भारतीय गणतंत्र का मूल्यांकन
कोविड से उपजी समस्याओं और दुश्चिंताओं के बीच देश गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारी में है।धर्मनिरपेक्ष ,समाजवादी और लोकतान्त्रिक गणराज्य भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था। इसी उपलक्ष्य में प्रत्येक वर्ष राष्ट्रपति द्वारा दिल्ली के राजपथ पर राष्ट्र-ध्वजारोहण किया जाता है।सभी भारतीय नागरिकों द्वारा यह दिवस बिना भेद-भाव के मनाया जाता है और हम सभी भारत के गणतंत्र होने का उत्सव करते हैं।वैसे तो भारत में गणतंत्र का इतिहास बहुत पुराना है,जहाँ वैशाली राज्य को कदाचित् विश्व के प्रथम गणतंत्र होने का गौरव प्राप्त है परन्तु,समय और परिस्थितियों के बदलाव के साथ 1947 की आजादी के बाद के भारत में संविधान के रूप में गणतंत्र स्थापना और समय-समय पर उसका मूल्यांकन भी आवश्यक है।
गणतंत्र, अंग्रेजी के रिपब्लिक (Republic)शब्द का हिंदी अनुवाद है,जो Latin भाषा के res publica का परिवर्तित रूप है और जिसका अर्थ होता है सार्वजनिक वस्तु, विषय, क्रिया-कलाप आदि। यह शब्द रोम के प्राचीन इतिहास में राज्य के संदर्भ में भी व्यवहार होता था। आधुनिक समय में यह उस शासन-व्यवस्था का बोध कराता है, जहाँ सरकार, जनता के द्वारा चुनी जाती है और कानून का शासन होता है। एक ऐसी व्यवस्था, जिसमें एक शासन-प्रधान होता है और वह वंशानुगत शासक नहीं होता,अपितु जनता द्वारा निर्वाचित होता है तथा उसके अधिकार विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में स्पष्ट रूप से बँटे होते हैं।गण का अर्थ है- लोगों का समूह और तंत्र का अर्थ है- व्यवस्था,प्रणाली अर्थात “गणतंत्र” का शाब्दिक अर्थ है-एक ऐसी शासन प्रणाली,जो सामूहिक रूप से चयनित व्यक्ति द्वारा संचालित हो, न कि वंशानुगत प्रधान माने जाने वाले किसी व्यक्ति द्वारा। हमारे देश में हम सबने मिलकर संविधान बनाया है और शासन की बागडोर हमारे द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चयनित राष्ट्रपति के हाथों में सौंपी है।
अक्सर लोग गणतंत्र और लोकतंत्र को एक समझ लेते हैं, जबकि दोनों में अंतर है। लोकतंत्र या प्रजातंत्र जनता का शासन होता है जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करती है जबकि गणतंत्र लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार होती है जिसमे वे जनता द्वारा चुने हुए राष्ट्राध्यक्ष द्वारा शासन करते हैं।
अब देखना यह है कि क्या वाकई तंत्र और गण के बीच उस तरह का सहज और संवेदनशील रिश्ता बन पाया है जैसा कि एक व्यक्ति का अपने परिवार से होता है? आखिर आजादी पाने और फिर संविधान बनाने के पीछे की मूल भावना तो यही थी। महात्मा गांधी ने इस संदर्भ में कहा था-“मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करूँगा, जिसमें छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह अहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उनका योगदान है और उसकी आवाज का यहाँ महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करूँगा जहाँ ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं होगा, जहाँ स्त्री-पुरुष के बीच समानता होगी और इसमें नशे जैसी बुराइयों के लिए कोई जगह नहीं होगी।”
दरअसल, भारतीय गणतंत्र के मूल्यांकन की यही सबसे बड़ी कसौटी है कि भारत के संविधान में राज्य के लिए जो नीति-निर्देशक तत्व हैं उनमें भारतीय राष्ट्र-राज्य का जो आंतरिक लक्ष्य निर्धारित किया गया है वह बिलकुल गांधीजी और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के अन्य नायकों के विचारों का दिग्दर्शन कराता है। लेकिन हमारे संविधान और उसके आधार पर साकार गणतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि जो कुछ नीति-निर्देशक तत्व में है, राज्य का आचरण कई मायनों में उसके विपरीत हो जाता है। मसलन, प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा इस तरह से करना था जिसमें स्थानीय लोगों का सामूहिक स्वामित्व बना रहे और किसी का एकाधिकार न हो…गाँवों को धीरे-धीरे स्वावलंबन की ओर अग्रसर करना था जबकि प्राकृतिक संसाधनों पर से स्थानीय निवासियों का स्वामित्व धीरे-धीरे खत्म हो गया और सत्ता में बैठे राजनेताओं और नौकरशाहों से साठगांठ कर औद्योगिक घराने उनका मनमाना उपयोग कर रहे हैं।
दुनिया वैसे तो भारतीय गणतंत्र के अभी तक के सफर की सराहना करती रही है…दुनिया के जो देश भारत को दीनहीन मानते थे, वे ही इसे भविष्य की महाशक्ति मानकर इसके साथ संबंध बनाने में गर्व महसूस कर रहे हैं। यह सब एक तरह से तो तो हमारे गणतंत्र की सफलता के प्रमाण हैं लेकिन, जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि गणतांत्रिक भारत का हमारा लक्ष्य क्या था… तो फिर सतह की इस चमचमाहट के पीछे गहरा स्याह अंधेरा नजर आता है। भयावह भ्रष्टाचार, भूख से मरते लोग, पानी को तरसते खेत, काम की तलाश करते करोड़ों हाथ, बेकाबू कानून-व्यवस्था और बढ़ते अपराध की स्थिति हमारे गणतंत्र की सफलता को मुँह चिढ़ाती है।
फिर भी यह कहना उचित नहीं होगा कि भारत में गणतंत्र पूरी तरह से असफल है।देखा जाये तो भारत का गणतंत्र शहरों तक सिमटकर रह गया है और शहरी लोगों ने गाँवों से नाता लगभग तोड़ लिया है। सरकार को भी मानो किसानों की चिंता हरित क्रांति तक ही थी, ताकि अन्न के मामले में देश आत्मनिर्भर हो जाए। उसके बाद गांवों और किसानों को उनकी किस्मत के हवाले कर दिया गया। यही वजह है कि पिछले एक दशक में दो लाख से भी ज्यादा किसानों के आत्महत्या कर लेने पर भी हमारा गणतंत्र विचलित नहीं हुआ।
यह कह सकते हैं कि हमारा गणतंत्र शहरों में तो अपेक्षाकृत सफल हुआ है पर गाँवों को विकास की धारा में शामिल करने में पूरी तरह विफल रहा। इस कमी को दूर करने के लिए पंचायती राज शुरू किया गया मगर ग्रामीण इलाकों में निवेश नहीं बढ़ने से पंचायतें भी गाँवों को कितना खुशहाल बना सकती हैं? इन्हीं सब कारणों के चलते हमारे संविधान की मंशा के अनुरूप गाँव स्वावलंबन की ओर अग्रसर होने की बजाय अति परावलंबी और दुर्दशा के शिकार होते गए हैं। गाँव के लोगों को सामान्य जीवनयापन के लिए भी शहरों का रुख करना पड़ रहा है।गाँवों की कीमत पर विस्तार ले रहे शहरीकरण की प्रवृत्ति हमारे संविधान की मूल भावना के विपरीत है। हमारा संविधान कहीं भी ग्रामीण आबादी को खत्म करने की बात नहीं करता, पर हमारी आर्थिक नीति लगभग वही भूमिका निभा रही है और इसी से गण और तंत्र के बीच की खाई लगातार गहरी होती जा रही है।आजाद देश के सत्ताधारी, स्वार्थी राजनेता और नौकरशाह गणतंत्र के प्रमुख आदर्शों को भूल गए, तभी तो आज गण और तंत्र के बीच फासला बढ़ता जा रहा है। आज गण के तंत्र में आम आदमी को जरा भी अहसास नहीं होता कि यह उनका तंत्र है या उनकी सेवा के लिए संविधान में गण के लिए तंत्र का प्रावधान किया गया था। गण पर तंत्र हावी हो गया है। गण पर तंत्र का हावी होना यह भी दर्शाता है कि देश की राजनीति और नौकरशाही में स्वार्थी लोगों की संख्या बढ़ रही है और देशभक्तों की कमी हो रही है।।हमारे नौकरशाह,जो संविधान के कार्यान्वयन के लिए नियुक्त किए जाते हैं, उनके अंदर पनपते भ्रष्टाचार भी गण को तंत्र से दूर करने में बहुत हद तक जिम्मेदार हैं।राजनीतिक मंत्री तो आते जाते रहते हैं पर जिनके ऊपर नीतियों की कार्यवाही का उत्तरदायित्व है, वे अपने कार्यों के प्रति ईमानदारी से हटने लगे हैं।नौकरी में आते ही बस अपनी सुविधाओं और पैसे कमाने की होड़ में लग जाते हैं, जिस वजह से सरकारी नीतियाँ लोगों तक नहीं पहुँचतीं, बस कागजों की शोभा बनकर रह जाती हैं।ऐसे में तंत्र और गण के बीच की खाई तो बढ़ेगी ही।हालांकि, वर्तमान समय में इस दिशा में काफी काम हुये हैं, नीतियाँ बनी हैं और व्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास जारी है,परन्तु, वांछित सफलता मिलने में समय लगेगा।
भारत के गण के तंत्र में आयी दुर्बलता का एक आधार राजनीतिक दुर्बलता भी कही जा सकती है।इस दुर्बलता को दूर करने में गण सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है अपने वोट का प्रयोग राजनीतिक तौर पर जागरूक होकर करके। गणतंत्र की आन-बान और शान के लिए देश के हरेक नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय का क्यों न हो, अपने अंदर देशभक्ति की भावना जगानी चाहिए; संविधान में मिले अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि कर्तव्यों के निर्वाह में भी गंभीरता दिखानी चाहिए।
हमारा संविधान ही हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है। अगर देश के नागरिक संविधान में प्रतिष्ठापित बातों को अनुसरण करेंगे तो इससे देश में अधिक लोकतान्त्रिक मूल्यों का उदय होगा।लेकिन, दुर्भाग्यवश जब देश में पूरे जोश और देशभक्ति के साथ गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा होता है, तब भारत के ही कुछ अलगाववादी तत्व भारतीय संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग कर भारतीय संविधान की प्रतियाँ जला रहे होते हैं और भारत विरोधी नारे लगा रहे होते हैं।ऐसे में,भारत में लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करने के लिए सीमा पार की विरोधी ताकतों को बल मिलता है, जो पूरी तरह से निंदनीय है।गणतंत्र की सुरक्षा की दृष्टि से ऐसे देश और संविधान विरोधी तत्वों पर भारतीय संविधान के दायरे में कड़ी कार्यवाही की जरूरत है।
आज भारत विश्व की उभरती हुई शक्ति जरूर बन रहा है लेकिन,आज भी देश कुछ मामलों में काफी पिछड़ा हुआ है। देश में आज भी अनेक जगहों पर कन्या जन्म को दुर्भाग्य माना जाता है और आज भी भारत के रूढ़िवादी समाज में हजारों कन्याओं की भ्रूण हत्या की जाती है। सड़कों पर महिलाओं पर अत्याचार होते हैं। सरेआम महिलाओं से छेड़छाड़ और बलात्कार के किस्से मानो आम बात हैं। कई युवक-युवतियाँ एक तरफ जहाँ हमारे देश का नाम ऊँचा कर रहे हैं,वहीं कई ऐसे युवा भी हैं जो देश को शर्मसार कर रहे हैं।
भारत बेशक एक स्वतंत्र गणराज्य सालों पहले बन गया हो लेकिन, इतने सालों बाद आज भी देश में धर्म, जाति और अमीरी-गरीबी के आधार पर भेदभाव आम बात है। लोग आज भी जाति के आधार पर ऊँच-नीच की भावना रखते हैं। आज भी लोगों में सामंतवादी विचारधारा घर की हुई है और कुछ अमीर लोग आज भी समझते हैं कि अच्छे कपड़े पहनना, अच्छे घर में रहना, अच्छी शिक्षा प्राप्त करना और आर्थिक विकास पर सिर्फ उनका ही जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके लिए जरूरत है कि देश में संविधान द्वारा प्रदत्त शिक्षा के अधिकार के जरिए लोगों में जागरूकता लायी जाये,जिससे कि देश में धर्म, जाति, अमीरी – गरीबी और लिंग के आधार पर भेदभाव न हो सके।
आज देश के लिए कानून बनाने वाली भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था भारतीय संसद की हालत भी चिंतनीय है। जो लोग संसद के दोनों सदनों में प्रतिनिधि बनकर जाते हैं, वे लोग ही आज अक्सर संसद को चलने नहीं देने पर तुल जाते हैं। जब भी संसद सत्र होता है तो संसद सदस्यों द्वारा चर्चा करने की बजाय हंगामा किया जाता है। देश की जनता के पैसों पर हर तरह की सुविधा पाने वाले संसद सदस्य देश के भले के लिए काम करने की जगह संसद को कुश्ती का मैदान बना देते हैं। जिसमें पहलवानी के दांवपेचों की जगह आरोप प्रत्यारोप और अभद्र भाषा के दांवपेंच खेले जाते हैं। जरूरत है कि देश के लिए कानून बनाने वाले संसद सदस्यों के लिए एक कठोर कानून बनना चाहिए।
कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है कि, ‘जो भरा नहीं भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं…।’ हम नतमस्तक हैं उन महान शहीद देशभक्तों के आगे जिनकी बदौलत आज हम सभी एक गणतंत्र देश में आजादी से रह रहे हैं। अपनी जान की परवाह किए बगैर इन सभी ने देश पर अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था।हमें भारतीय संविधान और गणतंत्र के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहरानी चाहिए और देश के समक्ष आने वाली चुनौतियों का मिलकर सामूहिक रूप से सामना करने का प्रण लेना चाहिए। साथ-साथ देश में शिक्षा, समानता, सद्भाव, पारदर्शिता को बढ़ावा देने का संकल्प लेना चाहिए जिससे कि देश प्रगति के पथ पर और तेजी से आगे बढ़ सके,गण और तंत्र के बीच कोई दूरी न रहे और भारत सही मायने में एक गणतांत्रिक लोकतंत्र बन जाये।
अर्चना अनुप्रिया
दिल्ली, भारत