कफन

कफन

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद जी के, सभी उपन्यास,कहानियाँ वक्त की नब्ज को पकड़ कर लिखी गईं है।समाज का दर्पण हैं।यूँ तो मुंशी जी की सभी रचनायें अप्रतिम हैं,लेकिन जब किसी एक की पसंद का बात हो तो यकायक बिजली सी कौंध जाती है,स्मृति पटल पर वह रचना,जो किसानों के शोषण,साहूकार,जमींदारों के प्रभुत्व को दर्शाने के साथ ग्रामीण परिवेश की सच्चाई को उजागर करती है।मन की पल पल बदलती भावनाएँ वर्णित करती है।वो कहानी है कफन।
घीसू और माधव।बाप और बेटे।कंगाली की चरम सीमा पर।उनकी कंगाली उनका कर्मफल थी।हद दर्जे के कामचोर।पैसे नहीं रहे तो जंगल से लकड़ियाँ बटोर बेच आये।दो चार दिन का खर्च चला।कभी किसी के खेत से आलू,ईख उखाड़ लाये।भून के खा लिया।
माधव की शादी हुई।पत्नी मेहनती थी।घर व्यवस्था से चलाती,इन दोनो का दोज़ख भरती।
आज प्रसव पीड़ा में मरणासन्न हालत मे थी।दर्द सहते सहते उसकी इहलीला समाप्त हुई।क्रिया कर्म का समान। कफन की व्यवस्था ।
पूरी कहानी इसी कफन पर आधारित हो,शीर्षक की सार्थकता सिद्ध करती है।बाप बेटों की मक्कारी जानते हुए भी लोगों ने मृतात्मा के कफन के लिये पैसे दिये।
दोनों बाज़ार गये।पांच रुपये की राशि बहुत होती है।
दार्शनिक हो गये दोनो-
“कफन मंहगा हो या सस्ता,शरीर के साथ जल ही तो जाता है।”
“मरने वाले को क्या पता कफन मंहगा है या सस्ता”
माया बहुत ठगिनी होती है।जीभ के स्वाद आध्यात्म के पारखी होते हुए भी मनचला होते हैं।दार्शनिकता के बीज बोते रहते हैं ।
“लोगों से कह देंगे,रुपये गिर गये।सो कफन न ला पाये।वो लोग इस बार भले ही पैसे न दें।कफन का इंतजाम जरुर करेंगें।”
समस्या का समाधान हुआ।कुल्हड़ भर भर कर,बाप- बेटे ने,दारू पी।अभी कुछ रूपये शेष बचे थे।दुकान से खरीदकर, पूड़ी,सब्जी,मिठाई जम कर खाई।शेष बची पूड़ियाँ ,दानवीरता का अहम भाव लिये,सामने खड़े
भिखारी को थमा दी गईं ।तन और मन दोनों ही,दोनों के अफर गये ।संतुष्ट हो गये।नशे ने अपना रंग दिखाया।
“बड़ी भाग्यशाली थी,संसार के माया मोह के बंधनो से जल्दी मुक्त हो गई। ”
“सीधे बैकुण्ठ जायेगी।मरते मरते भी हमारे जीवन की लालसा पूरी कर गई। “मदमस्त नाचने लगे दोनों।
विषय का कथ्य,वातावरण,सामाजिकता,संवाद सभी कुछ बेहतरीन।इसमे सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, कथा के दो मुख्य पात्र,घीसू और माधव,का सजीव चरित्र चित्रण।पढ़ते हुए प्रतीत होता है कि उन दोनों का चेहरा मोहरा, भाव भंगिमा, आँखों के सामने उभर आई है।दयनीय,भोले,संवेदनशील,निर्विकार भावयुक्त,पर उनके इन गुणों पर हावी है उनकी अकर्मण्यता।इसी अकर्मण्यता के प्रतिफल को,मुंशी जी की कलम ने ,कथा में उकेरा है।संवेदनाओं मे प्रगट किया है।पढ़ते वक्त हम सहज ही उनके चारित्र के साथ,अपना तादात्म बिठा लेते है,कभी उनपर क्रोधित होते हैं,कभी वितृष्ण हो जाते है,उनके तर्क,दार्शनिक अंदाज़,वीतरागिता पर, कभी हँसी आ जाती है।

सुनीता मिश्रा
भोपाल ,मप्र
शिक्षा-स्नातकोत्तर मनोविज्ञान
प्रकाशित पुस्तक का नाम-“दोराहा ”
विधा-कहानी,लघुकथा,लेख,कविता

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