मादक संगीत में डूबा वासंती संदेश

मादक संगीत में डूबा वासंती संदेश

मैं अपनी कर्मस्थली की ओर गतियमान देखती जाती हूं, प्रकृति के खुले आंगन में, अनेकों की संख्या में खड़े , पत्र विहिन शाखाओं को धारण किए हुए महुआ के वृक्षों को। मानो बांहें फैलाए खड़े हों, अपनी प्रेयसी के इंतजार में। पत्तियाँ सूख कर ताम्रपत्र बन गई हैं और जड़ों के आसपास बड़ी परिधि बनाते हुए धरती को भी ताम्ररंगी कर रही हैं। परंतु शाखाओं की ऊपरी शिराओं पर इनके फल लगे हुए हैं। छोटे-छोटे आकार के होते हैं फल , प्राय:गोलाकार रूप में एक दूसरे से बंधे हुए। होली के बाद जैसे-जैसे वातावरण में तपिश बढ़ेगी, इनके फल मानो उस तपिश से बचने के लिए धरती के शीतल आगोश में छुप जाना चाहेंगे।महुआ की मादक सुगंध हवाओं में घुल मिलकर पथिकों के श्वास में समाने लगेगी ।ग्रामीण-पुरुष, स्त्रियां , बच्चें इन फलों को टोकरियों में चुनकर रखते हुए प्राय: दिख जाएंगे।कई बार इन फलों को सड़कों के किनारे सूखते भी पाया है। ग्रामीणों की आय का जरिया हैं ये फल।शहर से व्यापारी आकर इसके सूखे फलों को बीस -बाईस रुपये से लेकर चालीस रुपये प्रति किलोग्राम तक की दर पर खरीद लेते हैं।शराब निर्माण के लिए इनका प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी इक्के -दुक्के जगह पर लोग घरों में शराब बनाते हैं। सुना है इसके बीज से टोरी या गुल्ली नामक तेल तैयार किया जाता है।सुस्वाद का भी जिक्र उनके मुख से सुना जिन्होंने इनके फलों का अचार खाया है। महुआ की चर्चा चलने पर इसकी रोटी से जुड़े अपने बचपन की भी किसी को याद आई।इस वृक्ष के विभिन्न अंगों के अपने औषधीय महत्व भी हैं।विशेषकर दांत के दर्द में ग्रामीण इसके छालों का प्रयोग करते हैं। पर मन कुछ और ही गुन रहा है इन्हें देखकर।अभी तो प्रकृति वसंत का गान सुन रही है, और ऐसे में पतझड़ महुआ की जड़ों के आसपास। क्या कहना चाहते हैं महुआ के ये वृक्ष? कहीं यह तो नहीं , पांवों में परिस्थितियों के कैसे भी बंधन हो, कैसी भी जकड़न क्यों न हो, बस अंतर्मन में भावों की मादकता के बीज को संभाल कर रखना। तुम्हारे आसपास की हवा में तुम्हारे व्यक्तित्व से फैला सुगंध ही तुम्हारा परिचय हो, मेरे फलों के सुगंध से आकार पाते मेरे परिचय की तरह।


अपने गंतव्य की ओर जैसे- जैसे गाड़ी आगे बढ़ती है, मानो लगता है दलमा की फैली हुई पहाड़ियों की श्रृंखला का अंतिम छोर खोज रही हूं मैं। दलमा के अंतिम छोर तक तो कहां पहुंचना हो पाता है ,वह मृग-मरीचिका बनी ही रहती है,परंतु रास्ते भर दलमा की पहाड़ियों पर छाई हरियाली और उसके आसपास स्थित जंगलों में पलाश की टहनियों पर उसके रक्ताभ फूलों की बिखरी हुई सुषमा को मैं अपनी आंखों में समेट रही होती हूं । बसंत का संदेश इनके सौंदर्य में समाया है और इनके सौंदर्य में प्रकृति प्रदत कांति की दाहकता। गर्मियों में दलमा के पहाड़ों पर प्राय:आग लग जाती है, और ढलती संध्या या रात्रि के अंधकार में वह प्रज्वलित अग्नि एक लाल रेखा सी दिखाई पड़ती है। कारण मानवीय है या प्राकृतिक, इसकी विवेचना अभी संदर्भित नहीं होगी। कहना बस इतना है कि अग्नि की वही दाहकता, हरे-भरे परिवेश में यत्र- तत्र उपस्थित, पलाश के लाल-लाल पुष्पगुच्छों के सौंदर्य में प्रतिमूर्त है। पर बड़ा अजीब समन्वय है इनकी दाहकता में भी सौम्यता का। ये चटकीले लाल फूल सुकून दे जाते हैं प्रकृति प्रेमी हृदय को। झारखंड ही नहीं अपितु उत्तर प्रदेश का भी यह राजकीय पुष्प मानो कह रहा हो, सौंदर्य का विशिष्ट परिधान उसकी सौम्यता ही है। पलास, छूल ,ढाक, टेसू,किंशुक,केशु अनेक नामों से पुकारा जाने वाला यह पुष्प जंगल की आग, रक्त पुष्प, वक्र पुष्प आदि नामों का भी स्वामी है।

तोते की चोंच की तरह की आकृति वाली इस की पंखुड़ियां अर्धचंद्र का बोध कराती हैं। ग्रामीण बच्चे इसके फूलों को चूस कर मीठा रसपान करते हैं।अनेक औषधीय प्रयोग इस वृक्ष के तो हैं ही, यज्ञ में इसकी लकड़ी को पवित्र माने जाने के कारण इसे ब्रह्म वृक्ष के नाम से भी पुकारा गया है।प्राचीन काल से रंग निर्माण हेतु इसके फूलों का उपयोग किया जाता रहा है। भारतीय संस्कृति और प्रकृति का कैसा तादात्म्य है कि होली जब तक गांव -बस्तियों की राह पकड़े, तब तक ये रक्तपुष्प अपने पूरे यौवन के निखार के साथ प्रस्तुत हाथ जोड़े खड़े मिलते हैं। अद्भुत सौंदर्य से परिपूर्ण ये फूल निर्गंध होते हैं_ “रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः। विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥”किंशुक संदेश देता चलता है कि सौंदर्य तो हो परंतु निर्गंध न बनो मेरी तरह ,जीवन में ज्ञान का, मूल्यों का, विचारों का सुगंध बना रहे । पलास या ढाक से जुड़ा एक अति लोकप्रिय और प्रचलित कहावत “ढाक के वही तीन पात”अपेक्षित परिवर्तनों की अनुपस्थिति की व्याख्या करता है।किसी वृक्ष का जीवन मूल्यों से इतना गहरा संबंध भारतीय भौगोलिक क्षेत्र में इस वृक्ष की सर्वव्यापकता के कारण ही रहा होगा।पलाश की पत्तियां हमेशा तीन के समूह में ही होती हैं, चाहे वह छोटे आकार की हो या बड़े। अनुपम वसंत, अद्भुत प्रकृति, हृदयग्राही संदेश।

रीता रानी,
जमशेदपुर, झारखंड।

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