रिश्ते हुए तार तार

रिश्ते हुए तार तार

नताशा का रो -रोकर बुरा हाल था उस पर दोहरी मार पड़ी थी। एक तो कोरोना की चपेट में आकर उसके पति का स्वर्गवास हो गया था दूसरे उसके बेटे शलभ ने अपने पिता का शव लेने और उनका अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया था। वह ऐसा करके अपनी जान जोखिम में डालने को तैयार नहीं था जबकि प्रशासन उसे पी.पी.ई., दस्ताने और मास्क सब उपलब्ध करा रहा था। अपने पुत्र द्वारा पिता का अंतिम संस्कार ना करना नताशा को खाये जा रहा था। शलभ को समझाते समझाते उसकी जीभ भी दुःख गई थी पर वह टस से मस नहीं हुआ‌ था। इसी तरह दो दिन निकल गए। नताशा ने अपने मुंह में अन्न का एक दाना तक नहीं डाला था। रो रोकर उसके आंसू भी सूख गए थे।

नताशा चुपचाप बैठी सोच रही थी कि उसके पति को एक पुत्र की बहुत लालसा थी ।उसके लिए उन्होंने अनेक व्रत रखे, दर-दर भटके, कितनी मनौती मांगी तब जाकर उनके घर में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। वो उसकी हर फरमाइश पूरी करके खुश होते थे। ज़रा सा उसे कुछ हो जाता था तो घबरा जाते थे। बीमार होने पर वह तो खुद मां थी इसलिए उसके साथ रात को जागती थी पर उसके पति भी ऑफिस से थके हारे आने के बावजूद भी बिना पलक झपकाये उसके पास ही बैठे रहते थे। उन्होंने शलभ की पढ़ाई लिखाई में भी कभी पैसों की कोई कमी आड़े नहीं आने दी थी। वो ऑफिस के साथ-साथ ओवरटाइम भी करने लगे थे। वो हर वक्त यही कहा करते थे कि यह मेरे घर का चिराग है और यही है जो मुझे मुक्ति दिलाएगा ।बेटे के साथ रहने की चाह ही उन्हें अपना निवास छोड़कर बेटे के पास इंदौर ले आई थी। अपनी सारी जमा पूंजी बेटे के मकान को बनाने में उन्होंने लगा दी थी, बस खुद पेंशन से काम चला लेते थे। नताशा अभी यह सब सोच ही रही थी कि शलभ ने आकर उसे झिंझोड़ा तो वह वर्तमान में आ गई ।शलभ ने चैन की सांस लेते हुए उसे बताया कि प्रशासन ही उसके पिता के अंतिम संस्कार के लिए तैयार हो गया है। अभी वहां से फोन आया था वह पिताजी को लेकर श्मशान घाट जा रहे हैं, ऐसा सुनते ही नताशा बिलख पड़ी और बोली मैं उनका अंतिम संस्कार लावारिस की तरह नहीं होने दूंगी। उन्हें मुक्ति मिले या ना मिले पर यह काम अब मैं खुद करूंगी। अपनी मां की बात सुनकर शलभ अवाक रह गया। नताशा बोली और हां तुझे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब मैं लौटकर यहां नहीं आऊंगी किसी क्वारंटीन सैंटर में ही चली जाऊंगी, और यह समझ ले आज से तेरी मां भी मर गई है, मैं अपने अंतिम संस्कार का ज़िम्मा भी प्रशासन को ही सौंप कर जाऊंगी। साथ ही अपने निवास को अभी क्वार्ंटीन सैंटर के लिए और बाद में धर्मशाला के रूप में दान कर दूंगी और ऐसा कहकर वो बिना प्रतिक्रिया जाने तेज़ी से श्मशान घाट की ओर चल दी।

वन्दना भटनागर
साहित्यकार
मुज़फ्फरनगर

0
0 0 votes
Article Rating
325 Comments
Inline Feedbacks
View all comments