गुलाब
तुम्हें तो पता भी नहीं होगा कि
मेरे जीवन का पहला गुलाब
जो तुमने दिया था
अपने पहले प्रेमपत्र में लपेटकर मुझे
उसे अबतक संभाल रखा है मैंने
प्रेमपत्र के अक्षर धुंधला गए हैं
कागज़ में जगह-जगह उभर आए हैं
भूरे, चितकबरे धब्बे
और लाल गुलाब की पंखुड़ियां
सूखकर काली पड़ गई हैं
मैं आभारी हूं इस सूखे गुलाब का
इसकी खुशबू आज भी भरी है सांसों में
इसकी पंखुड़ियों ने घेर रखा है
मेरे भीतर का एक बड़ा हिस्सा
तुम्हारी स्मृतियों के साथ हर दिन
तब्दील हो जाया करता हूं मैं
गुलाब की घनी, खुशबूदार क्यारियों में
आज जब तुम बहुत दूर हो
और तुम्हें गुलाब देने का
कोई अवसर नहीं है मेरे पास
मेरे भीतर के कभी न सूखने वाले
इस अदृश्य गुलाब की गंध
पहुंच तो जाएगी न तुम्हारे पास ?
ध्रुव गुप्त
वरिष्ठ साहित्यकार और सेवानिवृत्त पुलिस अधीक्षक
पटना, बिहार