खोए अर्थ
ओ व्याकुल मन!
चल ढ़ूंढते है,
कबाड़ी के कोने से,
वो रद्दी की गठरी,
चल उड़ाते हैं
गठरी पर जमे ,
यादों की धूल,
उधेड़ते हैं गांठो को,
शायद इसी में हो,,
दीमक की चखी पुरानी,
मटमैली पन्नों वाली डायरी ,
ओ व्याकुल मन!
चल ढ़ूढते हैं,
कुछ लिखे ,
कुछ कोरे कागज,
सूखी गुलाब की पंखुड़ियां,
ओ व्याकुल मन!
चल ढ़ूढते हैं,
जमे हुए अश्रु के मोती,
धुले हुए शब्द,
और भीगें हुए अंतस,
ओ व्याकुल मन चल ढ़ूढ़ते हैं,
सूखी बेरंग हुई,
गुलाब की पंखुड़ियों के,
अश्रु धूलित शब्दों के,
कुछ लिखे,
कुछ कोरे सिलवटों के ,
खोए अर्थ!
खोए अर्थ!!!!
कुमुद “अनुन्जया “
दिल्ली