सरला मेहता की कविताएं
1.ये ध्वज कभी झुका नहीं
स्वतंत्रता की चाह में
शताब्दी गुजार दी
इक सिपाही पांडे ने
चिंगारी जो सुलगाई थी
सर पे कफ़न बांधकर
बादल पे होकर सवार
लक्ष्मी अकेली चल पड़ी
जागीरों के मोह में
घर के भेदिये छुपे रहे
रानी कभी थकी नहीं
ये ध्वज कभी झुका नहीं
बरसों बहाए स्वेद कण
जुल्म भी सहे अनेक
बन गए गुलाम हम
फिरंगियों के राज में
मात सी जमीं हमारी
गिरवी रखी सी हो गई
मेहनत हमारी क़ायदे की
उनके हुए सब फ़ायदे
मज़बूरियों के मारे हम
मजदूर बन थके नहीं
ये ध्वज कभी झुका नहीं
लाठी की एक टेक पर
करोड़ों साथ चल पड़े
क्रांति का बिगुल बजा
हर भारतीय निकल पड़ा
स्वतंत्रता की राह पर
नदियाँ लहू की बह चली
तिलक-भगत-आज़ाद ने
नेताजी के आक्रोश ने
आहुति दी है प्राणों की
कदम कभी रुके नहीं
ये ध्वज कभी झुका नहीं
2.मेरे साजन हैं उस पार
ओ मेरे माँझी! जग मझधार
ले चल मुझको बस इक बार
परमात्म प्रिये बसे हैं उस पार
उधर झूमे खुशियाँ अपरम्पार
इधर दुख-दर्दों की है भरमार
भव-सागर में तूफान व आँधी हैं
हजारों मुश्किलें हैं, आपाधापी है
तू ही खिवैया,तू ही पार लगैया है
मोह-माया को अब देना विराम है
अब जाना मुझे तो अपने धाम है
ये दुनिया तो है मुसाफ़िर खाना
अपने ही घर शांति-धाम जाना
हे माँझी गुरु,बस तेरा ही सहारा
बिन तेरे, मेरा कहीं नहीं गुजारा
लागे पराया अब यह जग सारा
बिन गुरु,ज्ञान मिले नहीं साथी
ज्यों अर्जुन के थे कृष्ण सारथी
एकलव्य ने बनाई थी गुरु-मूर्ति
अब राह दिखा दो मेरे प्राणपति
भ्रमित पथिक सा हूँ मैं मूढ़मति
हे प्रिये! मुझे बनना फ़रिश्ता
जग के ये रिश्ते-नाते तजना
तुझ पर ही प्रभु मुझे भरोसा
क्या पहुँचा नहीं मेरा संदेसा?
सुकर्मों का बस लेखा-जोखा
कर जाएँ हम यहाँ कर्म चोखा
कभी न दें विधाता को धोखा
सरला मेहता
इंदौर, भारत