फ्योंली से अनमोल कोई फूल नही
यह तब की बात है जब यह माना जाता था कि हिसंक से हिंसक वन्यजीव भी मानव मांस नहीं खाते हैं। उसी जमाने में एक बहुत प्यारी सी लड़की हुई थी -फ्योंली। उसे प्रकृति से बहुत प्रेम था। यूं ही विचरते-विचरते एक दिन वह किसी जंगल में भटक गई। माता-पिता, भाई-बहन सब एक झटके में बिछड़ गए। फ्योंली बहुत सुंदर थी। जंगल के जानवर रुक-रुक कर उसे देखने लगे। घबराई सी फ्योंली की समझ में कुछ ना आया, लेकिन शायद जानवर समझ गए थे कि यह प्यारी लड़की अपने घर का रास्ता भूल गई है। उन्हें भी कहां मालूम था कि वह लड़की कहां रहती है, इसलिए सबने मिलकर उसे जंगल में ही सहारा देने की ठान ली। सारे जानवर अपनी-अपनी तरफ से उसके लिए कंदमूल फल लाये। बेड़ू, तिमलू, आड़ू, घिंगाड़ू, बेर, टांटी, हिसर जैसे अमृत तुल्य जंगली फलों के सेवन से फ्योंली का सौंदर्य चांद सा निखर आया।
जानवरों के साथ मिलकर ही उसने अपने लिए घास- फूस की एक कुटिया भी बना ली। जंगल के सारे पशु-पक्षी फ्योंली पर जान छिड़कते थे। वनकन्या सी फ्योंली एक दिन तालाब के किनारे हिरण के बच्चों के संग अठखेलियां कर रही थी कि उसी समय उसकी नजर सामने खड़े एक युवक पर पड़ी। जाने कितने समय बाद फ्योंली को कोई अपना जैसा दिखा था। फ्योंली उसे जी- भर देखना चाहती थी, लेकिन सामने वाला भी जाने कब से उसे ही अपलक देखे जा रहा था। उसे नजर झुकानी पड़ी। युवक एक राजकुमार था। शिकार खेलने वन में आया था, लेकिन रास्ता भूलने के कारण भटकते-भटकते थका-हारा, भूखा-प्यासा उस तालाब के पास आ पहुंचा। खैर ! फ्योंली जैसी अपूर्व सुंदरी को देख राजकुमार अपनी भूख-प्यास सब भूल गया।
उसने फ्योंली से कहा – तुम कौन हो और इस जंगल में क्या कर रही हो?
उसके प्रश्न का उत्तर देने के बजाय फ्योंली ने उससे ही प्रश्न पूछ लिया -तुम कौन हो और इस जंगल में क्या कर रहे हो ?
राजकुमार ने कहा- मैं एक राजकुमार हूं। आखेट करने इस वन में आया था और रास्ता भूल गया। शाम हो गई है, घर लौटना मुश्किल है । क्या मुझे तुम्हारी कुटिया में शरण मिल सकती है ?
मन में संकोच रखते हुए भी फ्योंली ने राजकुमार को शरण दे दी और खुद कुटिया के बाहर खड़ी हो गई। कुटिया में विश्राम करते हुए राजकुमार ने देखा कि जंगल के सारे जानवर फ्योंली के पास चले आ रहे हैं। किसी इंसान के प्रति जानवरों का ऐसा प्रेमभाव देखकर राजकुमार चकित हो गया। फ्योंली ने कहा – यह सब मेरे भाई-बहन हैं। हर शाम इसी तरह मुझसे मिलने आते हैं। फ्योंली के मेहमान के लिए हर कोई कुछ न कुछ लाया था। जानवरों के लाये फल-फूल राजकुमार और फ्योंली ने मिलकर खाए।
राजकुमार ने कहा- “फ्योंली तुम बहुत भाग्यशाली हो। तुम्हारा जंगल और जंगल के सारे जानवर बहुत अच्छे हैं। काश मैं भी तुम्हारे साम्राज्य का हिस्सा हो सकता”।
सुबह उठकर राजकुमार ने फ्योंली के समक्ष शादी का प्रस्ताव रख दिया ।
“मैं अपना वन छोड़कर कहीं नहीं जा सकती। मेरे भाई- बहन मुझे अपनी जान से भी प्यारे हैं। मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती” – फ्योंली ने तड़प कर मना कर दिया । राजकुमार ने कहा – “इस तरह कब तक जंगल में रह सकोगी ? एक न एक दिन तो तुम्हें अपने जात-समाज की जरूरत पड़ेगी ही। तुम मुझसे शादी कर लो फ्योंली ! मैं तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं होने दूंगा”।
फ्योंली ने भी सोचा शायद राजकुमार ठीक कह रहा है। लेकिन उसने राजकुमार से एक वादा लिया कि वह उसके गृहवन में कभी किसी जानवर का शिकार ना करें। राजकुमार के हां कहने पर इस तरह वह विवाह बंधन में बंधने को राजी हो गई। जानवरों को जब फ्योंली के जाने की बात पता चली तो वे सब बहुत दुखी हो गये। भारी मन से उन्होंने अपनी प्यारी फ्योंली को विदा किया। इधर राजमहल में फ्योंली का बहुत स्वागत हुआ। उस जैसी अपूर्व सुंदरी किसी ने कभी देखी कब थी ! राजकुमार फ्योंली को पाकर बहुत खुश था। लेकिन वनकन्या फ्योंली को रह-रहकर जंगल और अपने पशु- पक्षियों की याद सताती रहती। उनकी याद में घुलती फ्योंली धीरे-धीरे कमजोर,पीली पड़ने लगी। एक दिन उसने राजकुमार को बुलाकर कहा – अब मेरा अंत समय आ गया है। तुम मेरी एक इच्छा पूरी कर दोगे ?
राजकुमार ने कहा- ऐसा ना कहो । तुम जल्दी ठीक हो जाओगी।
फ्योंली ने कहा – जब मैं मर जाऊं तो मेरी चिता की राख जंगल में फिंकवा देना।
और फ्योंली सचमुच इस दुनिया से बहुत दूर निकल गई। उसकी अंतिम इच्छा के अनुसार राजकुमार ने उसकी चिता की राख जंगल और पहाड़ियों पर जगह-जगह बिखेर दी। कहते हैं कि जहां-जहां वह राख पड़ी वहां-वहां पीले रंग के छोटे-छोटे फूल खिल गये।
पहाड़ के लोग फ्योंली को खूब पहचानते हैं। लेकिन मैदानी भाग वालों के लिए मधुमती फिल्म यदि रंगीन होती तो मैं बताती कि “आजा रे परदेसी ” गीत के आखिर में एक दूसरे को चकित हो देखते वैजयंती माला और दिलीप कुमार के दिल खिल जाने के प्रतीक रूप में जो फूल खिलता हुआ दिखाया गया है, वही फ्योंली है ।
पीले रंग का यह फूल निस्वार्थ प्रेम का प्रतीक है। प्रकृति से बिछोह ने भले ही फ्योंली की जान ले ली,मगर उसकी राख फूल बनकर फिर अपनों के बीच उग आई। उसकी नन्हीं पीली पंखुड़ियों को कुदरत ने जख़्म जल्दी भर देने की दवा हो जाने वरदान दे दिया। दर्द जैसे पल में हवा हो जाएं फ्योंली के फूलों के लेप से। पक्षाघात होने पर पहाड़ के जानकार लोग फ्योंली के फूलों की शरण लेते हैं।
किसी भी दर्दमंद के प्रति यह गुणकारी औषधीय आचरण ही इस सुगंधरहित फूल के मर्म की असली ख़ुशबू है। राख के ढेर से फ्योंली के ओस धुले सौंदर्य प्रतिमान समान पीला पुष्प खिल जाने जैसी दिल छू जाने वाले किस्सों में जंगल के आगे सजावटी फूलों का कोई बाजार कहीं नहीं ठहरता।
आज रोज डे पर गुलाब की शोखियां जितनी चाहे उतनी छलांग लगा लें मगर सादगी की कीमत पर फ्योंली से अनमोल कोई फूल नहीं।
प्रतिभा नैथानी
देहरादून, उत्तराखंड