हम सुंदर दिखते हैं

हम सुंदर दिखते हैं

ट्रिन ट्रिन ट्रिन…
मेरी सुबह की शुरुआत ऐसी होती है। सुबह साढ़े छह बजे उठो, गैस पर चाय का पानी चढ़ाओ, उसके खौलने का इंतजार करो। परात में आटा निकालो, उसमें नमक मिलाओ और पानी डालो। फिर उसको धीरे-धीरे गूंथ डालो। चाय का पानी भभक रहा है। चाय की पत्ती डालो। दूध मिलाओ। चीनी मिलाओ। गैस की नॉब कम करो। फिर ज्यादा करो। तीन खौल के बाद कम करो। फिर तीन स्टील के ग्लास में डालो। अम्मा, बाबू और भैया। नहीं, मैं चाय नहीं पीती।

अब तक अम्मा रसोई के कोने में आ गई हैं। उनकी एक नजर ने देख लिया कि थोड़ी चाय छलक गई है। थोड़ा-सा आटा भी परात से बाहर गिर गया है। फिर भी वह कुछ नहीं कहती। उनके कमर और हाथों में खूब दर्द रहता है। उंगलियाँ नहीं मुडती। फिर वह कुछ उठा नहीं सकती । कुछ कर नहीं सकती | कुछ भी नहीं | वह मुझे कुछ नहीं कहती | बस गरम तेल मलती रहती है मेथी के दाने डालकर।

मैं नमक लगी हुई रोटी बनाने लगती हूँ। चाय के साथ दो रोटियाँ बाबू, तीन रोटियाँ भैया एक रोटी अम्मा और एक रोटी मैं। सब चुपचाप रसोई में आते हैं। भैया रोटी की शक्ल देखकर मुँह बनाता है पर कुछ कहता नहीं। पिछली बार दसवीं में गणित में पास नहीं किया तो अब स्कूल से छुट्टी |

बाबू से बार-बार पैसे मांगता है, आइसक्रीम का ठेला लगाएगा। बाबू कुछ नहीं बोलता | पैसा है लेकिन शायद कुछ ज्यादा नहीं। माँ कभी कुछ नहीं बोलती।

मैं अब स्कूल नहीं जाती। दो साल से। तब मैं दस साल की थी। चौथी क्लास में। स्कूल भी ज्यादा दूर नहीं है। बस तीस मिनट। ज्योति, दुलारी, प्रिया हम सब इकट्ठे जाते थे। बतियाते हुए। बालों में चोटी । हाथों में बैग | नीली स्कर्ट और सफेद ब्लाउज माँ चोटी बना देती थी। तब। हंसते हुए जाते थे सब। स्कूल की छोटी सब बातें अम्मा को बताते थे। एक लाला चौकीदार था स्कूल में | उसकी आँखें हमेशा लाल रहती थी। काले घुंघराले बाल | गंदी कमीज | गंदी हाफ पैंट। एक दिन उसने मुझे छुआ | गंदे चौडे हाथ। मुझे नहीं पता चला। फिर एक बार और | फिर एक बार ।| गंदा लगा था। मैं दौडी बचते हुए। घुस गई थी भागती हुई घर में। अम्मा अंदर थी। कुछ नहीं बताया। बस गंदा गंदा लगा। वह स्पर्श कुछ अच्छा नहीं था। फिर स्कूल नहीं गई मैं। आज दो साल हो गए। अम्मा शायद समझ गई थी। गोदी में बिठाकर समझाया भी। लेकिन लाला चौकीदार तो स्कूल में था न। ज्योति, प्रेमा और दुलारी भी पिछले साल से स्कूल नहीं जाती।

आज अचानक एक दीदी आई थी शहर से | खुले लंबे बाल। पीला दुपट्टा । कंधे पर बड़ा सा बैग | उनके साथ मैडम ललिता थी। ललिता मैडम हमारे गाँव की मुखिया है। हर घर में पूछा। लडकी है? क्‍या स्कूल जाती है? दो साल से स्कूल क्‍यों नहीं गई? कारण बताना नहीं चाहती थी। फिर अम्मा भी पीछे खड़ी थी। “इन लड़कियन को कहीं भी चैन नहीं। कहाँ तक बचाते फिरें। एक दो साल और, फिर जाएं अपनी ससुराल |” अम्मा, हम भी हवा में उड़ना चाहती हैं, इन दीदी की तरह बनना चाहती हैं। दबे स्वर में बुदबुदाई। दीदी और ललिता मैडम शायद समझ गईं थी। चुप रहकर सहना गलत है, दीदी की बात ठीक तो थी लेकिन हिम्मत नहीं थी- न अम्मा को, न बाबू को। किसी के सामने कभी मुँह उठाकर बात ही नहीं की थी उन्होंने। उस लाला चौकीदार को स्कूल ने निकाल दिया है। प्रेमा और दुलारी को मैंने मना लिया है स्कूल जाने के लिए। हाँ, हम मौज से कह सकते हैं – हम सुन्दर दिखते हैं।

डॉ. अमिता प्रसाद
दिल्ली, भारत

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