संवैधानिक उपचारों की छत्रछाया में भारतीय महिलाएं

संवैधानिक उपचारों की छत्रछाया में भारतीय महिलाएं

26 जनवरी, 2021 को देश का 72 वां गणतंत्र दिवस हमने मनाया। वैश्विक महामारी के तहत बदले हुए परिवेश में इस राष्ट्रीय गौरव दिवस को हम सभी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से मूल्यांकित किया, ह्रदय में राष्ट्र के प्रति स्थित अपने -अपने श्रद्धा के भाव के अनुपात में व्यवहार प्रदर्शित किया। कोई भी कार्य कालदंड से परे हो ही नहीं सकता। अत: 26 जनवरी, 2021 तक की भारतीय गणतंत्र की काल यात्रा को वर्तमान की नजरें देख- परख रही है, आने वाला भविष्य भी इतिहास के पलड़ों में इसे बिठाकर इसकी तौल करेगा।

भारतीय गणतंत्र की इस लंबी यात्रा को अनेक आयामों में समझा जा सकता है। एक आयाम स्त्री विमर्श के संदर्भ में।विवेकानंद जी ने कहा था,”तुम स्त्रियों को शिक्षित कर दो, बाकी वे अपनी सारी समस्याएँ सुलझा लेंगीं।”बहुत अंश में सत्य भी है यह।भारतीय संविधान लिंग भेद से ऊपर उठकर शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में महिलाओं तक भी प्राप्य बनाता है। 86 वा संशोधन, 2002 के द्वारा 6 से 14 आयु वर्ग की सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान किया गया और करीब उसके 8 साल बाद 1 अप्रैल, 2010 को यह आरटीआई अधिनियम लागू हुआ। वर्तमान सरकार के द्वारा बालिका शिक्षा के प्रोत्साहन के क्षेत्र में कस्तूरबा गाँधी बाल विद्यालय ,बच्चियों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान ,सुकन्या समृद्धि योजना को प्रयोग में लाया गया है, वहीं नई शिक्षा नीति में ‘जेंडर समावेशी कोष’ की स्थापना एक नया और क्रांतिकारी कदम है।यह जेंडर समावेशी कोष राज्यों के लिए उपलब्ध करवाया जाएगा जिससे उनको ऐसी नीतियों, योजनाओं , कार्यक्रमों आदि को लागू करने में सहायता मिलेगी जिससे महिलाओं को विद्यालय परिसर में अधिक सुरक्षापूर्ण और स्वस्थ वातावरण मिल सके। जैसे – परिसर में महिलाओं के लिए शौचालय स्थापित करना, उन्हें स्वच्छता और सेनिटेशन से संबंधित अन्य सुविधाएँ प्रदान करना, स्कूल आने -जाने के लिए साइकिल देना, फीस इत्यादि न भर पाने की स्थिति में उनके अभिभावकों को सशर्त नगद हस्तांतरण करना ताकि गरीबी के कारण उन्हें स्कूल छोड़ने पर मजबूर न होना पड़े।यह भी ध्यान रखा जाएगा कि उच्चतर शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में लिंग संतुलन को बढ़ावा मिले। वही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ,2020 का एकेडमी क्रेडिट बैंक महिलाओं के लिए सर्वाधिक लाभप्रद है क्योंकि विवाह ,पारिवारिक आदि कारणों से उनकी गतिशीलता बहुत अधिक रहती है जिसके कारण शिक्षा के क्षेत्र में उनकी भागीदारी कम हो जाती है और इसको दूर करने की दिशा में यह बदलाव मील का पत्थर साबित हो सकता है।ऐसा प्रतीत होता है कि नई शिक्षा नीति, 2020 में प्रस्तावित अधिक छात्रवृत्तियाँ , महिला छात्रावासों का विस्तार ,अलग से जेंडर समावेशी फंड, क्रेडिट ट्रांसफर , अधिक सुरक्षित स्कूल एवं विश्वविद्यालय परिसर आदि अनेक कदम मिलकर बालिकाओं और महिलाओं को एक बड़ी संख्या में विद्यालयों तक लाने में कामयाब हो पाएँगे। पर क्या शिक्षा केवल अपनी बदौलत
गणतंत्र और राष्ट्रीय विकास की गाड़ी को खींच पायेगी? अगर शिक्षा वैचारिक संतुलन और मानसिक स्वास्थ्य की कसौटी पर खरी न उतरे तो समाज और देश के लिए चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है।

25 जनवरी 2021,समाचारों की प्राइम टाइम का समय था, मेरी उँगलियाँ टीवी के रिमोट पर थीं, अचानक एक चैनल पर जाकर उँगली रुक गई-समाचार में जो सुन रही थी, विश्वास नहीं हो पा रहा था उसपर,अविश्वसनीय था सब कुछ। मदनपिल्ली, चित्तूर, मद्रास का एक पढ़ा- लिखा परिवार, पढ़ा लिखा ही नहीं अत्यंत शिक्षित परिवार।पिता पुरुषोत्तम नायडू ,रसायन विषय के प्रोफेसर, एमफिल, पीएचडी डिग्रीधारी और माता पद्मजा नायडू,एमएससी,गणित में गोल्ड मेडलिस्ट, पूजा-पाठ और कर्मकांडों के नाम पर अपनी दो युवा क्रमशः 27 और 22 साल की प्रतिभावान पुत्रियों के माथे पर 24 जनवरी 2021 की रात को, जिस दिन पूरा राष्ट्र ‘राष्ट्रीय बालिका दिवस’ मना रहा था, जिम के ट्रम्बल से प्रहार कर उनकी बलि दे देते हैैं। अपनी प्रतिरक्षा के लिए दोनों युवतियों के मुख से होने वाली चित्कारों को सुन पड़ोसियों के द्वारा पुलिस को सूचित किए जाने के बाद गिरफ्तार हुए माता- पिता के माथे पर कोई शिकन तक नहीं थी। उनके अनुसार 25 जनवरी, 2021 की रात्रि में कलयुग का अंत हो जाना था और 26 की सुबह सतयुग का प्रारंभ और उनकी दोनों बेटियाँ फिर से जीवित हो जातीं।किसी धर्म गुरु के विशेष प्रभाव या कहें अधंप्रभाव में थे दोनों। अंधविश्वास अपने प्रचंड रूप में कितना विध्वंशक, कितना क्रूर और डरावना हो सकता है, यह घटना अपने आप में इस तथ्य का उदाहरण है। और यह अंधविश्वास किसी स्त्री के प्राणों पर भी कैसा संकट ला सकता है, इसका उदाहरण हम समाचारों में आए दिन डायन प्रथा के नाम पर प्रताड़ित और अमानवीय तरीकों से मार दी जाने वाली अंधविश्वास की मोहरा बनी स्त्रियों के रूप में देखते हैं। मैंने बतौर शिक्षिका झारखंड के आदिवासी बहुल गाँव के एक सरकारी विद्यालय के विद्यार्थियों में भी डायन जैसी कुप्रथा के अस्तित्व की स्वीकारोक्ति को विद्यमान पाया है। बच्चों से बातचीत के क्रम में माध्यमिक स्तर की कक्षाओं में भी मैंने इस विषय पर खासकर लड़कियों को बिल्कुल मौन धारण करते देखा है।इसके पीछे डर है, नकारात्मक आस्था है या और कुछ, पूर्णरूपेण समझ नहीं पाई।कानून के नाम पर ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम ,1999 ‘ लागू है ,जो संयुक्त बिहार का कानून था, जिसे 3 जुलाई ,2001 को झारखंड सरकार द्वारा भी अंगीकृत कर लिया गया है। NCRB के आँकड़े बताते हैं कि भारत में डायन प्रथा के नाम पर होने वाली हत्याओं में झारखंड का नाम सबसे ऊपर है ।2015 से 2020 ईस्वी तक देश भर में जहाँ इस कुप्रथा के नाम पर 656 हत्याएँ हुईं, उसमें 217 हत्याएँ केवल झारखंड राज्य में ही घटित हुईं। डायन प्रथा पर ‘डायन गाथा'(2009) किताब लिख चुके प्रोफेसर संजय बसु बताते हैं कि इस मामले में पुलिस के आँकड़े भी कम होते हैं। ऐसे कई मामले हैं जो उजागर ही नहीं हो पाते। इसके अलावा हाल यह भी है कि ऐसी घटनाओं को भारत सरकार के आँकड़ों में भी उचित जगह नहीं मिल पाती।चिंतकों का यह भी कहना है कि ग्रामीण इलाकों में इस तरह के अधिकांश घटनाएं सामूहिक सहमति से होती है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि ग्रामीण स्तर पर व बड़े पैमाने पर लोगों को जागरूक करें, ऐसी कोई घटना घटने पर इनकी जिम्मेदारी सुनिश्चित करें वरना तस्वीर बदलने वाली नहीं है।झारखंड में एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनीशिएटिव ( अली ) की स्टेट कोऑर्डिनेटर रेशमा का मानना है कि राज्य में विच हंटिंग के बढ़ते आँकड़ों के पीछे पुलिस और प्रशासन की लापरवाही और समाज की असंवेदनशीलता जिम्मेदार है।कहीं न कहीं समाज में वह डर खत्म हो गया है जो हमें सही -गलत का फर्क बताता है।रोकथाम के लिए सरकारी जागरूकता अभियान नुक्कड़ नाटकों तक ही सीमित है जो गाँव तक पहुँच ही नहीं पाता। मैंने अपने विद्यालय और विद्यालय से इतर आदिवासी समाज से जुड़े लोगों से जब डायन प्रथा के संदर्भ में चेतना फैलाने वाले नुक्कड़ नाटकों की बात की, तो जवाब न में ही मिला।झारखंड राज्य में इसके नाम पर औसतन हर माह एक से दो महिलाओं की हत्या होती है।डायन प्रथा उन्मूलन को लेकर लंबे समय से कार्यक्रम चला रही गैर सरकारी संस्था आशा के सचिव अजय कुमार जयसवाल का दावा है कि 1992 से लेकरअब तक 1800 महिलाओं को सिर्फ डायन, जादू- टोना, चुड़ैल होने और ओझा के इशारे पर मारा गया है। संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 51 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हमारा दायित्व है कि हम हमारी संस्कृति की गौरवशाली परंपरा के महत्व को समझें तथा ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो कि स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हो। लेकिन कानून की छत यहाँ जीर्ण – शीर्ण दिखाई देती है, सशक्त कदम समाज में जागरूकता फैलाकर इस प्रथा की जड़ पर ही चोट कर उठाया जा सकता है।

महिलाओं के संदर्भ में एक दूसरी प्रमुख समस्या जो प्रांत क्या, राष्ट्रीयता -अंतर्राष्ट्रीयता की सीमाओं के परे वैश्विक समस्या है,उनके साथ होने वाली घरेलू हिंसा है। भारत के संदर्भ में इसके लिए पितृसत्तात्मक समाज का प्रभावी होना, शिक्षा एवं आर्थिक स्वालंबन का अभाव, परिवार को बचाए रखने की चाह में अनुचित व्यवहारों के प्रति चुप्पी,स्वयं नारी का पितृसत्तात्मक समाज की कुरीतियों को महिमामंडित करना एवं भावनात्मक झुकाव के कारण प्रतिकार का अभाव आदि अनेक कारण इसके लिए जिम्मेदार हैं। घरेलू हिंसा से महिलाओं के बचाव के लिए ‘डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट, 2005′ पारित किया गया, जिसमें विभिन्न प्रावधान हैं। कुछ प्रावधानों के तहत शादीशुदा या अविवाहित स्त्रियाँ अपने साथ हो रहे अन्याय व प्रताड़ना को घरेलू हिंसा कानून के अंतर्गत दर्ज करा कर उसी घर में रहने का अधिकार पा सकती हैं जिसमें वे रह रही हैं ।खुद पर हो रहे अत्याचार के लिए सीधे न्यायालय से गुहार लगा सकती हैं ।इसके लिए वकील को लेकर जाना जरूरी नहीं है। घरेलू हिंसा का एक प्रमुख कारण दहेज भी रहा है, इसका प्रतिकार करने के लिए 1961 ईस्वी में’ दहेज निषेध अधिनियम ‘पारित किया गया। 1984 और 1986 में इसे संशोधित भी किया गया। संशोधन अधिनियम के द्वारा दहेज लेने और देने या दहेज लेने और देने के लिए उकसाने पर सजा को बढ़ाकर न्यूनतम 6 महीने और अधिकतम 10 साल की कैद की सजा तय कर दी गई। वहीं जुर्माने की रकम को ₹10000 या ली गई , दी गई या माँगी गई दहेज की रकम दोनों में से जो भी अधिक हो के बराबर कर दिया गया है।2009 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस अधिनियम में कुछ परिवर्तन प्रस्तावित किए थे ।इन सिफारिशों पर एक अंतर मंत्रालय बैठक में विचार – विमर्श किया गया और विधि एवं न्याय मंत्रालय के परामर्श से ‘दहेज निषेध संशोधन विधेयक, 2010’ की रूपरेखा तैयार की गई है।इसमें एक सुझाव यह भी है कि दहेज देने के लिए कम सजा और दहेज लेने के लिए अधिक दंड की व्यवस्था की जाए क्योंकि अक्सर लड़की के माता-पिता अपनी मर्जी के खिलाफ दहेज देने के लिए मजबूर किए जाते हैं और उनके लिए भी अगर समान दंड की व्यवस्था की जाए तो लड़की वाले को शिकायत करने के लिए हतोत्साहित होने की स्थिति उत्पन्न होती रहेगी। दहेज की कानूनी परिभाषा में मेहर (मुस्लिम विधि) शामिल नहीं है। अनेक कानूनी प्रावधानों के बावजूद दहेज देना और दहेज लेना भारतीय विवाह में परंपराओं के एक आवश्यक अंग के रूप में परिणत हो गया है, इसे नैतिकता से जोड़कर तो देखा ही नहीं जाता, कानून की बात कौन कहे। हँलाकि वर्तमान समय में बदलती हुई सामाजिक व्यवस्था में बढ़ते हुआ प्रेम विवाहों ने दहेज के मुद्दे को बहुत हद तक गौण भी कर दिया है। दहेज का मुद्दा कानून के समक्ष तभी प्रश्नचिन्ह बनकर खड़ा होता है जब वैवाहिक रिश्तो में असंतुलन पैदा होता है, परंतु यह भी सत्य है कि एक ओर जहाँ लड़की वालों के द्वारा इस कानून के दुरुपयोग के उदाहरण भी देखने को मिलते हैं, तो दूसरी ओर दहेज के नाम पर महिलाओं की जली हुई लाशें भी।सच फिर वहीं आकर खड़ा हो जाता है, जहाँ कानून दूसरे पायदान परऔर समाज की नैतिकता और व्यवस्था की जिम्मेदारियाँ पहले पायदान पर।

विश्व का कोई भी हिस्सा हो, महिलाएँ छेड़छाड़ और शारीरिक उत्पीड़न और शोषण की समस्या से बच नहीं पातीं। महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा और शारीरिक सम्मान भारतीय समाज की एक बहुत बड़ी चिंता है। वैसे तो संविधान ने महिला के शारीरिक और मानसिक सम्मान की रक्षा हेतु कानून का आवरण प्रदान किया था परंतु इसके बावजूद जो आँकड़े आते हैं ,वो चौंकाने वाले हैं।2001 से 2017 तक की समयावधि में बलात्कार की घटनाओं में 103% की वृद्धि दर्ज की गई है और इस पूरी समयावधि में हुई बलात्कार की घटनाओं को (4,15,786) देखें तो प्रतिदिन औसतन 67 महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया गया और पीड़ा देने वाले 94% परिचित थे। 2018 में औसतन हर रोज 91 महिलाओं ने बलात्कार की शिकायत दर्ज कराई और 2019 में इन घटनाओं में 7.3% की वृद्धि दर्ज की गई है।जहाँ भारतीय दंड संहिता की धारा 294 के अंतर्गत सार्वजनिक स्थान पर बुरी – बुरी गालियाँ देना एवं अश्लील गाने गाना जो की सुनने पर बुरे लगें, दंडनीय है; जहाँ भारतीय दंड संहिता के अनुसार, बलात्कार करने के आशय से किए गए हमले से बचाव हेतु हमलावर की मृत्यु तक कर देने का अधिकार महिला को है, इतने कठोर कानून की उपस्थिति के बावजूद;जहाँ महिला के शारीरिक स्पर्श की स्वतंत्रता हनन के लिए पति को भी कटघरे में खड़े करने का कानून है;-इन सबों की उपस्थिति में उपरोक्त आँकड़े प्रश्नचिन्ह बनकर खड़े हो जाते हैं। मतलब महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान कानून के हाथों से ज्यादा समाज के हाथों में दृष्टिगत होता है। आवश्यकता है पुरुषों को संस्कारित करने की, महिला शरीर के प्रति स्वस्थ सोच पैदा करने की। 16 दिसंबर, 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में बेरहम निर्भया कांड के बाद कानून में बड़े बदलाव किए गए। लैंगिक उत्पीड़न से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम 2012 ( pocso) लाया गया, जिसके अधीन ही आसाराम बापू, राम रहीम जैसे धर्म गुरुओं को भी सजा सुनाई गई।फास्ट ट्रैक कोर्ट के द्वारा सुनवाई का प्रावधान किया गया।3फरवरी ,2013 को क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस लाकर आईपीसी की धारा 181 और 183 में बदलाव कर बलात्कार से जुड़े नियमों को कड़ा किया गया और रेप करने वाले को फाँसी की सजा भी मिल सके, ऐसा प्रावधान किया गया।22 दिसंबर, 2015 में राज्यसभा में ‘जुवेनाइल जस्टिस बिल’ भी पास हुआ जिसके तहत प्रावधान किया गया कि 16 साल या उससे अधिक उम्र के किशोर को जघन्य अपराध करने में कोई छूट न दी जाए बल्कि उसे व्यस्क मानकर मुकदमा चलाया जाए। दुष्कर्मों से जुड़ा एक सत्य यह भी है कि जहाँ लोक -लाज, सामाजिक- आर्थिक -राजनीतिक दबाव, टूट चुकी मन: स्थिति, असंवेदनशील प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था के कारण कई घटनाएँ तो कानून की नजर में ही नहीं आ पाती, तो दूसरी ओर इस कानून का दुरुपयोग पुरुषों के विरुद्ध करने की गुंजाइश भी बनी रहती है। सत्य यह भी कि बहुत दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए कुलदीप सिंह सेंगर जैसे बाहुबलियों से लड़ने के लिए। साथ ही, बच्चियों को आत्मरक्षा हेतु कराटे जैसी तकनीक, उनके आत्मविश्वास को दृढ़ता देने हेतु अनिवार्य शिक्षा के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर लागू कर दी जाए।

लैंगिक भेदभाव के विरोध में 11, अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार( संशोधन ) अधिनियम 2020 की पुनर्व्याख्या करते हुए हिंदू महिला को पैतृक संपत्ति में संयुक्त उत्तराधिकारी होने का अधिकार जन्म से प्रदान किया। यह निर्णय संयुक्त हिंदू परिवारों के साथ-साथ बौद्ध, जैन ,आर्य समाज और ब्रह्म समाज से संबंधित समुदायों पर भी लागू होगा। हाँलाकि भारतीय परंपरा में पली-बढ़ी महिलाएँ प्राय: अपने संस्कारों और भावनात्मक लगाव के कारण अपने भाइयों से संपत्ति की माँग नहीं करतीं।

महिलाओं के सशक्तिकरण के पक्ष में यह भी तर्क दिया जाता है कि महिलाओं की भागीदारी राजनीति के क्षेत्र में अधिकाधिक होनी चाहिए।भारत में काफी समय से महिलाओं की भूमिका को संसद -विधानसभा में निश्चित करने हेतु 33% आरक्षण की बात की जाती रही है परंतु इसे कभी भी लागू नहीं किया गया है ।यह केवल अखबारों की हेडलाइंस के रूप में ही रह गई है। महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन (108 वां) राज्यसभा में तो पारित हो गया परंतु लोकसभा में पारित न हो सका और 2014 में लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक भी रद्द हो गया।1993 में 73 वां एवं 74वां संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा पंचायत एवं नगर पालिकाओं में महिला प्रतिनिधियों के लिए सीट को 33% तक आरक्षित किया गया। कुछ राज्यों में तो यह 50% तक भी है। 2019 को बनी संसद में कुल 78 महिलाएँ चुनी गई है जो कि 14.36% है, जबकि देश की आबादी में उनका हिस्सा लगभग आधा (48%) है। यूँ तो स्वतंत्रता संग्राम से लेकर राष्ट्रपति -प्रधानमंत्री के पद तक महिलाएँ सक्रिय राजनीति में रही हैं परंतु यदि हम संसद और विधानसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को निश्चित करते हैं तो निश्चय ही यह महिला सशक्तिकरण के रूप में एक महत्वपूर्ण पहल होगी। लेकिन आरक्षण इसका कितना सार्थक हल है ,यह विचारणीय है। क्योंकि पंचायतों में मुखिया पति का वर्चस्व, महिला मुखिया के निर्णयों में उसके परिवार का हावी होना और महिला मुखिया की रबड़ स्टांप की भूमिका-इसका स्याह पक्ष भी है। पहले से ही प्रतिभा पर आरक्षण की मार झेल रहे देश को एक और गुणात्मक ह्रास का मंच न मिल जाए।

ये तो बस कुछ उदाहरण हैं संवैधानिक रक्षोपाय के, इनके अलावा भी भारत में महिलाओं को सशक्त करने की दिशा में अनेक संवैधानिक और वैधानिक महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं।महिलाओं की दशा सुधारने हेतु भारत सरकार द्वारा सन 1985 में ‘महिला एवं बाल विकास विभाग’ की स्थापना की गई। 1992 में ‘राष्ट्रीय महिला आयोग ‘की स्थापना की गई तथा देश में ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जाने लगा। भारत सरकार द्वारा वर्ष 2001 को ‘महिला सशक्तिकरण वर्ष’ भी घोषित किया गया।नानविध संवैधानिक अधिकारों की घोषणा के बावजूद महिलाओं पर अत्याचार होना सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है। इसका अभिप्राय है कि या तो महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है या व्यवस्था ने संवैधानिक अधिकारों के होने के उपरांत भी उन्हें इस प्रकार लागू करने में प्रमाद का प्रदर्शन किया है कि वह महिलाओं के लिए व्यवहारिक रूप में एक सुरक्षा कवच नहीं बन पाए हैं। अपने देश में ही नहीं विश्व स्तर पर भी महिलाओं की स्थिति सोचनीय हैं।अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ , संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और विश्व स्वास्थ्य संगठन तीनों ने मिलकर 135 देशों की महिलाओं और पुरुषों के भेदभाव पर एक रिसर्च कर’ ग्लोबल जेंडर गैप’ नाम की एक रिपोर्ट बनाई है जिसमें बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं में काफी तरक्की देखी गई है। स्वास्थ्य के लिहाज से महिलाओं और पुरुषों में अंतर 96% खत्म हो गया है, वहीं शिक्षा के क्षेत्र में अंतर 93% खत्म हुआ है ।लेकिन आर्थिक योगदान में केवल 15% का ही अंतर खत्म हो पाया है । राजनैतिक अधिकारों के लिहाज से नतीजे बेहद निराशाजनक है, इनमें केवल 18% का अंतर खत्म हो पाया है।

आइए देश- दुनिया की आधी आबादी को उनका यथोचित अधिकार और सम्मान दें। संविधान और कानून जनमानस के सद इच्छाओं और सत्प्रयासों के बगैर व्यवहारिक रूप धारण नहीं कर सकते।आधुनिक भारत के संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने भी कहा था-“संविधान की प्रकृति इसके कार्य प्रणाली पर निर्भर करेंगी। देश का कल्याण इस पर निर्भर करेगा कि इसे कैसे प्रशासित किया जाएगा।अगर संचालन करने वाले योग्य, निष्ठावान, चरित्रवान हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी लागू कर पाऍंगे ।इसका जीवन तो इसका संचालन करने वाले लोगों पर ही निर्भर करता है। भारत को ऐसे ईमानदार लोगों के अलावा और कुछ नहीं चाहिए जिसके आगे पहले देश का हित हो।”महिलाओं के हित रक्षा हेतु आज आवश्यकता जरूरत से ज्यादा कानूनों के थोड़े से पालन की नहीं, बल्कि थोड़े से कानून के अच्छी तरह पालन करने की है। नहीं तो नारियों के हित रक्षा हेतु उनके भ्रूण रूप से लेकर वृद्ध हो चुकी माता तक के सुरक्षित जीवन के लिए बना दिए गए बहुतायत संख्या में कानूनों के बावजूद आज भी नारी की स्थिति चिंतनीय क्यों हैं? सचमुच विचारणीय है यह।


रीता रानी

जमशेदपुर, झारखंड

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