ऋचा वर्मा की कविताएं
१.इस बार का बसंत
इस बार के बसंत में खिले पलाश ने,
बिल्कुल नहीं लुभाया हमें
ये पलाश के फूल लगते हैं छींटे से रक्त के,
पत्रविहिन पलाश के गाछ,
मानो देहविहिन बहते लहू,
न है इंतजार अमलतास के पीले फूलों का,
जो चमका करतें हैं सोने की तरह,
आजकल भय से पीले पड़े चेहरे,
याद दिलाते हैं अमलतास के,
कहते हैं बढ़ती गर्मी के साथ बढ़ता है पीलापन अमलतास का,
जैसे बढ़ते भय के साथ
बढ़ता है पीलापन चेहरे का,
प्राणहीन होने की हद तक,
क्या हो गया,
गांधी, नेल्सन मंडेला और ओबामा की बात करते-करते,
क्यों याद आ रहे हिटलर,लादेन और ओसामा,
तानाशाह और सम्राज्यवाद के विस्तार की लालसा,
धूल में मिला रही वैश्वीकरण की अवधारणा को,
थमो तालिबान,रूको रशिया,
सुनो सिसकियां जो निकलती हैं
हिजाब के पीछे से,
सुनो रूदन उस युक्रेनी पत्नी का,
जिसका पति बाध्य है शस्त्र उठाने को,
शांति से जी रही इस दुनिया में,
कुछ करना है तो पैदा करो रोजगार ,
थोड़ी खुशियां, अच्छी शिक्षा,
यह भी एक तरीका है साम्राज्य विस्तार का,
ऐसे भी याद करेगी दुनिया तुम्हें ता क़यामत।
२.वह क्षण
महिलाएं पुरुषों से अलग हैं,
यह बात तो समझ में आती है,
पर वह कौन सा क्षण होगा,
जब यह निर्धारित किया गया होगा,
कि महिलाएं पुरुषों से कमतर हैं,
इतनी कमतर कि ,
उन्हें पालतू कुत्ते और पालतू बिल्लियां
भी हेय दृष्टि से देखें,
वह कौन सा क्षण होगा,
जब बताया गया होगा कि,
महावारी एक ऐसी प्रक्रिया है,
जिसके विषय में बात तक करना होगा वर्जित,
कि उस प्रक्रिया के समय एक महिला
इतनी निकृष्ट हो जाती है कि
उसकी छाया तक हो अवांछित,
और पुरुष सरेआम कर सकतें हैं
मूत्र त्याग किसी भी गली के किसी भी दीवार पर,
जहां से गुजरती महिलाओं को करनें पड़तें है,
आंख और नाक दोनों बंद,
क्योंकि वह दृश्य सचमुच होता है अवांछित,
और छोड़ जाता है एक दीर्घकालिक दुर्गंध ,
जाने वह कौन सा क्षण होगा,
जब बताया गया होगा कि
अगर किसी को सताना हो तो,
उसकी, वहां की या उस महिला को,
सरेआम छेड़ो, उसके उन अंगों को सरेआम टटोलो,
जिसके बिना तुम इस सृष्टि की कल्पना तक नहीं कर सकते,
जिसके सहारे पोषण लेता है एक नवजात
और पुरुष जिसकी इस सृष्टि को बनाए रखने की भागीदारी,
कम से कम उसकी महिला संगिनी की तुलना में,
आधी से भी कम होती है,
अपने उन अंगों को हथियार बना,
प्रदर्शित करता है बड़े शान से,
हाँ इसके पहले वह अपनी माँ-बहनों,
को अवश्य हिदायत देता होगा,
पर्दे में रहने की,
क्योंकि किसी क्षण में उसी पुरूष समाज के आदिपुरूष ने,
बताया होगा कि लज्जा केवल औरतों को ही आनी चाहिए ,
काश कि सारे नियम पुरुष और स्त्री दोनों के लिए एक होते,
तो या तो स्त्री को वस्त्रहीन देखने से पहले
एक पुरुष की आंखें गड़ जातीं शर्म से,
या फिर दस्तुर होता कि महिलाएं परेड निकालती,
किसी पुरुष का ठीक वैसे ही जैसे निकाला गया परेड
दो महिलाओं का प्रकृति के दुलारे मणिपुर में।
ऋचा वर्मा
पटना, भारत
बहुत बढ़िया रचनाएं
धन्यवाद सीमा जी 💗