युद्ध लड़ रही हैं लड़कियाँ

युद्ध लड़ रही हैं लड़कियाँ

कविता संग्रह- युद्ध लड़ रही हैं लड़कियाँ
कवि-वीरेंदर भाटिया
प्रकाशक- संभव प्रकाशक, प्रेमचंद्र पुस्तकालय
तितरम, कैथल-136027 (हरियाणा)
प्रथम संस्करण- 2020

स्वतंत्र सदी में युद्ध लड़ रही स्त्रियाँ : पर-तंत्रता

यह समय पुस्तक समीक्षा का एक ऐसा दौर है जहां हर समीक्षाकार व्यक्तिगत तौर पर ध्यान रखकर समीक्षा करने पर आमादा है। ऐसे में पाठक पर यह छोड़ा जाता है कि समीक्षाकार ने कहाँ तक पुस्तक के साथ न्याय कर पाया है। ‘युद्ध लड़ रही लड़कियाँ’ कविता संग्रह वीरेंद्र भाटिया का पहला कविता संग्रह है जो हाल ही में 2020 के शुरुआती मौसम में प्रकाशित हुआ।
कविता लेखक का आईना या इंसान होने की गवाही देती है। धूमिल के शब्दों में कहें तो “कविता, भाषा में आदमी होने की तमीज है।” आज का समय अत्याधुनिक युग है जहां समय की जरूरत नैतिकता और औचित्य की है। ऐसे में कविता का विषय और उद्देश्य समाज को दिशा और दशा देना होना चाहिए। और सही मायने में साहित्य जनमानस का तभी बन सकता है जब उसमें संवेदना हो, चेतना हो, उद्देश्य हो, नवीनता हो। प्रेमचंद्र के शब्दों में कहें तो- “साहित्य मनोरंजन व विलासिता की वस्तु नहीं है, हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जो गति, संघर्ष, बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”
युद्ध लड़ रही लड़कियाँ कविता संग्रह की भूमिका से लेकर संग्रह की आखिरी कविता तक के सफर में बेचैनी, संघर्ष, प्रश्न, मानवीयता, राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक औचित्य सब कुछ समाहित है। समानता, अस्मिता, संविधान की रक्षा करता हुआ कवि समाज से सवाल करता है देश से सवाल करता है देश के रहनुमाओं से सवाल करता है उनको दुतकारता है और इंसान होने की सही परिभाषा बताता दिखता है।
कविता संग्रह की पहली कविता ‘चिड़िया उड़’ अपने आप में अस्मिता और पहचान के साथ बहुत सारे सवालों को एक साथ खड़ा करती है।– “बिटिया ने कहा / चिड़िया उड़/ माँ ने कहा उड़… बिटिया ने कहा/ बिटिया उड़/ माँ ने उंगली रोक ली/ ड़बडबई आँखों से बिटिया को देखा/ लंबा साँस भीतर लिया और उंगली आकाश की ओर उठा दी।” कवि पुरुष होते हुए भी स्त्री स्वतन्त्रता के सारे पहलुओं को ऐसे उठाता है जैसे स्त्रियों के दर्द को महसूस किया हो सहा हो भोगा हो और ऐसी सच्ची सहानुभूति की जरूरत आज भी गुलामी झेल रही स्त्री की स्वतन्त्रता के लिए।
कवि स्त्रियों के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले उपमानों, शब्दो के माध्यम से ही उनकी विवशता और मुक्ति के रास्ते खोजता है। “हम स्त्री को भी/ मछलियों की तरह बचाते हैं/ हिरनो की तरह समझाते हैं/ चिड़ियों सा वर्गलाते हैं/ स्त्री ने फिर पलटकर पूछा एक दिन/ तुम पानी के मगरमच्छ/ जंगल के शेर/ और आसमान के बाज़ को क्यों नहीं समझाते कभी/” पुरुष ने स्त्री को गुलाम बनाए रखने के लिए ही तरह तरह के नियम बनाए, संस्कृति बनाई, परंपरा बनाई ताकि उसका शोषण किया जा सके। कवि की स्त्री आज के समय की स्त्री है जो स्वतंत्र आसमान में विचरण करना चाहती है, अपने निर्णय स्वं लेना चाहती है, आत्मनिर्भय और निडर होकर निकलना चाहती है आसमान जीतने। इसलिए स्त्री अब चुप नहीं रहना चाहती आडंबर, कुरीतियों और समाज के बनाए बंधनों के सामने। ऐसे में स्त्री अपने अंत: से सवाल करती है ‘कुछ स्त्रियाँ’ कविता- ‘फिर किसी दिन वे/ समाज की नज़र से पढ़ती है खुद को/ … जहां तय किया था समाज ने/ कि मरने तक/ तुम और तुम्हारी इच्छाएँ/ इस देहरी के बाहर नहीं जानी चाहिए।’ ऐसे ही ‘बहुत बोलती हैं स्त्रियाँ’ कविता में सदियों से बनाई गयी एक अवधारणा जिसका कवि खंडन करते हैं और कहते हैं कि स्त्री कभी अपना मुह नहीं खोली शोषण/ अत्याचार/ अभिमान/ हक आदि के लिए फिर भी उसे ऐसा उपमान दिया गया। “चुप रहते मर गयी स्त्री की भाषा/ या विकसित ही नहीं हुई/ वह सोचती रही युगों तक/ कि बोले वह/… वेदों में/ पुराणों में/ चौपाइयों में/ दोहों में/ स्त्री पर तो बोला गया/ स्त्री नहीं बोली मगर उनमें/…. तब से बदनाम हैं/ कि स्त्रियाँ बोलती बहुत हैं।”


ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित काव्यकृति पद्मावत पर भी स्त्री की भूमिका और स्त्री परतंत्रता के सवालों को कवि खड़ा करते हैं और समकालीन स्त्री के सामने उस पर सोचने, तर्क करने की एक जिज्ञासा पैदा करते हैं। कविता ‘जौहर करो पद्मावती’ से- “जौहर करो पद्मावती/ पवित्र रहो/ पतिव्रता रहो/ पवित्र रहो/ सवाल मत करो/ 13 पत्नियों का राजा पति/ पवित्र कैसे है?… हीरामन चिल्लाता है/ रुको पद्मावती/ आग को प्रचंड करो/ जौहर मत करो/ जौहर दिखाओ/ जला डालो तमाम जौहर गाथाएँ/ जला डालो पवित्रता बचा लेने के तमाम ग्रंथ/ राख़ होती स्त्री को बचा लो।”
स्त्री के स्व मन को पढ़ने का हुनर शायद पुरुषों मे विरलों को ही मिलता है जो भाटिया जी को तोहफे में मिला। आपकी कविता सम्पूर्ण स्त्री समाज से संवाद करती हैं। आदमी से संवाद करती हैं। जिसको पढ़कर कोई भी स्त्री कह उठेगी- आह : यह तो मेरी जिंदगी है। कविता की यही अनिवार्यता भी है कि वह अपनी होकर भी सम्पूर्ण समाज की लगे। कविता ‘मैं श्रीदेवी बोल रही हूँ’ से- “मैं कभी नहीं बोली सदेह / देह बोलती रही बेशक/… अतिक्रमण औरत के शब्दकोश का शब्द नहीं/ अतिक्रमणों में घुटकर बेशक मर जाना/ औरत चाहे श्रीदेवी हो / फूलन देवी हो / या भंवरी देवी/ देवी के प्रतिमान तय हैं/ देवी के लिए भी तय हैं जंजीरें और जकड़ने/…मर कर तो मुक्त हो जाने दो/ कि मर गई औरत के लिए तो / थोड़े उदार हो नियम/ जैसे मर गए पुरुष के लिए होते हैं।”
कविता ‘स्त्रियाँ जब चली जाती हैं’ से- “स्त्रियाँ/ अक्सर कहीं नहीं जाती/ साथ रहती हैं/ पास रहती हैं/ जब भी जाती हैं कहीं/ तो आधी ही जाती हैं/ बची हुई आधी घर में ही रहती हैं/…. स्त्रियाँ जब चली जाती हैं/ तब ही बोध होता है/ कि जरूरी क्यों होता है/ घर में स्त्री का बने रहना।” आपकी सम्पूर्ण कविताओं में मानवता को ज़िंदा रखने की बात होती है। आपने साफ़गोई से समाज की परंपरा-संस्कृति-आस्था आदि के चरित्र को कटघरे में ला खड़ा किया है। राजनीतिक सत्ता, धार्मिक सत्ता, आर्थिक सत्ता सब की गहराई से पड़ताल कर सत्ताधीशों पर सवाल करती है। आपकी कविता स्त्री के हर रूप का चित्र खीचती है उनके अंतस को छूती है। कविता “मैं प्रेम ठीक से निभा रही हूँ न’ से ‘पुरुष देखता है/ जर्जर कप/ तड़पता मोम / भभकती लौ/ बिस्तर की सलवटें अब स्त्री की देह पर हैं।” कविता ‘बिगड़ी हुई स्त्रियाँ’ से- “बिगड़े हुए पुरुष जैसी सीमित नहीं है/ बिगड़ी हुई स्त्री की परिभाषा/”
कविता ‘स्त्री की दुनिया’ में स्त्रियों के बलिदान और त्याग को इतिहास ने कैसे भूला और कैसे उनके अस्तित्व को नकारा ऐसे ही सवाल खड़ा करती है वीरेंद्र भाटिया की पात्र ‘स्त्री’। कैसे युद्धों में स्त्रियों को ही झेलना पड़ा मर्दों के जाने का दंश और युद्ध के परिणाम के बाद हमेशा ही सताई गयी निर्दोष स्त्री। “जिन्होंने रच दिये महाग्रंथ/ वे सब/ स्त्रियों के लिए नहीं खोज पाये कोई नयी दुनिया/ फटेहाल स्त्रियों को देखकर भी/ नहीं पसीजे महमानवों के कलेजे/”
आपकी कविताओं में धार्मिक पात्रों को भी कटघरे में खड़ा किया है आज की स्त्री उनसे सवाल करती है जैसे पेरियार की चेतना वाली स्त्री सवाल करती है। और कई अनकहे सवाल छोड़ जाती है सम्पूर्ण समाज के मस्तिष्क पर। धर्म की आस्था में तर्क की कोई जगह नहीं होती ऐसी ही तार्किकता के साथ कवि समाज की नस को दबाने का पकड़ने का कार्य करते हैं। कविता ‘धर्म – दो’ से “धर्म को जब-जब कंधे की जरूरत होती है/ तब-तब वह शास्त्र निपुण के कंधे तलाशता है।” कविता’युद्ध लड़ रही हैं लड़कियाँ’ से- “युद्ध लड़ रही हैं लड़कियां / बिना गीता के/ बिना कृष्ण के / और द्वंद है कि पस्त किये जाते हैं उन्हें/ युद्धों के द्वंद से बड़े हैं / स्त्री के द्वंद/ अर्जुन से बड़े हैं/ द्रोपड़ियों के द्वंद/…युद्ध लड़ो द्रोपदी/ पहचानो स्वजन, परिजन और दुर्जन/ तुम देह नहीं हो द्रोपदी”
कविता ‘धर्म-एक’ में आपने धर्म और नैतिकता के संबंधो को आधुनिक समाज के इस भेष में धर्म के कार्य को व्याख्यायित किया है। “धर्म ही अनैतिकताओं का सबसे बड़ा पोशाक है/ मैं प्रबुद्ध जनों को गरियाता हूँ/ गरियाता हूँ अपने ही धर्म को/ लोग समझते हैं / मैं उनके धर्म को गरिया रहा हूँ/ लोग धर्म को नैतिकता से बड़ा कहते हैं/ मुझे भ्रम क्यों है / कि नैतिक होना ही दरअसल धार्मिक होना है।”
हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई-बौद्ध के भाई चारे तो खयाली नारे-बाजी बनकर रह गए। आज धर्म और राजनीति चीख चीख कर कहती है कि एक दूसरे से नफरत करो। कविता ‘मुसलमान से नफरत करो’ में भारतीय समाज की मन: स्थिति जो की देश के लिए ठीक नहीं है समाज के लिए ठीक नहीं है उसका गहराई से निरीक्षण करती है। बौद्ध-मुस्लिम किस तरह देश के इतिहास में लूटे जलाए गए जिसकी काली परछाई नालंदा जैसे विशाल ज्ञान भंडार आज भी गवाही के रूप में मौजूद हैं। “माई बाप का हुक्म है/ मुसलमान से नफरत करो/… नहीं पूछेंगे कि क्यों करें माई बाप/ क्यों शब्द माई बाप की शान में नहीं बोला जाता हुज़ूर/.. जब आपने कहा बौद्धो से नफरत करो/…जब आपने कहा शूद्र से नफरत करो/ हमने की हुजूर/ बस्तियाँ जलायी/ लुगाइयाँ लूटीं/ पानी मंदिर/ तीज-त्योहार/ वार व्यवहार से खदेड़ दिया उनको/… एक बात पूछे माई बाप ? कि धर्म की हानी हो तो हम हथियार उठा लें/ धर्म का लाभ हो तब हमें कुछ मिलेगा क्या?”
आपकी कविताई में कबीर की वाणी जैसी अक्खड्ता और कहीं कहीं उनकी पंक्तियों के उद्धरण भी देखने को मिलते हैं। आपकी कविता में नैतिकता और धर्म का वह गुण हैं जो मानुष तन को मानुष तन से जोड़ता है उसके तोड़ने की गिज्ञासा भी मन में नहीं लाता। आपकी कविता ‘प्रलय आएगी’ में इंसान से इंसान की मुलाक़ात को होते हुए देखने की गिज्ञासा नज़र आती है कि शायद प्रकृतिक आपदा के बाद एक इंसान दूसरे इंसान की जाती-धर्म न ढूंढकर आदमीयत ढूंढेगा। “प्रलय के बाद लय आएगी/ भाग रहे मजलूम मरेंगे/ तो दुर्ग-मठ भी ढहेंगे तमाम/ पूंजी के महल गिरेगे/ पूंजी के दंभ गिरेंगे/ पूंजी की व्यवस्था गिरेगी/ … आदमी आदमी को देखकर/ आदमीयत ढूंढेगा/ जाति नहीं ढूंढेगा/ धर्म नहीं ढूंढेगा/…”
रचनाकार अपनी कविताओं में शुक्ल, निराला, मैथिलीशरण गुप्त की तरह कविता के गुण की बात करता है, कविता के माध्यम से- “कविता भर्त्सना का औज़ार नहीं/ भड़ास नहीं कविता/ निज वेदना जाहिर करने का माध्यम नहीं/ शब्द विलास नहीं कविता/ उकड़ू पड़े जीवन के इर्द-गिर्द घूमते खयालात की पोटली नहीं है कविता/.. ”
आपकी रचनाओं में मानों आपकी पत्नी-प्रेमिका की यादों की खुशबू मौजूद है जो सिर्फ एक प्रेमिका की तरह प्रस्तुत नहीं होती बल्कि सम्पूर्ण स्त्री समाज की एक किरदार के रूप में आती है जो हर घर में, परिवार में मौजूद है। आपकी कविताओं में माँ भी सजग सचेत विवेक के रूप में मौजूद है। और पत्नी भी प्रेम और त्याग के साथ प्रस्तुत होते हुए कई सवाल छोड़ती है। तुम्हारे चार हाथ कविता से- “अक्सर तुम तस्वीर से उतरती हो/ तो तुम्हारे एक हाथ में बाम होती है/ दूसरे में पानी/ तीसरे में खाना / और चौथा हाथ पल्लू पकड़े होता है/ तुमने कभी नहीं कहा कि मेरे चार हाथ नहीं हैं/ मैंने भी कभी नहीं पूछा/ कि तुम्हारे चार हाथ कैसे हुए/ मेरे दो तो मैंने तुम्हें कभी दिये ही नहीं।”
आपकी कविताओं में जन-मानस के दर्द को गहराई से अनुभूति मिलती है, गरीब, किसान, बेरोजगार, असहाय, शोषित सबको आवाज दी है। आपकी कविताएं स्टीफन हॉकिंग, ग़ालिब आदि की तरह ईश्वर के अस्तित्व पर भी सवाल खड़ा करती हैं, सभी धर्मों में व्याप्त अवैज्ञानिकता के चेहरे को बेनकाब करती हैं। कविता ‘ईश्वर’ से- “भूखे ने / ईश्वर से रोटी माँगी/ ईश्वर ने कहा / पहले स्तुति गाओ/ … भूखे ने डाल दिया ईश्वर की गार्डन पर हाथ / बोला/ भूखा हिम्मत ही करता / तो न तुम ईश्वर होते / न मैं भूखा”
कविता ‘चेतन आदमी’ में भारतीय समाज में बन गयी परम्पराओं, रूढ़ियों से लड़ना कितना कठिन है। समाज की अवैज्ञानिकता से लड़ना कितना कठिन है दोनों के दृश्य को देखने की कोशिश की गयी है- “चेतना आदमी / विद्रूपताओं से लड़ता है / रिवाज से लड़ता है / रिवाज बनकर घुस आई / धर्म बन कर चढ़ आयी विद्रूपताओं को/… अचेतन समाज कुलबुलाता है / बिलबिलाता है / शास्त्रों/ ग्रन्थों/ लोकों/ संदर्भों की आड़ ले/ प्रतीकार करता है ”
जिंदगी और मौत के बीच के सत्या और दर्शन का भौतिक शास्त्र कवि जीवन के विभिन्न पहलुओं बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, अवैज्ञानिकता, दंगा, धर्मांधता आदि को माध्यम बनाकर प्रस्तुत करते हैं। ग्रामीण अंचल या समाज में व्याप्त मुहावरों और क़हक़हों को माध्यम बनाकर सार्थक कविता का भाव प्रस्तुत करते हैं।
मीडिया और राजनीति का चरित्र समय के साथ किस तरह बदला कि उसको मानवता और जनमानस का चौथा स्तम्भ होने का खयाल भी अब नहीं रहा। कवि कविता के माध्यम किसानों की दुर्दशा को कहते हैं कि- ‘असल में बड़ी खबर वह है/ जिसके लिए बड़ा सा मुँह चाहिए/ बड़ी खबर दरअसल/ बड़े चेहरे से बनती है/ बड़ी पीड़ा से नहीं/”
वीरेंद्र भाटिया जी भी नागार्जुन, मुक्तिबोध की तरह बेबाक होकर राजनीतिक सत्ता और राजनेताओं का आंकलन करते हैं। कवि वर्तमान समय की दरहकीकत को अपनी कविताओं का विषय बनाते हैं। राजनीति और धर्म के संबद्ध से मानवता किस तरह कुचली जाती है उसका भी चित्र आपके यहाँ मिलता है । कविता ‘दंगों के बाद’ की मार्मिक स्थिति का चित्रण करती है- “दंगों के बाद वाला आसमान/ काला होता है/ कालिख बहुत दिन तक गिरती रहती है/ समाज के सर/” आपकी बहुत सी कविताओं में दंगों के ऐसे चित्र प्रस्तुत हैं जो किसी को भी विचलित कर दें।
आपकी कविताओं में जीवन संघर्ष से जुड़े प्रतीकों का प्रयोग मिलता है। कविता ‘अनुकूलन’ – “मैंने कहा जो सड़ जाता है, गल जाता है, बदबू देता है/ उसे खराब होना कहते हैं महोदय / उसने पकड़ी मेरी बात / कहा / सब्जी सड़ जाती है जैसे/ वैसे ही / सड़ जाता है समाज भी/ सड़ जाता है धर्म भी / सड़ जाते हैं वाद भी / हमें लेकिन बास नहीं आती/ मालूम है क्यों? / क्योंकि / सड़ी हुई चीजों का अनुकूलन/ कीड़ों के लिए होता है।”
स्पष्ट रूप से आपकी कविता में सामाजिक चेतना के सभी अहम पहलू मौजूद हैं। आपकी भाषा-शैली सजह-सरल और आमफ़हम भाषा है जिससे पाठक को समझने में कोई दिक्कत नहीं है। आपका कविता संग्रह मानवता के सम्पूर्ण पहलुओं को सँजोये हुए है। निश्चित ही आप एक अच्छे सजग रचनाकार हैं जो साहित्य की अनिवार्यता को बखूबी समझते हैं! एक अच्छा कविताप्रेमी होने के नाते मैं कविता प्रेमियों को यह सलाह दूँगा कि इस पुस्तक में मानवता के सभी अनिवार्य गुण मौजूद है। आपकी कविता आवाम से संवाद करती है, धर्म-राजनीति-संस्कृति के ऐसे रूप से संवाद करती है जो समाज में अनैतिकता, शोषण के मुख्य कारण हैं। आपकी पुस्तक की एक खास विशेषता है स्त्री चेतना, स्त्री संवेदना! “सच्चे मन से कहूं तो समकालीन साहित्य में किसी भी विधा में ऐसी स्त्री संवेदना को किसी भी पुरुष ने ही नहीं बल्कि खुद किसी स्त्री ने भी इतने सलीके से अपने जज्बात, अपने आँसू, अपने प्रश्न, अपनी जिज्ञासाओं, अपनी संवेदनाओं को अभिवयक्त करती हुई नहीं दिखती हैं।”

जुगुल किशोर चौधरी
एम.ए. (दिल्ली विश्वविद्यालय),
एम. फिल. (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र)
पी-एच .डी. (हिंदी) डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)
Email-jugulkishor12@yahoo.com jugulc@gmail.com
Mob. No.- 9555538591, 08860101648

0