की लीलाभूमि मानते है। उनकी इस मान्यता की पुष्टि सातवीं शताब्दी के एक शिलालेख से भी होती है जिसमें आदिकवि वाल्मीकि के मंदिर का उल्लेख है जिसका पुनर्निमाण प्रकाश धर्म नामक सम्राट ने करवाया था। प्रकाशधर्म (६५३-६७९ ई.) का यह शिलालेख अपने आप में अनूठा है, क्योंकि आदिकवि की जन्मभूमि भारत में भी उनके किसी प्राचीन मंदिर का अवशेष अब उपलब्ध नहीं ।
परमात्मा की खोज में भटकती आत्मा की अनंत यात्रा की तरह ही राम की यह कहानी भी कई-कई परिवर्तन और रहस्यमय रूपों से गुजरी है और प्रमाणिकता के अनगिनत वाद-विवादों के बावजूद आज भी अपना वर्चस्व बनाए हुए है । अतः इस संदर्भ में कम-से-कम यह तो पूर्ण विश्वास से कहा ही जा सकता है कि मनसा वाचा कर्मणा हमें प्रेरित करने वाले और भारतीय संस्कृति के आदर्श राम मात्र एक काल्पनिक चरित्र नहीं थे, उनका सशरीर अवतरण अवश्य ही हुआ था और ईश्वर की तरह भौतिक रूप में भले ही वे आज हमारे बीच न भी हों, परन्तु रामकीर्ति की सुवासित मलय आज भी दसों दिशाओं में बह रही है…उन्हें महका रही है। और विश्व के कोने-कोने बिखरे रामभक्तों के लिए इस प्राचीन रामकथा में आज भी अपार शक्ति निहित है, भवसागर को समझने की भी और इससे पार लगाने की भी- जीवन तमस को चीरने वाली सर्वाधिक दैदीप्य मणि है रामकथा । तुलसी दास ने भी तो कहा है-
राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरेहुँ जो चाहसि उजियार।।
शैल अग्रवाल
जनवरी 1947 वाराणसी, भारत में जन्म व शिक्षा आज भी जारी। वैसे पहले कभी बनारस से ही अंग्रेजी,संस्कृत व चित्रकला में स्नातक प्रथम श्रेणी आनर्स के साथ । अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. । सितार और भारतनाट्यम में प्रशिक्षण। रुचि कलात्मक व रुझान दार्शनिक। 1968 से सपरिवार ब्रिटेन में। 50 से अधिक देशों का भ्रमण। कर्मक्षेत्रः साहित्य व समाज। बचपन के छिटपुट लेखन के बाद गंभीर लेखन जीवन के उत्तरार्ध में 1997 के बाद।
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