बिना धड़ की भूतनी

बिना धड़ की भूतनी

पिछले दस साल से मेरा एक ही मकसद था, आते जाते लोगों को तंग करना। रात को और गर्मियों की दोपहर में जब सड़कें सुनसान हो जातीं थीं तो मैं इसी तलाश में रहती थी कि कोई मेरे पास से गुज़रे और मैं उसे परेशान करूँ। जब लोग हैरान होते थे, चीखते चिल्लाते थे, अपनी फटी-फटी आँखों से मुझे देखते, बदहवास भागते थे, और भागते-भागते गिर पड़ते थे तो मुझे बहुत मज़ा आता था।उन लोगों को सताने में मुझे खास आनंद आता था, जो दुष्ट थे, जिन्होंने कुकर्म किये थे।

मुझे कुछ खास नहीं करना होता था। पीपल के पेड़ से टंगी, खून टपकाती, धड़ से अलग अपनी मुंडी भर दिखानी होती थी। वे अगर मेरी ओर नहीं देखते थे, तो एक अट्टहास करना होता था। मेरी विचलित कर देनी वाली आवाज़ उन्हें पहले चौंकाती थी, फिर आवाज़ का स्रोत ढूंढने को मज़बूर करती थी और फिर उनकी नज़र जब मुझ पर पड़ती थी, तो अचानक उनके चेहरे के उड़ते रंग देखकर मुझे बहुत तसल्ली मिलती थी।

अब पीपल का ये पेड़ ही मेरा घर था। ऊपर खुला आसमान, नीचे ज़मीन, खुली हवा, बादलों से गिरती बूंदे, मुझे सब अच्छा लगता था।अब तो कोई चिंता ही नहीं थी,न माँ-बाप की ताकीदें थीं, न समाज का बंधन था, न जमींदार थे, न पंडित थे, न राजपूत, न दलित, न किसी का उधार था, न कोई एहसान। न खेत, न बावड़ी, न मंदिर मस्जिद और न ही कुंए बंटे हुए थे। न कोई दर्द था, न ग़म और न ही गुस्सा। आज़ादी क्या होती है, ये तो मैंने मरने के बाद ही जाना था। कभी-कभी सोचती हूँ, काश… मैं भूतनी बन के ही पैदा होती, लड़की बन के नहीं। और लड़की पैदा होती भी तो, किसी नीची जाति के परिवार में तो कदापि नहीं।

सोलह साल की ही तो थी मैं। माँ, बाबू ने बड़ी देख-रेख की थी मेरी। मालपूड़े न सही पर मुझे और छोटे भाई को रोज़ भरपेट रोटी खिलाने में कोई कसर न रखी उन्होंने। सरकारी स्कूल में हम दोनों पढ़ते, आस-पास की लड़कियां मिलकर ‘गिट्टे’ या ‘कोड़ा जमाल शाही’ खेल लेते।थोड़े बड़े हुए तो समझ में आया कि हम नीच जात हैं, हमारे नल, कुँए और मंदिर अलग हैं।हम बड़ी जात के लोगों की आँख में आँख डाल कर नहीं देख सकते।हम उन्हें छू नहीं सकते।उनके साथ खेल नहीं सकते।माँ गाँव के जमींदार के यहाँ सफाई का काम करती, बाबू उसके खेत में लगे रहते। कई बार समझ न आता कि जब हमारे भी उन्हीं की तरह हाथ हैं, पैर हैं, त्वचा है, खून है, धमनियां हैं, हड्डियां हैं, इन्द्रियां हैं तो एक ऊँची और एक नीची जात का क्यों है?

मैं बड़ी हो रही थी। कक्षा छह में पहुँचते ही मुझे दुपट्टा पहना दिया गया। दो साल बाद मुझे ताकीद कर दी गई कि पराए मर्द के सामने नहीं आना। गलती से आ जाओ तो अपना चेहरा दुपट्टे से ढाँप लेना।

तब तो बात समझ नहीं आती थी। गुस्से और नफरत से मैं भर उठती थी। दूसरी नीची जात की लड़कियों की तरह मैं अपना भाग्य स्वीकार नहीं कर पाती थी। भगवान से कई बार शिकायत करती थी, सवाल पूछती थी। पर क्या भगवान् वाकई था? अगर होता, तो क्या मेरे साथ हुआ हादसा उसे न दिखता? अगर दिखता तो भला वो चुप क्यों रहता?

मैं बड़ी हो रही थी, क्या ये मेरी ग़लती थी? मेरे सीने में भी उभार आ रहे थे, मेरे नाक-नक्श माँ की तरह कंटीले थे, मेरी हंसी में खनक थी। कितनी बार माँ की डांट खानी पड़ती, ‘बेटी, ऐसे मत हंस। थोड़ा गंभीर रहना सीख।’

मैं कक्षा दस में थी। कब सोलह साल की हो गई, पता ही नहीं चला। माँ और बाबू ने बचपन में ही मेरी सगाई पास के गाँव में रहने वाले दोस्त चोखेलाल के लड़के से कर दी थी। चोखेलाल जूते बनाने की फैक्ट्री में काम करता था और बाबू का कहना था कि उसका बेटा पढ़ लिख कर किसी ऑफिस में लग जाएगा और सोना का भविष्य सुधर जाएगा।

‘सोना’ हाँ ये नाम दिया था माँ ने मुझे। बड़ा गर्व था उन्हें मुझ पर कि उनकी बेटी होशियार है, सुन्दर है और सुशील भी है। और मैं सोने जैसी ही खरी निकल भी रही थी।

मैं तो वैसे भी अपनी उम्र से ज़्यादा ही लगती थी। मेरा शरीर भरने लगा था। माँ मुझे देखती तो चिंता की लकीरें उसके माथे पर उभर आतीं। बाबू से कहतीं – ‘अब अगले साल सोना की शादी हो जाए तो शांति पड़े। लड़की जवान हो रही है, कुछ ऊँच नीच हो गई तो कहीं भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।’

बाबू कहते, ‘चिंता क्यों करती हो सोना की माँ। बहुत समझदार है हमारी सोना। और छोटा भी तो है न उसका ख्याल रखने के लिए। कुछ महीनों की बात है बस.’

‘सोना पर तो भरोसा है सोना के बाबू पर दुनिया पर नहीं।’ माँ बड़बड़ाती हुई सो जातीं या सोते-सोते भी जगती रहतीं

अब मैं भी इतनी भोली भी नहीं रही थी। दुनियादारी समझ में आने लगी थी। मर्दों की निगाहों, उनके भद्दे इशारों को अनदेखा करना सीख लिया था। प्रकृति ने लड़कियों को बनाया ही ऐसा है कि हर आते जाते मर्द की नज़र उस पर ज़रूर पड़ती है। मुझे लगता था कि मेरी खूबसूरती ही मेरी दुश्मन बनती जा रही थी।

उस दिन सहेलियों के साथ स्कूल से घर आ रही थी, जब ज़मींदार के लड़के ने मेरे सामने बाइक रोक दी और बोला, ‘सोनिये, बहुत सुना है तेरे बारे में, बहुत ब्यूटीफुल है तू, अपने जलवे कभी हमें भी तो दिखा।’

उसकी बात पर उसका दोस्त ठठाकर हंस पड़ा।

‘चलो, अभी उठा लें इसे।’

मैं डर के पीछे हटी, दुपट्टे से मुंह ढंकने लगी, तो उसकी हिम्मत और बढ़ गई। आगे आकर मेरा दुपट्टा ही खींच लिया।

मुझे लगा जैसे सबके सामने मुझे नंगा कर दिया उसने। गुस्से और अपमान से मेरा चेहरा तमतमा उठा। जाने कब आगे बढ़ी और एक तमाचा उसके गाल पर धर दिया। दुपट्टा छीन कर मैं घर की ओर भागी।

‘तेरी इतनी हिम्मत, तू नीच जात की, कुलटा। तूने मुझे छुआ। अब देख तेरा क्या हश्र करता हूँ।’ कहते-कहते उसने शायद छुरा या रिवॉल्वर निकलने की कोशिश की।

मुझे तो लगा कि अभीउसकी रिवॉल्वर से निकली गोली मेरी पीठ में लगेगी या धारदार छुरे से वो मुझे मारने की कोशिश करेगा। पर शायद उसके दोस्त ने रोका होगा। मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ मेरा पीछा करने लगी, मैं भागकर फत्ते चाचा की टेलरिंग की दुकान में घुस गई। मोटर साइकिल दुकान के सामने रुकी, वो चिल्लाया ‘बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी। बहुत गुमान है न तुझे खुद पर, देखना कैसे तेरा सारा घमंड निकालूंगा।’

मोटर साइकिल की आवाज़ दूर हो गई। फत्ते चाचा ने मुझे देखा। उनकी आँखों में एक दर्द उभर आया। कुछ पूछा नहीं क्योंकि ऐसी स्थिति में सब कुछ सबको पता ही होता है। उठ के आए और धीरे से बोले – ‘चल तुझे घर तक छोड़ आऊं।’

वे रास्ते में कुछ भी नहीं बोले। चौकन्ने ज़रूर रहे। मुझे सुरक्षित घर पहुंचाकर वापस जाते-जाते पिताजी से सिर्फ इतना कहा, ‘ध्यान रखना बिटिया का। जमींदार का लड़का पीछे पड़ गया है। जल्दी शादी क्यों नहीं कर देते।’

बाबू बिना कुछ पूछे सब समझ गए, बोले – ‘बस पंद्रह दिन की बात है फत्ते भाई। सोना की पढ़ाई पूरी हो जाएगी। फिर तीन महीने में शादी करनी ही है।

फत्ते चाचा ने सिर्फ यही कहा – ‘तब तक छोटे के साथ भेजना इसे।’

मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूँ। बिस्तर में जाकर फूट-फूट कर रोने लगी।

बाबू ने मेरे सर पर हाथ रखा -‘सोना। हमारी बेटियों का कोई रखवाला नहीं है। नीची जाति के हैं हम और पूरा गाँव ही ठाकुरों, जमींदारों का है। कोई मदद नहीं करेगा हमारी। चुप रहने में ही भलाई है।’

माँ आई, बाबू से पूरी बात सुनकर मेरे पास आई – ‘बिटिया, गुस्से पर काबू रखना चाहिए था। तूने थप्पड़ मार कर ठीक नहीं किया। चल, उनसे माफी मांग लेते हैं।’

‘क्यों माँ, मेरी कोई ग़लती नहीं है। मैं क्यों माँगूँ माफ़ी?’ मैं चीखी।

‘ग़लती हमेशा हमारी ही होती है। नीची जात की। वो हमारे मालिक हैं। अन्नदाता हैं। उन्हीं के पैसों से तुझे पढ़ाया है मैंने। उन्हीं के दिए कपड़े पहने हैं तुम दोनों ने। माफ़ी तो मांगनी ही पड़ेगी।’ माँ कह रही थी।

भाई चुप था, उसने भी बाबू की तरह अपना भाग्य स्वीकार कर लिया था। एक दलित होने का, नीची जात में जन्म लेने का। दब कर रहने का। या उसे इन लड़कों की ताकत का पता था। आखिरकार माँ की जिद पे बेमन से मुझे भी माफ़ीनाम लिखना पड़ा। अगले दिन माँ काम पर पहुँची तो ठकुरानी से माफ़ी मांग ली, मेरी चिट्ठी भी उन्हें दी। ठाकुरानी वैसे नरम दिल की थीं, मगर बेटे का अपमान उनका अपना अपमान था।

‘तेरी बेटी को थप्पड़ नहीं मारना चाहिए था कम्मो। गरम खून है, कुछ ऊँच नीच न हो जाए, इस बात का ध्यान रखना चाहिए।’

फिर बेटे को बुलाया, ‘माफ़ी मांग रही है सोना की माँ, अपने काम वालों का तो ख्याल रखना चाहिए न मुन्ना।’

माँ भी शायद उसके पैर पड़ी होगी। ठकुरानी के सामने तो मुन्ना ने कुछ नहीं कहा पर उसे शायद पहली बार किसी का चांटा पड़ा था और भरे बाजार में। बदला तो लेना ही था। सोना की सुंदरता ने उसे पहले ही बेचैन किया हुआ था। अब तो बस मौके की तलाश थी।

और एक दिन जब मैं आख़िरी परीक्षा के बाद स्कूल के बाहर भाई का इंज़ार कर रही थी तो मेरे पास एक जीप रुकी। अचानक दो लड़के उतरे, मुझे पकड़ा और जीप में डाल लिया। मन किया कि कूद के भाग जाऊं या शोर मचाऊं पर मेरे मुंह पर कपडा बाँध दिया गया था। मुझे दोनों तरफ से जकड़ लिया गया था। मैंने बगल वाले लड़के को पूरी ताकत से नोचने की कोशिश की।

मेरे हाथों को रस्सियों से बाँध दिया गया। गाड़ी बहुत तेजी से भागी जा रही थी और एक सुनसान रस्ते की तरफ मुड़ चुकी थी। मेरी आँखों पर भी पट्टी बंधी थी। मैं कुछ कर नहीं पा रही थी।

अचानक गाड़ी रुकी, लड़कों ने मुझे खींच के बाहर निकाला, और उनमें से एक बोला –

‘मुन्ना भैय्या ये रहा आपका माल, बहुत परेशान किया साली ने। देखो, मुझे कितनी ज़ोर से नोचा।‘

‘कोई बात नहीं, अब इसे हम परेशान करेंगे। मिल कर नोचेंगे इसे।’ मुन्ना की आवाज़ सुनाई दी।

मेरे शरीर के कपड़े एक एक कर भुट्टे के छिलके की तरह उतारे जाने लगे, किसी ने आगे बढ़ कर मेरी आँखों की पट्टी खींच दी। मेरे हाथ पीछे बंधे थे, मुंह पर कपड़ा बंधा था। अब मैं नंगी थी।

‘मुन्ना भैय्या, पहले आप भरपूर मजे ले लो’ आवाज़ें ज़हर के नश्तर चुभो रहीं थीं।

मन कर रहा था, उन्हें मार डालूं या अपने ही हाथों अपनी जान ले लूँ। पर वे चार थे और मैं अकेली। मुन्ना ने मेरे साथ ज़बरदस्ती की। मुझे तमाचे मारे, कुचला, रौंदा और बोला, ‘और मार मुझे थप्पड़। मेरी बिल्ली मुझी को म्याऊं। हमारा दिया खाते हो और हमीं को आँखें दिखाते हो। अब देख तेरा क्या हश्र करता हूँ।‘

मुझे दर्द हो रहा था, खून निकल रहा था, आंसू बह रहे थे पर वे राक्षस जैसे मुझे बर्बाद करने पर तुल गए थे। मेरी आत्मा मर चुकी थी, देवी देवता सब जैसे गुम हो गए थे। मेरी दबी-दबी चीखें कोई सुन न पा रहा था।

‘लो, अब तुम लोग मजे लो’ मुन्ना की आवाज़ सुनाई दी। और फिर बाकी के तीन लड़कों ने एक साथ मुझ पर हमला कर दिया।

वे दो तीन घंटे मेरे शरीर से खेलते रहे, मुझे मारते रहे, नोचते-खसोटते रहे, काटते रहे। मैं जाने कब बेहोश हो गई थी।

हल्का सा होश आया तो पूरे शरीर में दर्द था, मैं अधमरी थी। उन चारों ने बारी-बारी से जाने कितनी बार मेरे शरीर के साथ जानवरों जैसा सलूक किया था।

बेहोशी की सी हालत में मैंने सुना –

‘अब क्या करें इसका’

‘मार डालो।’

‘ऐसा सबक सिखाओ कि सब याद करें।’

‘गला काट के पेड़ पर टांग दो मुंडी, आगे से कोई ऐसी जुर्रत न करे’

अचानक किसी ने चमकदार, धारदार हथियार निकाला और एक ही झटके से मेरा सर धड़ से अलग कर दिया। मैं बहुत तड़पी, कुछ देर मेरा शरीर छटपटाया, फिर सब शांत हो गया।

उन्होंने मेरे धड़ को जला दिया, मेरे कटे हुए सर को इस पीपल पर टांग दिया।

अगले दिन क़स्बे वालों ने देखा, माँ बाबू दौड़े आए। किसने किया, सबको पता था, पर कोई सबूत न था, पुलिस आई, मेरे धड़ को बहुत खोजा, होता तो मिलता। मैं तो राख बन चुकी थी। बस तबसे मैं बिना धड़ की भूतनी कहलाती हूँ।

मेरा एक ही मकसद था, बदला लेना। तो सबसे पहले मैंने मुन्ना को सबसे पहले मारा, इसी पेड़ पर उसे निर्दयता से टांगकर फांसी लगा दी। मुझे याद है जब उसका दम निकला तो कैसे उसका मुंह खुल गया था, आँखों की गोटियां बाहर निकल आईं थीं, और घुटी-घुटी सी आवाज़ में वो चिल्ला रहा था। पर वहां कोई सुनने वाला कहाँ था। मरते समय उसके चेहरे पर डर और दर्द देखकर मुझे कितनी संतुष्टि हुई मैं आपको बता नहीं सकती। मर कर भी उसका भूत मुझसे इतनी दूर भागा, कि इस गाँव में आज तक वापस नहीं आया। फिर धीरे-धीरे मैंने बाकी लड़कों से भी बदला ले लिया। एक के हाथ पैर तोड़ डाले, दूसरे को नपुंसक बना डाला और तीसरे के घर आग लगा दी। उसका अधजला शरीर अभी भी ज़िंदा है। जिन्दा होकर भी तीनों अपाहिजों की ज़िन्दगी जी रहे हैं।

और मैं, मेरे तो मज़े हैं। मैं आज़ाद हूँ, भूतनी बन कर। इतनी आज़ाद और शक्तिशाली तो मैं जिन्दा रह कर कभी नहीं हो पाती। मैं घमंड में चूर ज़ोर-ज़ोर से हंसती, जब जी चाहे अपनी मुंडी से ही नाचती। अब तो मुझे अपना धड़ न होने का भी दर्द नहीं था। और नाचने के लिए पैरों की ज़रुरत भी कहाँ थी। मेरा मन जो नाच रहा था। ख़ुशी, दुःख, गुस्सा और नफरत सब मन की भावनाएं ही तो हैं।

मैं हर साल ज़मींदार को तंग करती, कभी उसकी फसल जला देती, कभी गोदाम से माल गायब कर गरीबों को बाँट देती, कभी उसका सामान छिपा देती। उसका पूरा परिवार हर साल पीपल के नीचे आता, दिया जलाता और मुझसे माफ़ी मांगता। धीरे-धीरे और लोग भी आने लगे। मैं सबको डरा कर भगा देती।

उस सुबह मैं सोकर उठी तो देखा माँ…, माँ यहाँ कैसे? अचानक धक्का सा लगा। माँ कैसे बुढ़ा सी गई है। और उसके पीछे छोटा? कितना गबरू जवान निकला है। और उसके साथ धीरे-धीरे चलते बाबू…। दस साल में उन्हें क्या हो गया है? कितना झुक गए हैं।

और ये गेरुए कपडे में इनके साथ कौन है…? मन शंका से भर उठा। और ये क्या…? सभी गाँव वाले उनके पीछे हाथों में दिए लेकर मेरी ही तरफ आ रहे हैं। आखिर बात क्या है…? मन अचानक घबराने लगा…।

कुछ तो बात है। ओह, आज का ही दिन तो था जब मुझे बेरहमी से मारा गया था। तो क्या ये सब मेरी पूजा करने आ रहे हैं?

माँ, बाबू और छोटे को देख मन किया कि दौड़ के उनसे लिपट जाऊं। माँ को चूम लूँ। प्यार से छोटे के बाल सहलाऊँ। बाबू का हाथ पकड़ कर कहूं, ‘देखो बाबू तुम्हारी बेटी अब एकदम आजाद है। और बहुत ताकतवर भी है। यही तो चाहते थे न तुम।’

सब पीपल के नीचे आ गए हैं। गेरुए कपड़ों वाले बाबा पेड़ के नीचे बैठ कर पूजा की तयारी कर रहे हैं। शायद हवन कर रहे होंगे। जब जमींदार के घर हवन होता था तो मुझे हवन की खुशबू बहुत अच्छी लगती थी। पूरा घर जैसे पवित्र हो जाता था। हलवा, पूरी और खीर का प्रसाद, सबका स्वाद जैसे मेरी जुबान पर आ गया।

बाबा ने हवन कुंड में अग्नि जला दी थी।

तभी माँ की आवाज़ आई, ‘सोना, अब जा। बहुत हो गया तेरा प्रकोप, जा मुक्त हो जा। गाँव वाले अब और सहन नहीं कर पाएंगे, अब इस दुनिया को छोड़ दे।’

बाबू रो रहे थे, ‘दूसरा जनम ले बेटी।’

क्या? मेरे अपने लोग मुझे जाने को कह रहे हैं? पहले लौकिक दुनिया से और अब इस अलौकिक दुनिया से?

धक्का सा लगा। आखिर बेटियों को पसंद ही कौन करता है।

माँ कह रही थी, ‘छोटे की शादी है और गाँव से दस साल से बारात नहीं उठी है। ज़िन्दगी रुक सी गई है यहाँ। इसको आगे बढ़ने दे। जा बेटी, अब जा। क्षमा कर।’ उन्हें देख मेरी आँखों में आंसू भर आए।

पूरा गाँव जैसे कह रहा था, ‘क्षमा करो…। हमें क्षमा करो…।’

गेरुए वस्त्र वाले बाबा मंत्रोच्चार कर रहे थे।

अरे… मुझे क्या हो रहा है…? मैं… मैं… पिघल रही हूँ। मेरा अस्तित्व पानी-पानी हो रहा है…। मेरा धड़ तो पहले ही जल चुका था। अब मेरी गर्दन, मुंह, नाक, आँखें, कान, बाल, माथा और फिर सर, सब विलीन हो रहा है। पर मुझे कोई दर्द नहीं हो रहा है, न कहीं पीड़ा हो रही है, और न ही जलन।

अचानक गाँव वालों की आवाज़ें शांत हो गई हैं। मैं आवाज़ लगाती हूँ – ‘माँ, बाबू, छोटे। अब मैं जा रही हूँ।‘

मगर कोई मुझे सुन नहीं पा रहा है। जाने कैसे मेरे चारों तरफ अद्भुत शांति सी छा गई है। मैं आखिरी बार सब पर नज़र डालती हूँ और फिर दर्द, ग़म, अन्याय से भरी दुनिया छोड़कर किसी परलौकिक दुनिया में चली जाती हूँ। सदा के लिए!

 

रेखा राजवंशी, 

सिडनी ऑस्ट्रेलिया

 

 

 

0